Thursday 3 September 2015

केंद्रित होना मार्ग है, मंजिल नहीं। केंद्रित होना साधन है, साध्य नहीं। समाधि को केंद्रित होना नहीं कहते हैं, केंद्रित होना समाधि की विधि है। हालांकि दोनों परस्पर विरोधी मालूम होते हैं। क्योंकि जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तब कोई केंद्र नहीं बचता है।
जैकब बोहमे ने कहा है कि जब कोई परमात्मा को प्राप्त होता है तो इस बात को दो ढंग से कहा जा सकता है। या तो कहा जाए कि केंद्र सब कहीं है या कहा जाए कि केंद्र कहीं नहीं है। दोनों का अर्थ एक ही है। केंद्रित होना विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन मार्ग मंजिल नहीं है, साधन साध्य नहीं है। और साधन विरोधी भी हो सकता है।
इसे समझना जरूरी है, क्योंकि ये एक सौ बारह विधियां केंद्रित होने की विधियां हैं। लेकिन एक बार जब तुम केंद्रित हो जाते हो तो तुम्हारा विस्फोट हो जाएगा। केंद्रित होने का अर्थ है कि तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए। एक बार तुम एक बिंदु पर इकट्ठे हो गए तो वह बिंदु अपने आप ही विस्फोट को प्राप्त हो जाता है। तब कोई केंद्र नहीं रहता है, या केंद्र ही केंद्र रहता है। इसलिए केंद्रित होना विस्फोट का उपाय है। यह उपाय क्यों है?
अगर तुम केंद्रित नहीं हो तो तुम्हारी ऊर्जा लक्ष्यहीन बनी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता है। ऊर्जा बिखरी—बिखरी रहती है, उसका विस्फोट नहीं हो सकता। विस्फोट के लिए बहुत बड़ी ऊर्जा चाहिए। विस्फोट का अर्थ है कि अब तुम छिन्न—भिन्न नहीं हो, छितराए नहीं हो, एक बिंदु पर इकट्ठे हो। तब तुम आणविक हो जाते हो। और तब तुम सच में आध्यात्मिक अणु हो जाते हो। और जब तुम अणु बनने योग्य केंद्र को उपलब्ध होते हो तभी तुम्हारा विस्फोट संभव है। तब आणविक विस्फोट घटता है।
उस विस्फोट की चर्चा नहीं की जाती है, क्योंकि यह चर्चा संभव नहीं है। इसलिए सिर्फ विधि की चर्चा की जाती है। फल की चर्चा नहीं होती है, उसकी चर्चा असंभव है। लेकिन अगर तुम विधि को प्रयोग में लाओ तो फल पीछे—पीछे आएगा। और उस फल का वर्णन नहीं हो सकता है।
तो स्मरण रहे, धर्म अनुभव की बात कभी नहीं करता है, सिर्फ विधि की बात करता है। वह बताता है कि यह कैसे होगा, लेकिन यह नहीं बताता कि क्या। क्या को तुम पर छोड़ दिया जाता है।’कैसे’ को पूरा करो तो ‘क्या’ अपने आप ही तुम्हारे पास चला आएगा। और उसको कहने का उपाय नहीं है। उसे कोई जान तो सकता है, लेकिन कह नहीं सकता। वह एक ऐसा अनंत—असीम अनुभव है कि वहां भाषा व्यर्थ हो जाती है। वह इतना विराट है कि कोई शब्द उसे अभिव्यक्ति नहीं दे सकता। इसलिए केवल विधि ही दी जाती है।
बुद्ध निरंतर चालीस वर्षों तक कहते रहे कि मुझसे सत्य, ईश्वर, मोक्ष और निर्वाण के संबंध में प्रश्न मत पूछो, इन चीजों के संबंध में प्रश्न ही मत पूछो। बस, इतना पूछो कि वहां कैसे पहुंचा जाए। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं लेकिन यह अनुभव नहीं बता सकता, शब्दों में भी नहीं।
अनुभव व्यक्तिगत है, विधि अवैयक्तिक है। विधि वैज्ञानिक है, अवैयक्तिक है, अनुभव सदा वैयक्तिक है, काव्यात्मक है। जब मैं ऐसा भेद करता हूं तो उससे मेरा क्या प्रयोजन है? विधि वैज्ञानिक है, इसका मतलब है कि अगर तुम प्रयोग करो तो केंद्रित होना फलेगा। केंद्र को उपलब्ध होना निश्चित है, यदि उपाय काम में लाया जाए। और अगर केंद्र नहीं फलित होता है तो समझना कि कहीं चूक हो रही है, तुम कहीं विधि में भूल कर रहे हो, उसका पालन नहीं कर रहे हो। विधि वैज्ञानिक है, केंद्र का फलित होना वैज्ञानिक है, लेकिन जब विस्फोट आता है तो वह काव्य बन जाता है।
काव्य से मेरा मतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह अनुभव भिन्न ढंग से होगा। इस अनुभव के लिए कोई समान आधार नहीं है। वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति उसे अभिव्यक्त भी भिन्न ढंग से करेगा।
बुद्ध एक ढंग से कहते हैं, महावीर दूसरे ढंग से कहते हैं, और कृष्ण तीसरे ढंग से। मोहम्मद, मूसा, लाओत्से, सब विधि में नहीं, अभिव्यक्ति में एक—दूसरे से भिन्न हो जाते हैं। सिर्फ एक बात में वे एकमत हैं कि वे जो कहते हैं, वह उसे प्रकट नहीं करता है, जो उन्होंने अनुभव किया है। सिर्फ इस बात में वे सहमत हैं। फिर भी वे प्रयत्न करते हैं कि उस बात की ओर कुछ इंगित करें, कुछ कहें। यह असंभव लगता है, लेकिन अगर तुम्हारा हृदय सहानुभूतिपूर्ण है तो कुछ संप्रेषित हो सकता है। लेकिन उसके लिए प्रगाढ़ सहानुभूति, प्रेम और निष्ठा की जरूरत है।
सच तो यह है कि जब कोई बात तुम तक संप्रेषित हो जाती है तो उसका श्रेय कहने वाले से अधिक तुमको है। अगर तुम उसे गहरे प्रेम से और श्रद्धा से ग्रहण कर सको तो कुछ बात तुम तक पहुंच जाती है। लेकिन अगर तुम उसके प्रति आलोचक का भाव रखो तो कुछ भी नहीं पहुंचता। पहली बात तो उसे कहना कठिन है, लेकिन यदि कहा भी जाए तो तुम्हारी आलोचनात्मक वृत्ति के कारण संवाद असंभव हो जाता है।
संवाद बड़ा नाजुक मामला है। यही कारण है कि इन एक सौ बारह विधियों में अनुभव को बिलकुल बाहर छोड़ दिया गया है, उसकी ओर मात्र इशारा किया गया है। शिव बार—बार कहते हैं, ‘यह करो और अनुभव’ और तुरंत चुप हो जाते हैं। वे कहते हैं, ‘यह करो और आनंद’, और फिर चुप हो जाते हैं। आनंद, अनुभव और विस्फोट—और उसके पार तो व्यक्तिगत अनुभव का जगत आता है, जो प्रकट नहीं किया जा सकता है। उसे न प्रकट करना ही अच्छा है, क्योंकि अगर उसको व्यक्त करने की कोशिश की जाए तो वह गलत समझा जाएगा। इसलिए शिव मौन रह जाते हैं। वे सिर्फ विधि की, उपाय की बात करते हैं।
लेकिन केंद्रित होना मंजिल नहीं है, वह महज मार्ग है। और केंद्रित होना विस्फोट में कैसे बदल जाता है? क्योंकि अगर एक बिंदु पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाए तो वह बिंदु विस्फोट को प्राप्त होगा। बिंदु बहुत छोटा है और ऊर्जा बहुत बड़ी है, इसलिए बिंदु उसे सम्हाल नहीं सकता। विस्फोट अनिवार्य है। जैसे कि इस बल्व में एक खास मात्रा की बिजली समा सकती है, और अगर ज्यादा बिजली हो जाए तो वह फूटेगा। वैसे ही जब तुम्हारे केंद्र पर अतिशय ऊर्जा इकट्ठी हो जाती है तो वह उसे सम्हाल नहीं पाता। फलत: विस्फोट होता है। यह वैज्ञानिक बात है, वैज्ञानिक नियम है।
और अगर केंद्र पर विस्फोट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि अभी तुम केंद्रित नहीं हुए हो। एक बार तुम केंद्रित हो गए कि तुरंत विस्फोट घटित होता है। उसमें समय का अंतराल नहीं है। इसलिए अगर विस्फोट घटित नहीं होता है तो समझना कि तुम अभी इकट्ठे नहीं हो, एकाग्र नहीं हुए हो। अभी तुम्हें एक केंद्र नहीं प्राप्त हुआ है, तुम अभी भी बंटे हो, तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है, बाहर जा रही है।
जब ऊर्जा बाहर जाती है तो तुम खाली हो रहे हो, रिक्त हो रहे हो, नष्ट हो रहे हो। और अंत में नपुंसक, निर्जीव हो जाओगे। सच तो यह है कि मृत्यु आती है तो तुम्हें मरा हुआ ही पाती है। तुम एक मृत कोष्ठ हो। तुम निरंतर अपनी ऊर्जा बाहर की तरफ फेंकते हो और तब कितनी भी ऊर्जा हो वह एक अवधि के भीतर चुक जाएगी और तुम रिक्त हो जाओगे। ऊर्जा का बाहर जाना मृत्यु है। तुम प्रत्येक क्षण मर रहे हो, नष्ट हो रहे हो।
कहते हैं कि सूरज भी, जो कि महान ऊर्जा का भंडार है और जो करोड़ों वर्ष का है, निरंतर रिक्त हो रहा है, और चार हजार वर्षों के भीतर वह समाप्त होने वाला है। सूर्य समाप्त होगा, क्योंकि उसके पास फिर विकीरित करने को ऊर्जा नहीं बचेगी। सूर्य प्रतिदिन मर रहा है, क्योंकि उसकी किरणें उसकी ऊर्जा को ब्रह्मांड की सरहदों की ओर—अगर उसकी कोई सरहदें हैं—बहा ले जा रही हैं, उसकी ऊर्जा बाहर जा रही है।
केवल मनुष्य अपनी ऊर्जा को दिशा देने और रूपांतरित करने की क्षमता रखता है। अन्यथा मृत्यु स्वाभाविक घटना है, प्रत्येक चीज मरती है। केवल मनुष्य अमृत को, चिन्मय को जान सकता है।

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