जब बुद्ध कहते हैं, मंदिरों में झुकने में क्या रखा है, तो उन्होंने मालूम है किसको कही थी? यह बात उन्होंने कही थी एक पंडित को, अग्निदत्त को। बड़ा पंडित था, शास्त्र का ज्ञानी था, पूजा—पाठ इत्यादि का बड़ा ज्ञाता था। उसको उन्होंने कहा, क्या रखा है शास्त्र में? उस पंडित को चौंकाने के लिए, जगाने के लिए इसके सिवा कोई उपाय न था। उसके शास्त्र उससे छीनने जरूरी थे। उसकी अकड़ मिटाने का यही उपाय था कि उसको समझाया जाए कि शास्त्र में क्या रखा है! मंदिर में क्या रखा है! तीर्थ में क्या रखा है! और बुद्ध ने खूब निर्ममता से उसके ऊपर प्रहार किया। उस पंडित को गिराने के लिए इसके सिवा कोई रास्ता नहीं था, यही अनुकंपा थी।
आज यह एक सरल—सीधा ब्राह्मण किसान है। इसे कुछ पता नहीं है। यह कोई पंडित नहीं है। यह कहता है, मुझे कुछ मालूम ही नहीं कि मैं क्यों झुक रहा हूं यह परंपरा से चली आती बात। सीधा—सादा आदमी है। इसको बुद्ध ने उस तरह की चोट नहीं की। उस तरह की चोट की जरूरत नहीं है। इस झुकने वाले आदमी में अहंकार है ही नहीं जिसको चोट मारकर गिराना हो। इससे बुद्ध ने कहा, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण!
फर्क समझना!. अहंकारी पर गहरी चोट की कि क्या रखा है मंदिर में? निरहंकारी से कहा कि तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! ये दो अलग परिस्थितियां हैं। इन दोनों अलग परिस्थितियों में दो अलग आदमियों से कहे गए वचन हैं।
ऐसा रोज होता है मेरे पास। अक्सर ऐसा हो जाता है कि एक आदमी मुझसे बात कर रहा है दर्शन में, उसको मैं कुछ कहता हूं और उसके बाद जो आदमी आता है, उसके ठीक उलटी बात मुझे उससे कहनी पड़ती है। वे दोनों बड़े चौंक जाते हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दो अलग आदमियों से बात करनी पड रही है, तो जो मैं कहूंगा, उस आदमी को देखकर कहूंगा।
कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि मैं एक के प्रश्न का उत्तर दे रहा हूं फिर दूसरा मेरे सामने आता है, मैं उससे पूछता हूं कुछ पूछना है? वह कहता है कि नहीं, क्योंकि यही मेरा प्रश्न था, आपने उत्तर दे दिया। मैं कहता हूं क्षमा करो, यह उत्तर जिसको दिया है उसके लिए है, तुम अपना प्रश्न पूछो। तुम वही प्रश्न तो पूछ ही नहीं सकते जो इसने पूछा है। वह आदमी कहता है, लेकिन मेरा वही प्रश्न है, बिलकुल वही है, शब्दशः वही है।
शब्द एक से होंगे, लेकिन प्रश्न वही नहीं हो सकता। क्योंकि तुम पूछने वाले अलग हो। तुम्हारी पृष्ठभूमि अलग है। तुम अलग मां के पेट से पैदा हुए, अलग बाप के वीर्य से पैदा हुए। तुम अलग देश में पैदा हुए, अलग हवा में पले, अलग परिस्थितियों से गुजरे, अलग संस्कार तुमने इकट्ठे किए। तुम्हारी सारी पृष्ठभूमि अलग है। तुम वही प्रश्न तो पूछ ही नहीं सकते जो इसने पूछा है, क्योंकि यह प्रश्न तो यही पूछ सकता है। इस दुनिया में कोई दूसरा आदमी नहीं पूछ सकता।
तो कभी—कभी ऐसा होता है कि शब्द एक जैसे, तो तुम सोचते हो प्रश्न भी एक जैसा। और कभी—कभी ऐसा होता है कि मैं भी तुम्हें एक से ही शब्दों में उत्तर देता हूं तब तुम सोचते हो कि मैंने एक ही उत्तर दिया, तुम्हें भी और दूसरे को भी, इस भ्रांति में मत पड़ना।
सुबह की चर्चाएं सार्वजनिक हैं, साझ की चर्चाएं व्यक्तिगत हैं। और सांझ की चर्चाओं का मूल्य गहरा है। सुबह तुम्हें सार्वजनिक सत्य कह रहा हूं किसी एक से नहीं कह रहा हूं। सत्य जैसा है वैसा ही कह रहा हूं। तुम्हारे ऊपर ध्यान नहीं रखकर कह रहा हूं सत्य पर ध्यान रखकर कह रहा हूं। जैसा मैं सत्य को देखता हूं वैसा कह रहा हूं। सांझ को जब तुमसे मैं बात करता हूं तो सत्य से भी ज्यादा महत्वपूर्ण तुम हो। मुझसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण तुम हो। तब तुम्हें देखकर मैं कहता हूं।
सुबह तो ऐसा समझो कि जो मैं कह रहा हूं वह केमिस्ट की दुकान है, जिस पर सभी दवाइयां हैं। सांझ को जब तुमसे कुछ कहता हूं, तो प्रेस्किप्सन है, वह तुम्हारे ही लिए लिखा गया है। उसको किसी दूसरे को मत दे देना। यह मत सोचना कि मैंने तुम्हें दिया तो सभी के काम का है। वह किसी और के काम न आएगा। और कभी—कभी हानिकर भी हो सकता है।
इसलिए बहुत बार मेरे वक्तव्यों में तुम्हें विरोध दिखायी पड़ेगा। उस विरोध का कारण है। यही बुद्ध के भिक्षुओं को लगा। उन्हें लगा कि यह क्या बात है! अभी तो कहते थे कुछ दिन पहले कि कुछ नहीं रखा है, आज इस ब्राह्मण को कहने लगे, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! लेकिन उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा। वह भी ब्राह्मण था, अग्निदत्त भी ब्राह्मण था, लेकिन वह पंडित ब्राह्मण था; यह भी ब्राह्मण है, यह सीधा—सादा, भोला— भाला ब्राह्मण है; इन दोनों पर एक सी चोट नहीं की जा सकती है। जिस चोट ने अग्निदत्त को जगाया होगा, वह चोट इसको मार डालेगी। जिस चोट ने अग्निदत्त के लिए सहारा दिया, वह चोट इसका सहारा छीन लेगी।
इसलिए बुद्धपुरुषों के वचनों में बहुत बार विरोधाभास होंगे, पद—पद पर विरोधाभास होंगे, लेकिन विरोधाभास हो नहीं सकता। असंभव है। दिखता होगा।
No comments:
Post a Comment