Saturday 5 September 2015

तो एक तो बात यह कि अभिव्यक्ति से हानि हो सकती है। यही कारण है कि शिव अनुभव के संबंध में चुप हैं। वे वहीं तक जाते हैं जहां तक अंगुली का इशारा किया जा सके।’तब’, ‘वह’, ‘अनुभव’, ‘आनंद’, ये सबके सब इशारे की अंगुलियां हैं।
दूसरी बात कि किसी ढंग से उसकी थोड़ी अभिव्यक्ति तो की ही जा सकती है। माना कि पूरी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती, आशिक ही हो सकती है, लेकिन अभिव्यक्ति हो सकती है। माना कि यथार्थत: उसे अभिव्यक्त न भी किया जा सके तो भी कुछ समांतर बातें तो बताई ही जा सकती हैं। लेकिन शिव उनका उपयोग भी नहीं करते हैं!
उसका कारण है। कारण यह है कि हमारा मन इतना लोभी है कि जब भी उस अनुभव के संबंध में कहा जाता है तो मन उसको पकड़कर बैठ जाता है। और तब मन विधि को भूल जाता है और सिर्फ अनुभव को याद रखता है। विधि तो प्रयत्न मांगती है, लंबा प्रयत्न, जो कभी—कभी कष्टपूर्ण और खतरनाक होता है। एक लंबे और सतत प्रयत्न की जरूरत है। इसलिए हम विधि को भूल जाते हैं और फल को याद रखते हैं। और फिर फल के सपने देखते हैं, उसके संबंध में कल्पना और वासना का जाल फैलाते हैं। और आदमी आसानी से अपने को धोखा भी दे सकता है, वह कल्पना कर सकता है कि फल प्राप्त हो गया।
कुछ दिन पहले एक व्यक्ति यहां आए थे। वे संन्यासी हैं, बहुत वृद्ध व्यक्ति हैं। तीस वर्ष हुए, उन्होंने संन्यास लिया था। अब उनकी उम्र करीब सत्तर वर्ष की है। उन्होंने कहा कि मैं कुछ पूछने आया हूं कुछ जानने आया हूं। मैंने पूछा कि आप क्या जानना चाहते हैं? अचानक वे बदल गए और उन्होंने कहा कि नहीं, मैं जानने नहीं, सिर्फ आपसे मिलने आया हूं क्योंकि जो भी जाना जा सकता है मैं जान चुका हूं।
तीस वर्षों से वे आनंद के लिए, परमात्म—अनुभव के लिए सपने देखते रहे, वासना पालते रहे, और अब इस उम्र में आकर वे दुर्बल हो गए हैं और मृत्यु करीब आ पहुंची है। और अब उन्होंने यह विभ्रम पैदा कर लिया है कि मैं अनुभव को प्राप्त हूं। मैंने उनसे कहा कि यदि अनुभव है तो चुप ही रहें, मेरे पास जरा देर मौन बैठें; कुछ बोलें मत।
तब वे वृद्ध संन्यासी बेचैन होने लगे। और उन्होंने कहा कि यह मानकर आप कुछ कहें कि मुझे अनुभव नहीं है। मैंने कहा कि मेरे साथ कुछ मानने की बात नहीं है, या तो आपने जाना है या नहीं जाना है। इसके बारे में आपको स्पष्ट होना होगा। अगर आपने जाना है तो चुप रहें, यहां जरा देर रुके और जाएं। और अगर नहीं जाना है तो वैसा साफ कहें।
और तब वे उलझन में पड़ गए। वे कुछ विधियों के बारे में पूछने आए थे। और तब उन्होंने कहा कि सचाई यह है कि मुझे अनुभव नहीं है। लेकिन मैंने ‘अहं ब्रह्मास्मि’ पर इतना विचार किया है, उसको तीस वर्षों तक दिन—रात इतनी बार दोहराया है कि मैं कभी—कभी भूल ही जाता हूं कि यह मेरा विचार ही है, अनुभव नहीं। मैं बिलकुल भूल जाता हूं कि मैंने जाना नहीं है, मैं जो कह रहा हूं वह उधार है।
यह याद रखना कठिन है कि क्या ज्ञान है और क्या अनुभव है। ज्ञान और अनुभव ऐसे घुलमिल जाते हैं कि यह भ्रम आसानी से निर्मित हो जाता है कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा अनुभव बन गया है। मनुष्य का मन इतना धोखेबाज है, इतना चालाक है कि यह विभ्रम संभव हो जाता है। यह भी एक कारण है कि क्यों शिव अनुभव के संबंध में चुप रहे। वे उसके संबंध में कुछ नहीं बोलते, वे सिर्फ विधियों की बात किए जाते हैं। फल के संबंध में वे बिलकुल चुप हैं मौन हैं। शिव से तुम्हें धोखा नहीं हो सकता।
और यह भी एक कारण है कि यह किताब, जो किताबों में बहुत—बहुत महत्व की किताब है, इतनी अजानी रह गई। यह विज्ञान भैरव तंत्र संसार की एक अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है। कोई बाइबिल, कोई वेद और कोई गीता उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन यह पुस्तक सर्वथा अज्ञात रह गई। कारण? कारण कि यह सिर्फ विधियों की बात करती है। और वह तुम्हारे लोभ को फल की आकांक्षा का मौका नहीं देती है।
मन फल चाहता है। मन विधि में उत्सुक नहीं होता, वह अंतिम फल में उत्सुक होता है। और अगर तुम विधि से बचकर फल तक पहुंच सको तो मन बहुत प्रसन्न होता है।
कोई मुझसे पूछता था. इतनी विधियां क्यों? कबीर तो कहते हैं, सहज समाधि भली, फिर विधियों की क्या जरूरत? मैंने उनसे कहा कि अगर तुम सहज समाधि को उपलब्ध हो गए हो तो वाकई विधियों का कोई उपयोग नहीं है। जरूरत भी नहीं है। लेकिन तब तुम यहां किस लिए आए हो? उसने कहा कि मैं अभी उपलब्ध नहीं हुआ हूं लेकिन समझता हूं कि सहज बेहतर है। फिर मैंने पूछा कि तुम क्यों सहज को बेहतर समझते हो? क्योंकि उसमें कोई विधि नहीं बताई जाती है, इसलिए मन को वह भाता है कि चलो कुछ करना नहीं होगा और सब कुछ हो जाएगा।
यही कारण है कि पश्चिम में झेन एक क्रेज बन रहा है। झेन भी कहता है कि अनायास ही सब कुछ होता है, उपलब्धि के लिए कुछ प्रयत्न नहीं करना है। झेन सही है, प्रयत्न की जरूरत नहीं है। लेकिन याद रहे, इस अप्रयत्न की अवस्था तक पहुंचने के लिए एक लंबे प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। जहां प्रयत्न की जरूरत न रहे, जहां तुम अकर्म की स्थिति में रह सको, उस बिंदु को पाने के लिए बड़े लंबे प्रयत्न की जरूरत हे।
लेकिन यह सतही धारणा कि झेन प्रयत्न नहीं मांगता है, पश्चिम में बहुत आकर्षक हो गई है। अगर प्रयत्न जरूरी नहीं तो मन कहता है कि यह ठीक चीज है, क्योंकि बिना किए सब कुछ हो जाता है। लेकिन कोई यह नहीं कर सकता। यह इतना सरल नहीं है।
सुजुकी ने झेन से पश्चिम को परिचित कराया, और उसने ऐसा कर सेवा और कुसेवा दोनों कीं। और कालांतर में कुसेवा ही अधिक होगी। सुजुकी बहुत प्रामाणिक व्यक्ति था, इस सदी के सर्वाधिक प्रामाणिक व्यक्तियों में एक था। झेन के संदेश को पश्चिम में पहुंचाने के लिए उसने जिंदगीभर संघर्ष किए। और उसने अकेले अपने प्रयत्न से झेन को पश्चिम पहुंचा दिया। और अब तो लोग उसके लिए पागल हैं। सारे पश्चिम में झेन के प्रेमी हैं, उन्हें झेन से ज्यादा और कुछ नहीं भाता।
लेकिन पूरी बात ही चूक गई। यह आकर्षण सिर्फ इसलिए है क्योंकि झेन कहता है कि न किसी विधि की जरूरत है, न किसी प्रयत्न की। तुम्हें कुछ करना ही नहीं है, वह सहज ही फलित होता है। यह तो ठीक है, लेकिन चूकि तुम सहज नहीं हो, इसलिए यह तुमको नहीं घटित होगा। सहज होने के लिए—यह बहुत बेतुका और विरोधाभासी मालूम होता है—सहज होने के लिए, तुम्हें शुद्ध और निर्दोष बनने के लिए बहुत उपायों की जरूरत होगी। उसके बिना तुम किसी चीज के प्रति भी सहज नहीं हो सकोगे।
इस विज्ञान भैरव तंत्र का अंग्रेजी अनुवाद पाल रेप्स ने किया था। उसने एक सुंदर किताब लिखी है जिसका नाम है, ‘झेन फ्लेश, झेन बोन्स’ और उसके परिशिष्ट के रूप में उसने इस ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ को समाविष्ट किया है। उसने परिशिष्ट में इस एक सौ बारह विधियों वाली पुस्तक को सम्मिलित कर लिया और कहा कि यह झेन के भी पूर्व समय की पुस्तक है।
अनेक झेन अनुयायियों को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा कि झेन तो कहता है कि किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है और इस पुस्तक में तो प्रयत्न ही प्रयत्न हैं। यह पुस्तक केवल उपायों की फिक्र करती है और झेन कहता है कि उपाय जरूरी नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यह तो झेन विरोधी बात हो गई, इसे पूर्व—झेन कैसे कहा जाए?
सतही तौर पर उनका कहना ठीक है, लेकिन गहरे में वे गलत हैं। क्यों? क्योंकि सहज जीवन को उपलब्ध होने के लिए लंबी यात्रा की जरूरत होगी।
गुरजिएफ के एक शिष्य, आसपेंस्की के पास जब कोई मार्ग पूछने आता तो वह कहता था कि हम मार्ग के संबंध में कुछ नहीं जानते हैं, हम तो कुछ पगडंडियों की बात सिखाते हैं जो मार्ग तक पहुंचाती हैं। हम मार्ग को नहीं जानते। ऐसा मत सोचो कि तुम मार्ग पर ही हो, मार्ग तो अभी तुमसे बहुत दूर है। जहां तुम हो उस बिंदु से मार्ग अभी बहुत दूर है। इसलिए पहले तो तुम्हें मार्ग पर पहुंचना है।
आसपेंस्की बहुत विनम्र व्यक्ति था। और धार्मिक व्यक्ति का विनम्र होना बहुत कठिन बात है—करीब—करीब असंभव। क्योंकि जैसे ही तुम्हें लगता है कि तुम कुछ जानते हो तुम्हारा दिमाग फिर जाता है। पर वह हमेशा कहता, हम मार्ग के बाबत कुछ नहीं जानते। वह अभी बहुत दूर की बात है और उसकी चर्चा की भी अभी जरूरत नहीं। अभी तुम जहां हो वहां से तुम्हें पहले एक राह, एक सेतु, एक पगंडडी बनानी होगी जो तुम्हें मार्ग तक पहुंचा दे।
अभी सहज योग तुमसे बहुत दूर है। तुम जैसे हो, बिलकुल कृत्रिम, बनावटी और संस्कारित हो, सुसंस्कृत हो। जरा भी सहज तुममें नहीं है। मैं दोहराता हूं जरा भी सहज नहीं है तुममें। जब तुम्हारे जीवन में कुछ भी सहज नहीं है तो धर्म कैसे सहज हो सकता है? जब कुछ भी सहज नहीं है तो प्रेम भी सहज नहीं हो सकता। तुम्हारा प्रेम भी सौदा है, तुम्हारा प्रेम भी गणित है, तुम्हारा प्रेम भी प्रयास है। और तब कुछ भी सहज नहीं हो सकता। और तब अचानक ब्रह्मांड में समाहित होना असंभव है। जिस स्थिति में तुम अभी हो उसमें यह असंभव है।
पहले तो तुम्हें अपनी सारी कृत्रिमता को, झूठी धारणाओं को, सारे पूर्वाग्रहों को, अभ्यास—जनित औपचारिकताओं को हटाकर फेंक देना होगा। तभी सहजता घटित हो सकती है। ये विधियां तुम्हें उस जगह ला खड़ा करेंगी जहां फिर कुछ करने को शेष नहीं रह जाता है। तब तुम्हारा होना काफी है। लेकिन मन धोखा दे सकता है, आसानी से धोखा दे सकता है, क्योंकि उससे सांत्वना मिलती है।
शिव कभी फल की बात नहीं करते हैं, केवल विधियों की बात करते हैं। उनके इस जोर को स्मरण रखो। विधि पर उनका जोर है, यह याद रखो। कुछ करो कि वह क्षण संभव हो जब कुछ करना जरूरी नहीं है, जब तुम्हारा केंद्रीय अस्तित्व ब्रह्मांड में सहज विलीन हो जा सकता है। लेकिन उस क्षण को अर्जित करना है।
झेन का आकर्षण गलत कारणों से है। और वही बात कृष्‍णमूर्ति के लिए सच है। वे कहते हैं कि योग की जरूरत नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि ध्यान की कोई विधि नहीं है। और वे सही हैं। लेकिन शिव भी सही हैं, जब वे कहते हैं कि ध्यान की एक सौ बारह विधियां हैं। और जहां तक तुम्हारा संबंध है, शिव ज्यादा सही हैं। और अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति और शिव में चुनाव करना हो तो शिव को चुनना। कृष्णमूर्ति तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। तुम्हारी सहायता के लिए यह भी कहा जा सकता है कि कृष्णमूर्ति बिलकुल गलत हैं।
याद रहे, मैं कह रहा हूं तुम्हारी सहायता के लिए। मैं यह भी कहूंगा कि वे हानिकर हैं। यह भी मैं तुम्हारे हित के लिए कह रहा हूं। क्योंकि यदि तुम उनके तर्क में फंस गए तो तुम कभी समाधि को उपलब्ध नहीं होओगे। तब सिर्फ एक निष्पत्ति तुम्हारे हाथ में होगी कि किसी विधि की जरूरत नहीं है। और वह निष्पत्ति खतरनाक है। तुम्हारे लिए विधि जरूरी है।
निश्चित ही एक क्षण आता है जब विधि की जरूरत नहीं रहती है। लेकिन तुम्हारे लिए वह क्षण अभी नहीं आया है। और उस क्षण के आने के पहले उसके बहुत आगे की बात जान लेना खतरनाक है। इसीलिए शिव मौन हैं। वे भविष्य की बात नहीं करेंगे। वे नहीं कहेंगे कि आगे क्या होगा। वे तुम्हें देखते हैं; तुम क्या हो और तुम्हारे साथ क्या करना है, उन्हें बस इससे मतलब है। और कृष्णमूर्ति वे बातें भी बता रहे हैं जिन्हें तुम अभी नहीं समझ सकते।
कृष्‍णमूर्ति के तर्क को समझा जा सकता है। उनका तर्क ठीक है, उनका तर्क सुंदर है। यह अच्छा होगा अगर तुम्हें कृष्णमूर्ति का तर्क याद रहे। वे कहते हैं कि तुम जब किसी विधि का प्रयोग करते हो तो यह तुम्हारा मन ही है जो प्रयोग करता है। और मन के द्वारा किया गया
कोई प्रयोग कैसे मन को विसर्जित कर सकता है? बल्कि वह तुम्हारे मन को और भी मजबूत कर जाएगा। वह भी तुम्हारा संस्कार बन जाएगा, वह भी झूठा ही होगा। ध्यान सहज है, तुम ध्यान के लिए कुछ नहीं कर सकते। क्या तुम प्रेम के लिए कुछ कर सकते हो? क्या प्रेम के लिए किसी विधि का प्रयोग कर सकते हो? और अगर प्रयोग करो तो तुम्हारा प्रेम झूठा होगा। धान को प्रेम
प्रेम घटित होता, उसका अभ्यास नहीं किया जा सकता। और अगर प्रेम का भी अभ्यास नहीं हो सकता है तो ध्यान का अभ्यास कैसे हो सकता है?
तर्क एकदम सही है, सर्वथा सही है। लेकिन यह तुम्हारे लिए नहीं है। क्योंकि इस तर्क को निरंतर सुनने से तुम इससे कंडीशंड हो जाओगे, तुम इससे बंध जाओगे। जिन लोगों ने कृष्‍णमूर्ति को निरंतर चालीस वर्षों से सुना है, वे मेरे देखे सर्वाधिक कंडीशंड लोग हैं। वे कहते हैं कि विधि जरूरी नहीं है, लेकिन वे अब तक कहीं नहीं पहुंचे हैं।

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