Monday 21 September 2015

जीवन के द्वंद्वात्मक विकास में और निर्द्वंद्व अवस्था में कैसा संबंध है?
निर्द्वंद्व अवस्‍था ऐसी है जैसे बैलगाड़ी चलती है। तो उसके चाक के बीच की कील। कील नहीं घूमती चाक घूमता है। और द्वंद्वत्‍मक अवस्था वैसी है जैसा घूमता हुआ चाक। चाक घूमता है न घूमती हुई कील पर।
जो घूम रहा है, वह संसार, और जो नहीं घूम रहा है, वही परमात्मा।
जो कील की तरह तुम्हारे भीतर थिर है, वही तुम्हारा केंद्र, और जो चाक की तरह तुम्हारे भीतर घूम रहा है—तुम्हारा मन—वही संसार। जो घूमता हुआ मन है, वह द्वंद्वात्मक है, वह विकासशील है, वह हो रहा है, रोज हो रहा है, रोज जा रहा है, चल रहा है, चल रहा है। और तुम्हारे भीतर कुछ है जो न हो रहा है न उसको होना है, है; शाश्वत है, थिर है’, उसका कोई विकास नहीं। जैसा है वैसा ही सदा से है।
जो विकासमान है तुम्हारे भीतर—मन—वही है समय, टाइम, काल, परिवर्तन। और जो तुम्हारे भीतर विकास के पार बैठा है, निर्द्वंद्व, असंग, सदा से शांत, थिर, पालथी मारे, कभी हिला भी नहीं, अकंप, वह जो अकंप तत्व तुम्हारे भीतर बैठा है वह है कालातीत, समय के बाहर। संसार से स्वयं की तरफ जाने का अर्थ इतना ही है, चाक से कील की तरफ जाना, घूमते को छोड़ना, न घूमते को पकड़ना। क्योंकि घूमते के साथ खूब पिस लिए, चाक के साथ बंधे रहोगे तो पिसोगे ही। चाक के साथ बंधा आदमी पिसेगा ही, कष्ट पाएगा ही। चाक तो घूमता रहेगा और आदमी भी उसके साथ पिसता रहेगा। पुराने दिनों में सजा देते थे किसी को तो रथ के चाक से बांध देते थे। मर जाता आदमी चाक के साथ घूमता—घूमता। ऐसी ही सजा हम भुगत रहे हैं और किसी और ने हमें चाक से बांधा नहीं, हमने ही बांधा है, हमने ही चुन लिया है कील को।
कबीर का एक पद है। कबीर ने एक औरत को चक्की पीसते देखा, तो उनको खयाल आया कि इस चक्की के दो पाट हैं और दो पाटों के बीच में जो भी पड़ जाता है वह पिस जाता है।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
ज़ो उन्होंने यह पद लिखा। जब उन्होंने यह पद कहा तो उनके बेटे कमाल ने कहा—कमाल था ही कमाल—उसने कहा, आपने ठीक से नहीं देखा, क्योंकि दोनों पाटों के बीच में एक कील है, जिसने कील का सहारा ले लिया उसको कोई भी नहीं पीस सका। आपने देखा, लेकिन बहुत गौर से नहीं देखा। ठीक है, पाटों के बीच में जो पड़ गए वे पिस गए, लेकिन उनकी भी तो कुछ कहो..। कुछ गेहूं के दाने तुमने अगर कभी चक्की पीसी है तो तुम्हें पता होगा, कुछ दाने बड़े होशियार होते हैं, वे एकदम सरककर कील को पकड़ लेते हैं; सब पिस जाएगा, जब त्उम चक्की का पाट उठाओगे, देखोगे कुछ दाने जिन्होंने कील का सहारा पकड़ लिया, बच गए। ये कील का सहारा पकड़ लेने वाले गेहूं ही बुद्धपुरुष हैं। और क्या। संसार में तो सब द्वंद्वात्मक है।
धूल उड़ाता बगिया से पतझार गया
रितुपति फूल लुटाने वाला आएगा
किसके लिए रुका है मेला दुनिया में
किसके लिए उमरभर तक जग रोया है
विरह नहीं क्षणभर का जो सह सकता था
सुबह चिता को फूंक शाम घर सोया है
किसी एक के लिए नहीं रुकती हलचल
जाने कब से है ऐसी ही चहल—पहल
जाने वाला सूना कर घर—द्वार गया
धूम मचाता आने वाला आएगा
ओंठ सिसकते हैं जो, गीत सुनाते हैं
तपती है जो धरा, वही बरखा पाती
अग्नि—परीक्षा देता वह कंचन बनता
रोने वाली आंखें ही तो मुस्काती
धूप—छांव संग—संग रहते ज्वाला—पानी
अगर नहीं तो शाम—सुबह के क्या मानी
तन झुलसाता सूरज का अंगार गया
पथ छलकाता शशि का ग्‍वाला आएगा
ऐसे द्वंद्व में—दिन गया तो रात, रात गयी तो दिन, सुख गया तो दुख, दुख गया तो सुख—ऐसे द्वंद्व में चलता है मन। सफलता — असफलता, हानि—लाभ, मान— अपमान, ऐसे द्वंद्व में डोलता है मन। मन की सारी गति द्वंद्वात्मक है। और जहा भी द्वंद्व होगा, वहां कलह होगी। जहां भी दो होंगे, वहां घर्षण होगा; जहा घर्षण होगा, वहां शांति नही—शांति कैसे संभव है?
इसलिए मन कभी शांत नहीं होता। जब तुम कभी—कभी कहते हो कि मन शांत कैसे हो, तो तुम गलत प्रश्न उठा रहे हो। मन कभी शांत नहीं होता। मन तो जब होता ही नहीं तभी शांति होती है। मन के अभाव में शांति होती है, मन कभी शांत नहीं होता। जहा शांति है वहां मन नहीं और जहां मन है वहां शांति नहीं, क्योंकि मन की तो प्रक्रिया ही दो की है। हर चीज को तोड़कर संघर्ष में डाल देना मन का सूत्र है—दुविधा, दुई, द्वैत।
तो द्वंद्व में तो बड़ा आंतरिक घर्षण, कलह, पीड़ा, विषाद बना रहेगा। वही तो, वही तो बुद्ध कह रहे हैं जीवन—वह जो द्वंद्व का, दो का, बाहर का।
एक निर्द्वंद्व जीवन है—भीतर का, एक का, अद्वैत का। उस एक के जीवन में जो चला गया।
एक झेन फकीर हुआ, जब भी उससे कोई कुछ प्रश्न पूछता तो वह जवाब देने की बजाय एक अंगुली ऊपर उठाकर बता देता। यही उसका उत्तर था। कुल जमा इतना उत्तर जीवनभर उसने दिया। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं जो भी उत्तर दिया जा सकता है, उसने दे दिया।
मैं रोज बोलता हूं मगर उतनी ही बात कह रहा हूं वह फकीर जो एक अंगुली उठाकर कह देता था—एक। वह कहता था, दो में रहे तो झंझट में, एक में गए तो सब ठीक। दो यानी समस्या, एक यानी समाधि, समाधान। दो यानी संसार, एक यानी निर्वाण। मगर इतना भी वह कहता नहीं था, बस एक अंगुली।
जबवह मर रहा था, तब उसके शिष्य इकट्ठे थे। उन्होंने कहा, शायद अब मरते वक्त कुछ कह दे। कहा तो कुछ कभी नहीं। मरते वक्त, ठीक मरते वक्त, आखिरी क्षण उन्होंने उसे हिलाया और कहा कि गुरुदेव, अब तो कुछ कह दें! वह मुस्कुराया और उसने एक अंगुली ऊपर उठायी और मर गया। बस एक अंगुली उठी रही। उसके नाम पर जापान में जो मंदिर बना है, उसमें बस एक अंगुली की शतइr बनी है—ऊपर उठी एक अंगुली।
मरते वक्त भी उसने एक की तरफ इशारा किया। तुम जीवन में भी दो, मरने में भी दो; जागने में भी दो, सोने में भी दो। वह एक ही था—जीवन में भी एक, जागते—सोते, उठते—बैठते एक, मरते में भी एक। मरते क्षण में भी कोई द्वंद्व न था। इतना भी द्वंद्व न था कि मरूं, कि न मरूं, कुछ देर और रुकजाऊं, किन रुक जाऊं; यह अच्छा है कि बुरा है। जहा एक है, वहा तो चुनाव ही नही—जो है, है; जैसा है, ठीक है।
जाने वाले को सजल विदा
आने वाले का स्वागत है
परिवर्तन जीवन का क्रम है
युग के पीछे पल का श्रम है
सृष्टिकार का चक्र न रुकता
— गति में स्थिरता विभ्रम है
जड़ चेतन की सजल नियति है
चंचलता में कल्पित यति है
वर्तमान गत पर आधारित
भावी इनका ही अनुगत है
षट ऋतुओं का पुनरावर्तन
सूर्य—चंद्र का नित्यावर्तन
पलभर को भी कभी न रुकता
प्रकृति नटी का चंचल नर्तन
कभी खिलेंगे कभी झरेंगे
सुमन सदा श्रृंगार करेंगे
नाश और निर्माण एक है
बीज वृक्ष के अंतर्गत है
वर्तमान गत पर आधारित
भावी इनका ही अनुगत है
यहां तो वसंत है, पतझड़ है, फूल का खिलना है, फूल का झड़ना है। यहां हर चीज दो में है। जन्म है और मौत है, जवानी है और बुढ़ापा है, आज सब ठीक है और कल सब खराब हो गया, आज सब खराब है और कल सब ठीक हो गया। यहां तो चाक के आरे जैसे नीचे से ऊपर होते रहते हैं, ऐसा ही जीवन होता रहता है। यहां इस द्वंद्व में कुछ भी थिर नहीं है।
और थिर न होने के कारण बड़ी बेचैनी बनी रहती है, क्योंकि जो भी है उसका भरोसा नहीं है, आज है, कल होगा कि नहीं होगा! पद आज है, कल होगा कि नहीं होगा। धन आज है, कल होगा कि नहीं होगा। प्रियजन आज पास है, कल होगा कि नहीं होगा। यहां तो सब चीजें इतनी तीव्रता से बदल रही हैं कि भरोसा किया ही नहीं जा सकता। यहां तो अंधे ही भरोसा कर सकते हैं कि जौ है, वह कल भी रहेगा। आख वाले तो देखेंगे कि परिवर्तन ही परिवर्तन है, थिर तो कुछ भी नहीं है। तो फिर हम उसकी तलाश करें जो परिवर्तन के पार है। उसे खोजें, जो शाश्वत है, सनातन है। उसकी खोज ही धर्म है।
कुछ लोग प्रेम के माध्यम से पाते हैं उस एक को, क्योंकि प्रेम एक को उदघाटित कर देता। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है, दो को एक बना लेना। भक्त जब भगवान के साथ एक हो जाता, तब पकड़ ली कील, तब अब दो पाट उसे नहीं पीस सकते। या, दूसरी प्रक्रिया है, ध्यान। छोड़ दिया मन, बन गए साक्षी। जब साक्षी बन जाते हैं, धीरे—धीरे, धीरे— धीरे मन शांत होता जाता है, शांत होता जाता है, एक दिन खो जाता, शून्य हो जाता। जब मन शून्य हो जाता है और साक्षी बचता है, तो फिर बचा एक।
भक्त भगवान के साथ अपने प्रेम को जोड़कर एक हो जाता, ध्यानी संसार के साथ अपने को तोड़कर एक रह जाता। मगर दोनों प्रक्रियाएं एक होने की प्रक्रियाएं हैं। बुद्ध का मार्ग ध्यान का मार्ग है, साक्षी का मार्ग है, वैसा ही जैसा अष्टावक्र का। सहजो, दया, मीरा, उनका मार्ग भक्ति का मार्ग है। परमात्मा को अपने से जोड़ लेना है, ऐसा जोड़ लेना है कि जरा भी बीच में कुछ फासला न रह जाए। यह पता ही न चले कौन भक्त, कौन भगवान, उस घड़ी में दो खो गए। या, साक्षी का भाव निर्मित ही जाए, उस घड़ी में भी दो खो गए।
किसी तरह दो खो जाएं, किसी भी तरह, किसी भी व्यवस्था से तुम चाक की कील पर आ जाओ। उस कील में शाश्वत शांति है, शाश्वत सुख है। उस कील पर पहुंच जाने में तुम अपने केंद्र पर ही नहीं पहुंचे, अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। फिर कोई दुख नहीं। उसे कुछ लोग मोक्ष कहते हैं, कुछ लोग निर्वाण कहते हैं, शब्दों का ही भेद है। लेकिन जिसने उस शरण को पा लिया, एक की शरण को, उसके जीवन से सारे कष्ट ऐसे हो तिरोहित हो जाते हैं जैसे सुबह सूरज के ऊगने पर ओस के कण विदा हो जाते हैं। या जैसे दीए के जलने पर अंधेरा खो जाता है।
जब तक तुम इस एक को न पा लो, तब तक बेचैनी जाएगी नहीं। जब तक तुम इस एक को न पा लो, तब तक तुम तृप्त होना भी नहीं। तब तक इसकी खोज (जारी रखना। तब तक जो भी दाव पर लगाना पड़े, लगाना, क्योंकि यही पाने योग्य है। और सब पाकर भी कुछ पाया नहीं जाता। और इस एक को जो पा लेता है, वह सब पा लेता है। इक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए।

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