Wednesday 16 September 2015

क्या प्रेम के बिना समर्पण हो सकता है?
ऐसा लगता है, बहुत बार तुम सोचते भी नहीं कि क्या पूछ रहे हो! प्रेम और समर्पण का एक ही अर्थ होता है। प्रेम के बिना कैसा समर्पण। और अगर समर्पण न हो तो कैसा प्रेम! प्रेम के बिना तो समर्पण हो ही नहीं सकता। प्रेम के बिना जो समर्पण होता है, वह समर्पण नहीं है, जबरदस्ती है।
जैसे किसी आदमी ने तुम्हारी छाती पर छुरी रख दी और कहा, करो समर्पण! और तुम्हें करना पड़ा। उसने कहा, चलो करो समर्पण—घड़ी, तुम्हारा बटुआ, समर्पण करो। अब छुरी के घबड़ाहट में तुमने समर्पण कर दिया, यह समर्पण तो नहीं है। यह तो मजबूरी है। इससे तो तुम बदला लोगे, मौका मिल जाएगा तो तुम इसे छोड़ोगे नहीं। यह समर्पण नहीं है, यह तो हिंसा हुई।
समर्पण का अर्थ है, स्वेच्छा से, अपनी मर्जी से। तुम पर कोई दबाव न था, कोई जोर न था, कोई कह नहीं रहा था, कोई तुम्हे किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहा था। तुम्हारा प्रेम था, प्रेम में तुम झुके, तो समर्पण। प्रेम में ही समर्पण हो सकता है।
और जहां प्रेम है, अगर समर्पण न हो तो समझ लेना प्रेम नहीं है। आमतौर से लोग यह कोशिश करते हैं कि प्रेम के नाम पर समर्पण करवाते हैं। तुम्हें मुझसे प्रेम है, करो समर्पण! अगर प्रेम है तो समर्पण होगा ही, करवाने की जरूरत नहीं पडेगी। बाप कहता है कि मैं तुम्हारा बाप हूं तुम बेटे हो, मुझे प्रेम करते हो? तो करो समर्पण। पति कहता है पत्नी से कि सुनो, तुम मुझे प्रेम करती हो? तो करो समर्पण। प्रेम है तो समर्पण हो ही गया, करवाने की कोई जरूरत नहीं है। जो समर्पण करवाना पड़े, वह समर्पण ही नही। जो हो जाए, जो सहज हो जाए। अगर सहज न हो तो तुम एक झूठी मुद्रा में उलझ गए। एक नकली मुद्रा में उलझ गए।
हम खोज रहे हैं उसे जो आसपास है
यह जिंदगी अपने लिए घर की तलाश है
जो भी मिला वो एक टुकडा उम्र ले गया
जुड़ता नहीं किसी से भी यह मन उदास है
जितने भी उजले ख्वाब थे वे रात बन गए
फिर भी न जाने कौन सी सुबह की आस है
पूजा के वक्त देवता पत्थर बना रहा
वैसे तो जर्रे—जर्रे में उसका निवास है
कहते तो यही है कि जर्रें—जर्रे में उसका निवास है, लेकिन पूजा के समय जर्रे—जर्रे की तो छोड़ो, सामने रखा पत्थर वह जो देवता है, वह पत्थर ही बना रहता है।
पूजा के वक्त देवता पत्थर बना रहा
वैसे तो जर्रे—जर्रे में उसका निवास है
बना ही रहेगा, क्योंकि यह कोई सिद्धांत की बात नहीं है कि जर्रे—जर्रे में उसका निवास है, यह तो प्रेम की आंखों का अनुभव है। यह तो प्रेम से देखोगे तो जगह—जगह दिखायी पड़ जाएगा। फिर पत्थर की मूर्ति में भी दिखायी पड़ जाएगा। मूर्ति की भी जरूरत नहीं है, राह के किनारे पड़ी चट्टान में भी दिखायी पड़ जाएगा। अगर प्रेम है तो उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। प्रेम है तो बस परमात्मा है। प्रेम नहीं है, तो परमात्मा नहीं है। परमात्मा के लिए कोई और प्रमाण नहीं होता, बस प्रेम की आख। और जब तक यह प्रेम की आँख न मिल जाए, तब तक तुम भटकते रहोगे उसको खोजते हुए जो बिलकुल पास—पास है। जो सब तरफ से तुम्हें घेरा हुआ है। हम खोज रहे हैं उसे जो आसपास है
यह जिंदगी अपने लिए घर की तलाश है
दूर चांद—तारों पर थोड़े ही भगवान बसा है, तुम्हारा पड़ोसी है। जब जीसस ने कहा, अपने पड़ोसी को प्रेम करो, तो वह यही कह रहे थे कि जो पास है, उसे प्रेम करो। तो उस पास में ही तुम्हें परमात्मा दिखायी पड़ जाएगा। और जहा परमात्मा मिल गया, वहीं अपना घर मिला गया। बिना प्रेम के तो कुछ और ही हो रहा है। जो भी मिला वो एक टुकड़ा उम्र ले गया
जुड़ता नहीं किसी से भी यह मन उदास है
बिना प्रेम के तो लाख जोड़ो, जुड़ेगा कैसे! प्रेम जोड़ता है, और तो कुछ जोड़ता नहीं, और सब चीजें तोड़ती हैं। तो कुछ जिंदगी तुम्हारी पत्नी ले गयी, कुछ तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे पति ले गए, कुछ बच्चे ले जाएंगे, कुछ मां—बाप ले गए। जो भी मिला वो एक टुकड़ा उम्र ले गया आखिर में तुम पाओगे लुटे खड़े हो, मौत आ गयी, जो कुछ बाकी बचा—खुचा है वह मौत ले जाएगी।
जुड़ता नहीं किसी से भी यह मन उदास है
यह जुड़ेगा भी नहीं। क्योंकि जोड़ की जो कीमिया है, वही तुम्हारे पास नहीं, प्रेम तुम्हारे पास नहीं।
जितने भी उजले ख्वाब थे वे रात बन गए
फिर भी न जाने कौन सी सुबह की आस है
कितने संबंध टूट चुके, कितने प्रेम, तथाकथित प्रेम गिर चुके, फिर भी तुम न मालूम किस सुबह की आस लगाए बैठे हो। हर सपना व्यर्थ सिद्ध हो गया, फिर भी न मालूम सपनों में टटोल रहे, टटोल रहे, टटोल रहे। जागो!
सत्य के लिए एक ही पात्रता चाहिए, वह है प्रेम की पात्रता। अगर तुम्हारे हृदय में प्रेम आ जाए—और आ जाए कहना ठीक नहीं, भरा है वहा—सिर्फ तुम बहाने की कला सीख जाओ। तुम उसे रोके बैठे हो, तुम बड़े कंजूस हो, कृपण हो, जब भी प्रेम देने का मौका आता है तुम एकदम रोक लेते हो, उसे बहने नहीं देते, बड़े सोच—सोचकर, फूंक—फूंककर कदम रखते हो प्रेम के मामले में।
बांटो। दोनों हाथ उलीचिए। जो मिले उसे बांट दो। और यह तो फिकर ही मत करो कि वह लौटाएगा कि नहीं लौटाएगा, प्रेम लौटता ही है। हजार गुना होकर लौटता है। इसकी भी फिकर मत करो कि इस आदमी को दिया तो यही लौटाए। कहीं से लौट आएगा, हजार गुना होकर लौट आएगा, तुम फिकर मत करो। प्रेम लौटता ही है।
ही, अगर न लौटे, तो सिर्फ एक प्रमाण होगा कि तुमने दिया ही न होगा। अगर न लौटे, तो फिर से सोचना—तुमने दिया था? या सिर्फ धोखा किया था? देने का दिखावा किया था या दिया था? अगर दिया था तो लौटता ही है। यह इस जगत का नियम है। जो तुम देते हो, वही लौट आता है—घृणा तो घृणा, प्रेम तो प्रेम, अपमान तो अपमान, सम्मान तो सम्मान। तुम्हें वही मिल जाता है हजार गुना होकर, जो तुम देते हो।
यह जगत प्रतिध्वनि करता है, हजार—हजार रूपों में। अगर तुम गीत गुनगुनाते हो तो गीत लौट आता है। अगर तुम गाली बकते हो तो गाली लौट आती है। जो लौटे, समझ लेना कि वही तुमने दिया था। जो बोओगे, वही काटोगे भी।

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