Tuesday 22 September 2015

एक प्राचीन रूसी कथा है। एक बड़े टोकरे में बहुत से मुर्गे आपस में लड़ रहे थे। नीचे वाला खुली हवा में सांस लेने के लिए अपने ऊपर वाले को गिराकर ऊपर आने के लिए फड़फड़ाता है। सब भूख—प्यास से व्याकुल हैं। इतने में कसाई छुरी लेकर आ जाता है, एक—एक मुर्गे की गर्दन पकड़कर टोकरे से बाहर खींचकर वापस काटकर फेंकता जाता है। कटे हुए मुर्गों के शरीर से गर्म लहू की धार फूटती है। भीतर के अन्य जिंदा मुर्गे अपने— अपने पेट की आग बुझाने के लिए उस पर टूट पड़ते हैं। इनकी जिंदा चोंचों की छीना—झपटी में मरा कटा मुर्गे का सिर गेंद की तरह उछलता—लुढ़कता है। कसाई लगातार टोकरे के मुर्गे काटता जाता है। टोकरे के भीतर हिस्सा बांटने वालों की संख्या भी घटती जाती है। इस खुशी में बाकी बचे मुर्गों के बीच से एकाध की बांग भी सुनायी पड़ती है। अंत में टोकरा सारे कटे मुर्गों से भर जाता है। चारों ओर खामोशी है, कोई झगड़ा या शोर नहीं है।
इस रूसी कथा का नाम है—जीवन।
ऐसा जीवन है। सब यहां मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं। प्रतिपल किसी की गर्दन कट जाती है। लेकिन जिनकी गर्दन अभी तक नहीं कटी है, वे संघर्ष में रत हैं, वे प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। जितने दिन, जितने क्षण उनके हाथ में हैं, इनका उन्हें उपयोग कर लेना है। इस उपयोग का एक ही अर्थ है कि किसी तरह अपने जीवन को सुरक्षित कर लेना है, जो कि सुरक्षित हो ही नहीं सकता।
मौत तो निश्चित है। मृत्यु तो आकर ही रहेगी। मृत्यु तो एक अर्थ में आ ही गयी है। क्यू में खड़े हैं हम। और प्रतिपल क्यू छोटा होता जाता है, हम करीब आते जाते हैं। मौत ने अपनी तलवार उठाकर ही रखी है, वह हमारी गर्दन पर ही लटक रही है, किसी भी क्षण गिर सकती है। लेकिन जब तक नहीं गिरी है, तब तक हम जीवन की आपाधापी में बड़े व्यस्त हैं—और बटोर लूं, और इकट्ठा कर लूं? और थोड़े बड़े पद पर पहुंच जाऊं, और थोड़ी प्रतिष्ठा हो जाए, और थोड़ा मान—मर्यादा मिल जाए। और अंत में सब मौत छीन लेगी।
जिन्हें मृत्यु का दर्शन हो गया, जिन्होंने ऐसा देख लिया कि मृत्यु सब छीन लेगी, उनके जीवन में संन्यास का पदार्पण होता है। उनके जीवन में एक क्रांति घटती है। इस क्रांति को बुद्ध ने एक विशिष्ट नाम दिया है, उसे वे कहते हैं—परावृत्ति।
इस शब्द को समझ लेना चाहिए, यह शब्द बड़ा बहुमूल्य है।
हिंदुओं के पास एक शब्द है, निवृत्ति। जैसा हिंदुओं का निवृत्ति शब्द महत्वपूर्ण है, वैसा बौद्धों का परावृत्ति शब्द महत्वपूर्ण है। और निवृत्ति से परावृत्ति ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। निवृत्ति का अर्थ होता है, संसार से विराग, संसार की वृत्तियों में रस का त्याग। मगर त्याग में दमन भी हो सकता है। निवृत्ति अक्सर दमन पर खड़ी होती है। परावृत्ति का अर्थ संसार का त्याग नहीं है, अपनी तरफ लौटना। जोर है— भीतर की तरफ लौटना।
साधारणत: हमारी जीवन—ऊर्जा बाहर की तरफ जा रही है, यह वृत्ति है। इसे बाहर की तरफ न जाने देना निवृत्ति है। इसे भीतर की तरफ मोड़ लेना परावृत्ति है। और यह भीतर की तरफ मुड़ जाए तो बाहर अपने आप ही नहीं जाएगी। जब अपने आप बाहर न जाए, तो परावृत्ति। जब रोकना पड़े बाहर जाने से, तो निवृत्ति।
तो निवृत्ति में तो दमन होगा। निवृत्ति में तो जबरदस्ती होगी। मन तो जाना चाहता था, तुमने बांध—बूंधकर रोक लिया। मन तो भागता था, तुमने किसी तरह कील ठोंक दी। मन तो दौड़ा—दौड़ा था, तुम किसी तरह सम्हालकर उसकी छाती पर बैठ गए। यह बैठना बहुत सुख नहीं देगा। और जिसे तुमने जबरदस्ती बांध लिया है, वह छूटेगा। और जिस पर तुम जबरदस्ती सवार हो गए हो, आज नहीं कल कमजोरी के किसी क्षण में तुम्हें गिरा देगा। फिर घोड़े भागने लगेंगे, फिर इंद्रियां सजग हो जाएंगी, फिर वृत्तियां वापस लौट आएंगी। जब तक परावृत्ति न हो जाए, तब तक निवृत्ति हो नहीं सकती। जो मन अभी बाहर की तरफ भागने में रसातुर है, ऐसा ही रसातुर भीतर की तरफ जाने को हो जाए तो परावृत्ति।
और परावृत्ति ही मृत्यु के पार ले जाती है, क्योंकि बाहर है मृत्यु और भीतर है जीवन। तुम्हारे अंतस्तल के केंद्र पर परम जीवन है, अमृत है। वहा कभी मृत्यु घटी नहीं है, कभी घटेगी भी नहीं। घट सकती नहीं। वहा तुम परमात्मा हो। वहा भगवत्ता तुम्हारी है। वहा तुम शाश्वत हो, सनातन हो और सदा रहोगे। वहा तुम समय के पार हो।
बाहर तो समय है। जितने अपने से दूर गए, उतने ही परिवर्तन की दुनिया में गए। जितने अपने से दूर गए, उतना ही भटके क्षणभंगुर में, लहरों में खोए। जितना अपने पास आए, लहरों से मुक्त हुए। और जब ठीक अपने केंद्र पर आ गए, तो सब लहरें शांत हो जाती हैं। उस गहराई में कोई लहर नहीं है, कोई तरंग नहीं है। उस आंतरिक गहराई में पहुंच जाने की प्रक्रिया का नाम परावृत्ति है।
निवृत्ति शब्द से ज्यादा मूल्यवान है परावृत्ति शब्द, क्योंकि निवृत्ति में दमन है, परावृत्ति में मुक्ति है। निवृत्ति छाया की तरह आनी चाहिए—परावृत्ति की छाया। अक्सर लोग उलटा करते हैं, लोग सोचते हैं, निवृत्ति की छाया की तरह परावृत्ति आएगी। लोग सोचते हैं, हम बाहर से अपने मन को रोक लेंगे तो मन भीतर जाने लगेगा।
नहीं, तुम जितना बाहर से अपने मन को रोकोगे, मन और भी, और भी बाहर जाएगा, और भी हठपूर्वक बाहर जाएगा। तुम करके देखो। जिस चीज को तुम चेष्टापूर्वक छोडोगे, मन वहीं —वहीं लौट—लौटकर जाएगा। तुम जिस बात को जबरदस्ती निषेध कर दोगे, उससे मुक्ति न हो सकेगी, वह बात तुम्हारा पीछा करेगी। सोए, जागे, दिन में, रात में द्वार खटखटाएगी।
निवृत्ति से कोई परावृत्ति की तरफ नहीं जाता। ही, परावृत्ति आ जाए तो निवृत्ति घटती है।
ऐसे ही हमारे पास और भी एक शब्दावली है—राग, विराग, वीतराग। राग का अर्थ होता है, बाहर जाना, दूसरे से जुड़ जाना। विराग का अर्थ होता है, दूसरे से टूट जाना। और वीतराग का अर्थ होता है, अपने से जुड़ जाना। राग अर्थात वृत्ति। विराग अर्थात निवृत्ति। वीतराग अर्थात परावृत्ति।
बुद्ध की सारी देशना परावृत्ति के लिए या वीतरागता के लिए है—तुम कैसे अपने से जुड़ जाओ। इसलिए बुद्ध का सारा जोर ध्यान पर है। ध्यान है परावृत्ति की प्रक्रिया। ध्यान का अर्थ है, तुम्हारी आंखों में तुम्हीं भर रह जाओ, और कुछ न रहे। तुम ही शेष रहो, और कुछ शेष न रहे। उस शून्यदशा में जहां तुम ही विराजमान हो और कोई भी नहीं—न कोई विचार उठता, न कोई भाव उठता, न कोई विषय, न कोई वस्तु की स्मृति आती, वहा आत्म—स्मृति आती है। वहां सम्यक—स्मृति पैदा होती है। सुरति पैदा होती है। वहा तुम अपने रस में डोलने लगते हो।
उस रस को ही खोजो तो धार्मिक हो। उस रस की खोज में निकल पड़ो तो संन्यासी हो। उससे विपरीत कुछ खोजते रहे तो समय गंवा रहे हो।

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