Sunday 6 September 2015

आपने कहा कि अगर कोई सच में प्रेम कर सके तो मात्र प्रेम पर्याप्त है और तब एक सौ बारह विधियों की जरूरत नहीं है। और सच्‍चा प्रेम क्या है, आपने वह भी समझाया। उससे मुझे विश्वास होता है कि मैं सच में प्रेम करता हूं। लेकिन मुझे जो आनंद ध्यान में अनुभव होता है वह उस परितोष से सर्वथा भिन्न है जो मुझे प्रेम में अनुभव होता है। और मैं ध्यान के बिना रहने की बात भी नहीं सोच सकता। इसलिए यह समझाने की कृपा करें कि ध्यान के बिना प्रेम पर्याप्त कैसे हो सकता है!
हुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि अगर तुम सच में प्रेम में हो तो तुम ध्यान के बारे में जिज्ञासा ही नहीं करोगे। क्यों? क्योंकि प्रेम ऐसी समग्र उपलब्धि है, ऐसा परिपूर्ण भराव है कि उससे कभी यह भाव नहीं उठ सकता कि कुछ कमी है कि कुछ खालीपन है कि कुछ भरना है कि कुछ और पाना है। और अगर तुम्हें महसूस हो कि कुछ और चाहिए, कुछ कमी है, कुछ और करना है, अनुभव करना है, तो समझना कि तुम्हारा प्रेम महज भावना है, यथार्थ नहीं। मैं तुम्हारे विश्वास पर संदेह नहीं करता, तुम विश्वास कर सकते हो कि तुम प्रेम करते हो। तुम्हारा विश्वास प्रामाणिक भी हो सकता है, तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो। तुम महसूस कर सकते हो कि तुम प्रेम में हो, लेकिन लक्षण बताते हैं कि तुम प्रेम में नहीं हो। प्रेम में होने के लक्षण क्या?
तीन लक्षण हैं। पहला लक्षण है, परिपूर्ण संतोष, जिसमें कुछ और की जरूरत नहीं रहती, परमात्मा तक की जरूरत नहीं रहती। दूसरा लक्षण है कि उसमें भविष्य नहीं है। प्रेम का यह एक क्षण शाश्वत के समान है। उसमें दूसरा क्षण नहीं है, भविष्य नहीं है, कोई कल नहीं है। प्रेम वर्तमान में घटित हो रहा है। और तीसरा लक्षण है कि प्रेम में तुम समाप्त हो जाते हो, तुम अब नहीं हो। और अगर तुम अब भी हो तो तुमने प्रेम के मंदिर में प्रवेश नहीं किया है।
अगर ये तीनों बातें मौजूद हों तो फिर और क्या चाहिए? अगर तुम नहीं रहे तो फिर ध्यान कौन करेगा? अगर कोई भविष्य नहीं रहा तो सब विधियां व्यर्थ हो गईं। क्योंकि विधियां तो भविष्य के लिए हैं, फल के लिए हैं। और यदि तुम इसी क्षण परितुष्ट हो, परम संतुष्ट हो, तो कुछ करने के लिए प्रेरणा या प्रयोजन क्या है?
मनोवैज्ञानिकों की एक धारा है—और वह आधुनिक चिंतन की एक बहुत महत्वपूर्ण धारा है—जिसका आरंभ विलहेम रेख से होता है। उसने कहा कि प्रेम के अभाव के कारण ही सब मानसिक रुग्णताएं पैदा होती हैं। क्योंकि तुम्हें प्रगाढ़ प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि तुम उसमें समग्रता से नहीं उतर सकते, इसलिए यह अतृप्त प्राणी अनेक आयामों में तृप्ति खोजता है।
जब मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम कर सकते हो तो और कुछ जरूरी नहीं है, तो उससे मेरा यह अर्थ नहीं है कि प्रेम पर्याप्त है। मैं यह कहता हूं कि अगर तुम प्रेम की गहराई में उतर सको तो प्रेम द्वार बन जाता है। तब प्रेम किसी भी अन्य ध्यान की भांति द्वार बन जाता है।
ध्यान क्या करता है? ध्यान भी तीन काम करता है। वह संतोष पैदा करता है, वह तुम्हें वर्तमान में जीने की सुविधा देता है और वह तुम्हारे अहंकार को मिटाता है। सो ध्यान किसी विधि के जरिए ये तीन काम संपन्न करता है। इसलिए तुम ऐसा कह सकते हो कि प्रेम स्वाभाविक विधि है। और अगर स्वाभाविक विधि न उपलब्ध हो तो उसकी जगह कृत्रिम विधियां प्रयोग में लायी जा सकती हैं।
लेकिन कोई व्यक्ति समझ सकता है कि मैं प्रेम में हूं। उसके लिए ये तीन चीजें कसौटी का काम करेंगी। उसे जानना होगा कि उसके तीन लक्षण हैं, कसौटी हैं, मापदंड हैं। उसे देखना होगा कि उसके प्रेम के साथ ये तीन बातें घटित होती हैं अथवा नहीं। अगर वे घटित नहीं होती हैं तो वह और कुछ होगा, प्रेम नहीं होगा।
और प्रेम एक बड़ी घटना है, वह बहुत चीजें हो सकता है। वह वासना हो सकती है, वह महज कामवासना हो सकती है, वह मालकियत की वृत्ति हो सकती है, यह भी हो सकता है कि तुम अकेले नहीं रह सकते और तुम्हें कुछ व्यस्तता चाहिए; तुम भयभीत हो और तुम्हें सुरक्षा के लिए किसी का संग—साथ चाहिए। दूसरे का संग—साथ सुरक्षा का भाव देता है। और वह प्रेम महज काम—संबंध भी हो सकता है।
ऊर्जा को निकास की जरूरत है। ऊर्जा इकट्ठी होती जाती है और बोझ बन जाती है। तब तुम्हें उसे निकालना पड़ता है, बाहर फेंकना पड़ता है। तो तुम्हारा प्रेम महज छुटकारे का उपाय हो सकता है। प्रेम अनेक चीज हो सकता है। प्रेम अनेक चीज है। और सामान्यत: प्रेम प्रेम के अतिरिक्त अनेक चीज है।
मेरे लिए प्रेम ध्यान है। इसलिए इसका उपयोग करो। अपने प्रेमी के साथ ध्यान में उतरो। जब भी तुम्हारा प्रेमी या प्रेमिका पास हो, उसके साथ गहरे ध्यान में उतर जाओ। एक—दूसरे की उपस्थिति को प्रेम की अवस्था बना लो।
सामान्यत: तुम ठीक इसके विपरीत चलते हो। जब प्रेमी साथ होते हैं तो लडते होते हैं। जब वे अलग होते हैं तब एक—दूसरे की सोचते हैं और जब साथ होते हैं तब लड़ते हैं। और फिर अलग होकर एक—दूसरे के संबंध में चिंतन करने लगते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन यह प्रेम नहीं है।
तो मैं कुछ सुझाव देता हूं। अपने प्रेमी या अपनी प्रेमिका की उपस्थिति को ध्यान की स्थिति बनाओ। मौन हो जाओ। पास—पास रहो, लेकिन मौन। एक—दूसरे की उपस्थिति को मन के विसर्जन का अवसर बनाओ, इसलिए सोचो मत। अगर प्रेमी के साथ रहकर भी तुम सोचते हो तो तुम प्रेमी के साथ ही नहीं हो। कैसे साथ हो सकते हो? दूर हो, अगर तुम अपनी बात सोच रहे हो और तुम्हारा प्रेमी अपनी बात सोच रहा है। तुम साथ—साथ हो, यह दिखता भर है, लेकिन यथार्थत: तुम दूर—दूर हो। क्योंकि जब दो मन विचार में संलग्न हैं तो वे एक—दूसरे से दो ध्रुवों की दूरी पर हैं।
सच्चे प्रेम का अर्थ तो विचार का विसर्जन है। तो अपने प्रेमी या प्रेमिका की सन्निधि में सोच—विचार बिलकुल बंद कर दो। तभी वह सन्निधि है। और तब तुम अचानक एक हो जाते हो। तब शरीर तुम्हें अलग— अलग नहीं रख सकते, शरीर की किसी गहराई में अवरोध टूट गया है। मौन अवरोध को मिटा देता है। पहली बात यह है।
अपने संबंध को धार्मिक बनाओ। जब तुम सच में प्रेम में होते हो तो प्रेम—पात्र परमात्मा हो जाता है। अगर ऐसा न हो तो भलीभांति समझना कि वह प्रेम संबंध नहीं है। यह असंभव है; प्रेम संबंध अधार्मिक संबंध नहीं हो सकता।
लेकिन क्या तुमने कभी अपने प्रेमी के लिए समादर अनुभव किया है? तुमने अनेक अन्य चीजें महसूस की होंगी, लेकिन समादर नहीं। यह विचार के बाहर मालूम पड़ता है। लेकिन भारत ने बहुत—बहुत प्रयोग किए हैं। यही कारण है कि भारतीय दृष्टि रही है कि पुरुष और स्त्री के बीच का प्रेम संबंध धार्मिक संबंध होना चाहिए, सांसारिक संबंध नहीं। प्रेमी और प्रेमिका दोनों ईश्वरीय हो जाते हैं। तुम उन्हें और किसी ढंग से नहीं देख सकते।
बहुत हैरानी की बात है, क्या तुमने अपनी पत्नी के लिए सम्मान अनुभव किया है? यह बात ही बेतुकी मालूम पड़ती है—पत्नी के लिए सम्मान? प्रश्न ही नहीं उठता है। तुम निंदा अनुभव कर सकते हो, कुछ भी अनुभव कर सकते हो, लेकिन सम्मान नहीं। महज सांसारिक संबंध है, तुम एक—दूसरे का उपयोग कर रहे हो। पत्नी कह सकती है कि मैं पति का आदर करती हूं लेकिन मैंने अब तक ऐसी पत्नी नहीं देखी जो पति का आदर करती हो। परंपरा है कि पति का समादर करे, इसलिए पत्नी कहे जाती है कि मैं समादर करती हूं और वह उसका नाम भी नहीं लेगी। आदर से वह नाम नहीं लेती, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि नाम छोड्कर वह सब कुछ कह सकती है। लेकिन महज परंपरा के कारण वह नाम नहीं लेती है।
तो दूसरी बात सम्मान है। प्रेमी या प्रेमिका की उपस्थिति में सम्मान अनुभव करो। अगर तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका में परमात्मा को नहीं देख सकते हो तो तुम उसे कहीं भी नहीं देख सकते। फिर तुम उसे वृक्ष में कैसे देखोगे जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है? फिर तुम से पत्थर या झाड़ में कैसे देखोगे जिनके साथ तुम्हारी कोई आत्मीयता नहीं है? अगर तुम अपने प्रेमी में परमात्मा को नहीं देख सकते, नहीं महसूस कर सकते, तो तुम उसे कहीं भी महसूस नहीं करोगे।
और अगर तुमने प्रेमी में परमात्मा को देख लिया तो देर—अबेर तुम उसे सर्वत्र देखोगे। क्योंकि एक बार दरवाजा खुल गया और किसी व्यक्ति में तुम्हें परमात्मा की झलक मिल गई तो तुम फिर उस झलक को कभी न भूल सकोगे। और इस कारण तब हर एक चीज द्वार बन जाएगी। यही कारण है कि मैं कहता हूं कि प्रेम स्वयं ध्यान है।
तो विरोध की भाषा में मत सोचो कि प्रेम करूं कि ध्यान। वह मेरा मतलब नहीं है। प्रेम और ध्यान में चुनाव मत करो। ध्यानपूर्वक प्रेम करो या प्रेमपूर्वक ध्यान करो। कोई विभाजन मत करो। प्रेम बहुत ही स्वाभाविक तत्व है और उसका उपयोग एक माध्यम की भांति किया जा सकता है। तंत्र ने यह उपयोग किया है—न सिर्फ प्रेम का बल्कि कामवासना का भी। तंत्र ने उन्हें माध्यम बना लिया है।
तंत्र कहता है कि गहरे काम—संभोग में ध्यान आसानी से घटित होता है, जितनी आसानी से चित्त की किसी अन्य अवस्था में संभव नहीं है। इसका कारण है कि संभोग स्वाभाविक, जैविक समाधि जैसा है। लेकिन जिस काम—संभोग से हम परिचित हैं वह बहुत विकृत है। इसलिए जब ऐसी बात कही जाती है तो तुम्हें बेचैनी होती है, क्योंकि तुमने जिसे सेक्स जाना है वह सेक्स नहीं है, वह उसकी छाया भर है। और इसका कारण है।
पूरे समाज ने तुम्हारे मन को सेक्स के विरुद्ध संस्कारित किया है। इस दिशा में प्रत्येक आदमी दमित है। इससे स्वाभाविक सेक्स असंभव हो गया है। जब कभी तुम संभोग में होते हो तो एक गहरा अपराध— भाव तुम्हें घेरे रहता है। वह अपराध— भाव अवरोध बन जाता है। और एक बहुत बड़ा अवसर खो जाता है। उस अवसर को तुम अपने भीतर गहरे उतरने के लिए उपयोग में ला सकते हो।
तंत्र कहता है कि संभोग में ध्यानपूर्ण होओ। संभोग को पवित्र महसूस करो, अपने को अपराधी मत महसूस करो। इसे सौभाग्य मानो कि प्रकृति ने तुम्हें ऐसा स्रोत दिया है जिसके जरिए तुम आसानी से और शीघ्रता से समाधि में गहरे उतर सकते हो। और फिर संभोग में मुक्त मन से उतरो, उसमें किसी तरह का दमन या प्रतिरोध मत रहने दो। काम—क्रीड़ा में पूरी तरह डूब जाओ। अपने को भूल जाओ और सभी निषेधों को दूर फेंको। बिलकुल स्वाभाविक रहो।
और तब तुम्हारे शरीर में एक गहरा संगीत पैदा होगा। जब दो शरीर लयबद्ध होंगे तब तुम बिलकुल भूल जाओगे कि तुम हो और फिर भी तुम होगे। तब तुम मैं को भूल जाओगे, मैं बचेगा ही नहीं। तब अस्तित्व अस्तित्व के साथ परस्पर खेलेगा, तब दो नहीं रहेंगे, एक हो जाएंगे। तब कोई विचार नहीं रहेगा, भविष्य समाप्त हो जाएगा; और तुम वर्तमान में, इसी क्षण में होओगे।
बिना अपराध— भाव या निषेध के संभोग को ध्यान बनाओ और तब कामवासना रूपांतरित हो जाती है, वह स्वयं ही द्वार बन जाती है। जब काम द्वार बनता है तो काम की कामुकता समाप्त हो जाती है। फिर एक क्षण आता है जब काम भी समाप्त हो जाता है, सिर्फ उसकी सुवास रहती है। वह सुवास ही प्रेम है। और धीरे—धीरे वह सुवास भी जाती रहती हे, और तब जो बचता है वही समाधि है।
तंत्र कहता है कि किसी चीज को भी शत्रु मत समझो। प्रत्येक ऊर्जा मैत्रीपूर्ण है, सिर्फ उसके उपयोग की कला जाननी है। चुनाव मत करो। अपने प्रेम को ध्‍यान में रूपांतरित करो और वैसे ही ध्यान को प्रेम में। तब तुम जल्दी ही शब्द को भूल जाओगे। और उस यथार्थ को जानोगे जो शब्द नहीं है।
प्रेम शब्द प्रेम नहीं है, ध्यान शब्द ध्यान नहीं है, और ईश्वर शब्द ईश्वर नहीं है। वे मात्र शब्द हैं, लेकिन यदि तुम गहरे प्रवेश कर सको तो ईश्वर, ध्यान और प्रेम सब एक हो जाते हैं।

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