Monday 14 September 2015

जीवन दुख है, यह कोई दार्शनिक धारणा नहीं। ऐसा बुद्धपुरुष सोचते नहीं हैं कि जीवन दुख है, ऐसी उनकी मान्यता नहीं है कि जीवन दुख है, जीवन को दुख सिद्ध करने में उनका कोई आग्रह नहीं है, जीवन ऐसा है। यह जीवन का तथ्य है। इसे तुम लाख झुठलाओ, झुठला न पाओगे। इसे तुम लाख दबाओं, दबा न पाओगे। यह उभर—उभरकर प्रगट होगा। और जब उभरेगा, तब बहुत दुखी कर जाएगा। क्योंकि तुम तो मानकर जीते हो कि जीवन सुख है, फिर उभरता है दुख। सुख की धारणा जब—जब टूटेगी, तभी—तभी तुम दुखी हो जाओगे।
तुम्हारे जीवन की विपन्नता जीवन के दुख—स्वभाव के कारण नहीं है, तुम्हारे जीवन की विपन्नता जीवन को सुख मानना और फिर सुख न पाने के कारण है। तुमने कांटे को फूल समझा, फूल समझकर छाती से लगाया, तुमने बड़ी आशाएं कीं, बड़े सपने संजोए, और फिर कांटा चुभा, तुम्हारे सपने टूटे, तुम्हारी आशाएं सी, तो विपन्नता पैदा होती है।
अगर तुमने कांटे को काटा समझा तो पहली तो बात, तुम छाती से न लगाओगे। तुम चुभने के खतरे से बाहर हो गए। और तुमने कांटे को काटा समझा और अगर वह चुभ भी गया, तो भी तुम विपन्न न हो जाओगे। तुम समझोगे कि कांटा तो कांटा है, चुभेगा ही, सावधानी से चलना चाहिए, होशियारी से चलना चाहिए, बोध से चलना चाहिए। रोने का क्या है, अगर कांटा चुभ जाए तो इसमें छाती पीटने को क्या है! लेकिन तुम मानते हो फूल, निकलता है काटा, फिर तुम बहुत छाती पीटते हो, फिर तुम जार—जार रोते हो। तुम्हारी विपन्नता तुम्हारी मान्यता की असफलता के कारण पैदा होती है।
अगर बुद्धपुरुषों की बात तुम्हें खयाल में आ जाए, तो तुम्हारी विपन्नता तो समाप्त हो गयी। जो जैसा है, उसको वैसा ही जान लिया। अपेक्षा न रही, तो अपेक्षा के टूटने का उपाय भी न रहा। और जब अपेक्षा टूटती नहीं, फिर कैसी विपन्नता! दूर मरुस्थल में तुम भटके हो, प्यासे तडूफ रहे हो और दिखायी पड़ा मरूद्यान, अगर है मरूद्यान, तब तो ठीक, पहुंचकर तुम सुखी हो जाओगे। मरूद्यान अगर नहीं है, तो यह जो दौड़— धाप करोगे, इसमें और प्यासे हो जाओगे। और मीलों चलने के बाद जब पाओगे कि मरूद्यान नहीं है, तो मूर्च्छित होकर न गिर पड़ोगे तो क्या करोगे! फिर जो श्रम इस झूठे मरूद्यान को खोजने में लगाया, वही श्रम सच्चे मरूद्यान को खोजने में लग सकता था।
तो पहली बात, जीवन दुख है, यह कोई धारणा नहीं है, ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसा जीवन है। बुद्ध कहते हैं, जैसा जीवन है उसे वैसा जान लो। जानते ही दो बातें घटेंगी। एक, तब जीवन से तुम्हारी कोई अपेक्षा न रह जाएगी। कभी कितना ही दुख होगा फिर, तो भी तुम जानोगे—होना ही था। एक स्वीकार होगा। एक सहज स्वीकार होगा। उस सहज स्वीकार में विपन्नता खड़ी नहीं होती, हो नहीं सकती। अगर पत्थर पत्थर है, तो क्या विपन्नता है! मिट्टी मिट्टी है, तो क्या विपन्नता है! लेकिन मिट्टी को तुम तिजोड़ी में सम्हालकर रखे रहे और एक दिन खोला और पाया मिट्टी है, और अब तक सोचते थे सोना है, तो विपन्नता है। विपन्नता का अर्थ है, जैसा सोचा था वैसा न पाया। कुछ का कुछ हो गया। जहां प्रेम सोचा था, वहां घृणा पायी, जहा मित्रता सोची थी, वहां शत्रुता मिली, जहा धन सोचा था, वहा धोखा था।
तो पहली तो बात, तुम धोखे से मुक्त हो गए, अगर तुमने जीवन को दुख की तरह देख लिया, जैसा कि जीवन है। जो धोखे से मुक्त हो गया, उसके जीवन में बड़ी शांति आ जाती है।
दूसरी बात, जो श्रम जीवन के धोखे में तुम लगाते, वह श्रम तुम्हारे पास बच रहा। अगर जीवन दुख है, तो बाहर जाने की तो कोई. अर्थवत्ता नहीं है। अब जीवन ऊर्जा का क्या करोगे? जो तुम्हारे पास जीवन ऊर्जा है, अब भीतर जा सकती है, बाहर तो दुख है। अगर यह सिद्ध हो जाए तुम्हारे सामने कि बाहर दुख है, तो अब जाओगे कहां? अब दिल्लियां जाने से तो कुछ सार न रहा। अब धन के पीछे पागल होने में तो कोई प्रयोजन न रहा। अब किसी मृग—मरीचिका के पीछे दौड़ने का तो कोई कारण न रहा। यह जीवन ऊर्जा तुम्हारी मुक्त हो गयी सारी आकांक्षाओं से। सारी व्यर्थ की दौड़ी से मुक्त हो गयी जीवन ऊर्जा भीतर जाने लगेगी।
क्योंकि ऊर्जा का एक नियम है कि ऊर्जा तो जाएगी ही। ऊर्जा का नियम है कि ऊर्जा गत्यात्मक है। अगर बाहर न जाएगी तो भीतर जाएगी। ऊर्जा चलेगी। ऊर्जा में गति है। ऊर्जा बहेगी। जीवन दुख है ऐसा जानते ही बाहर जाने के सब द्वार तत्क्षण बंद हो गए। अब इस ऊर्जा का क्या होगा? यह भीतर की तरफ मुड़ेगी, यह अंतस्तल की तरफ चलेगी, यह अपने ही केंद्र की तलाश में लग जाएगी—बाहर तो कुछ पाने को नहीं है, भीतर खोजो।
इस क्रांति का नाम ही धर्म है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है, जिसको बुद्ध ने कहा है—परावृत्ति, जब ऊर्जा खड़ी रह जाती है, बाहर जाने को जगह न रही। तुम द्वार पर खड़े हो, बाहर जाने को तैयार खड़े थे। बाहर जाने में कोई अर्थ न रहा, अब क्या करोगे? लौटकर अपने घर में विश्राम न करोगे?
मुल्ला नसरुद्दीन अपने द्वार पर खड़ा था। हाथ में छड़ी लिए अपनी टोपी ठीक कर रहा था। इतने में एक मित्र आ गए। मित्र ने पूछा कि मुल्ला, कहां जा रहे हो? मुल्ला ने मित्र को देखकर कहा कि कहीं नहीं जा रहा हूं आ रहा हूं, बाहर से आ रहा हूं।
पर मित्र को यह बात जंची नहीं, क्योंकि बाहर से वह खुद आ रहा था, मुल्ला को उसने आते नहीं देखा। और ठीक जूता उतारते, छड़ी सम्हालते—या जूता पहनते, कुछ पक्का नहीं हो सका—उसने कहा, मैं समझा नहीं। तो मुल्ला ने कहा, तुम्हें समझा देता हूं। मेरे हो, अपने हो, समझाने में कुछ बात नहीं, यह मेरी तरकीब है। जैसे ही कोई आदमी दरवाजे पर दस्तक देता है, मैं जल्दी से जूता पहनने की, टोपी लगाने की, छड़ी उठाने की कोशिश करने लगता हूं।
मित्र ने पूछा, इसका क्या सार है? उसने कहा, इसका सार यह है कि अगर देखा कि ऐसा आदमी है जिसको भीतर बिठालना ठीक नहीं, व्यर्थ सिर खाएगा, तो मैं कहता हूं मैं बाहर जा रहा हूं। और अगर ऐसा आदमी है, अपना है, प्यारा है, बैठकर मजा आएगा, रस आएगा, तो मैं कहता हूं लौटकर आ रहा हूं। ऐसा बीच में स्वागत करता हूं, दोनों तरफ खुली रहती है, दोनों तरफ द्वार खुले हैं, जैसा आदमी हुआ वैसा—या तो जाता, या आता।
जब तुम्हारी जीवन ऊर्जा बाहर न जाएगी तो घर तो आओगे ही! गंगा गंगासागर में न गिरेगी तो गंगोत्री में गिर जाएगी।
यह दूसरी बात खयाल में लेना, जीवन दुख है, ऐसा कहने का, इस पर बार—बार जोर देने का बुद्ध का क्या प्रयोजन होगा? तुम्हें दुखी करना प्रयोजन नहीं है, तुम्हें दुख से मुक्त करना प्रयोजन है।
इसलिए बुद्ध ने आर्य—सत्य कहे। पहला आर्य—सत्य, जीवन दुख है। दूसरा आर्य—सत्य, जीवन के दुख से मुक्त होने का उपाय है। लेकिन पहले यह तो समझ में आ जाए कि जीवन दुख है, तो फिर छुटकारे का उपाय खोजना शुरू हो जाए। फिर बुद्ध ने कहा कि जीवन के दुख से छूटने की संभावना है—देखो मेरी तरफ, मेरे महासुख को, मैं छूट गया हूं। तो ऐसा नहीं कि यह कोई कल्पना ही है कि जीवन के दुख से छूट जाएंगे, कौन कब छूटा? छूटने की संभावना है। और एक ऐसी दशा है, जहा दुख नहीं रह जाता, जहां दुख—निरोध हो जाता है।
जीवन दुख है, इतने पर बुद्ध की उपदेशना समाप्त नहीं हो जाती, शुरू होती है। यह तो पहला कदम हुआ कि जीवन दुख है। यह तुम्हें दिखायी पड़ जाए तो तुम पूछोगे ही, स्वभावत: पूछोगे—इस दुख से छूटा जा सकता है? या कि यह हमारी नियति है, दुख भोगना ही पड़ेगा? बुद्ध कहते हैं, छूटा जा सकता है। आशा खुली। लेकिन यह नए ढंग की आशा है। यह बाहर दौड़नेवाली आशा नहीं है। यह भीतर ठहरने वाली आशा है। एक नया सूत्रपात हुआ, एक नयी किरण उतरी। अब यह किरण किसी धन की चमक नहीं है और किसी दूसरे में लगाव नहीं है, यह किरण अब अपने ही केंद्र की चमक है।
बुद्ध कहते हैं, संभावना है दुख के पार जाने की। ऐसी दशा है—दुख—निर्वाण, दुख—मुक्ति की, दुख—निरोध कीं—निर्वाण की दशा है। तो तुम पूछोगे, जीवन दुख है और एक ऐसी दशा है जहां जीवन का दुख नहीं रह जाता, फिर मार्ग क्या है? तो बुद्ध कहते हैं—अष्टांगिक, आठ प्रक्रियाएं, जिनसे आदमी धीरे— धीरे कर मुक्त हो जाता है दुख से।
तो बुद्ध तुम्हें दुखी नहीं करना चाहते, तुम्हें दुख से मुका करना चाहते हैं, इसलिए दुख की इतनी चर्चा करते हैं। तुम उलटा कर रहे हो। तुम देखते ही नहीं जीवन में आख डालकर, तुम डरे हो कि कहीं दुख दिखायी न पड़ जाए, तो तुम आंखें बचा रहे हो। तुम यहां—वहां देखते हो, सीधा नहीं देखते जीवन में, तुम आख में आख डालकर नहीं देखते—इधर—उधर, कहीं दिख न जाए!
जानते तो तुम भी हो कि जीवन में दुख है, बार—बार अनुभव तो तुम्हें भी हुआ है कि जीवन में दुख है। कहते हैं न—दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है। यह तुम्हारी आंखें बताती हैं कि तुम्हें अंदाज है, तुम्हें अनुभव है—होना ही चाहिए, कितनी बार तो तुमने जाना कि यह फूल है और फिर कांटा पाया, आखिर बिना सीखे कैसे रह जाओगे? सीख तो गए हो तुम भी, फिर भी झुठला रहे हो अपनी सीख को।
बुद्ध इस बात को साफ कर देना चाहते हैं कि जीवन दुख है। यह इतना स्पष्ट हो जाए कि इसमें रत्तीमात्र भी संदेह न रहे। संदेह रहा तो तुम खोज जारी रखोगे, बाहर ही दौड़ते रहोगे। सोचोगे कि शायद कहीं से कुछ रास्ता मिल जाएगा। तो बुद्ध इसको अटूट रूप से सिद्ध कर देना चाहते हैं कि जीवन दुख है।
और कुछ बुद्ध को सिद्ध करने के लिए बहुत श्रम करने की जरूरत नहीं है, जीवन ऐसा है। सिर्फ पर्दा उठाकर दिखा दो, तो तुम देख लोगे—जीवन की नग्नता दुख ही है। जैसे हर आदमी को अगर तुम उघाड़कर देखो तो अस्थिपंजर पाओगे, सब सौंदर्य तिरोहित हो जाता है। ऐसे ही जीवन को उघाड़कर देखोगे तो दुख का अस्थिपंजर पाओगे। चमड़ी के ऊपर—ऊपर दिखायी पड़ता है सौंदर्य। बुद्ध तो जीवन के साथ वही कर रहे हैं जो एक्स—रे करती है। तुम्हारी हड्डी—हड्डी, तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, उसे उघाड़कर दिखा देती है।

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