Thursday 10 September 2015

हे भगवती जब इंद्रियां हृदय में विलीन हो कमल के केंद्र पर पहुंचो।
प्रत्येक विधि किसी मन—विशेष के लिए उपयोगी होती है। जिस विधि की अभी हम चर्चा कर रहे थे—तीसरी विधि, सिर के द्वारों को बंद करने वाली विधि—उसका उपयोग अनेक लोग कर सकते हैं। वह बहुत सरल है और बहुत खतरनाक नहीं है। उसे तुम आसानी से काम में ला सकते हो।
यह भी जरूरी नहीं है कि द्वारों को हाथ से बंद करो, बंद करना भर जरूरी है। इसलिए कानों के लिए डाट और आंखों के लिए पट्टी से काम चल जाएगा। असली बात यह है कि कुछ क्षणों के लिए या कुछ सेकेंड के लिए सिर के द्वारों को पूरी तरह बंद कर दो।
इसका प्रयोग करो, अभ्यास मत करो। अचानक करने से ही यह कारगर है, अचानक में ही राज छिपा है। बिस्तर में पड़े—पड़े अचानक सभी द्वारों को कुछ सेकेंड के लिए बंद कर दो, और तब भीतर देखो कि क्या होता है।
जब तुम्हारा दम घुटने लगे, क्योंकि श्वास भी बंद हो जाएगी, तब भी इसे जारी रखो। और तब तक जारी रखो जब तक कि असह्य न हो जाए। और जब असह्य हो जाएगा, तब तुम द्वारों को ज्यादा देर बंद नहीं रख सकोगे, इसलिए उसकी फिक्र छोड़ दो। तब आंतरिक शक्ति सभी द्वारों को खुद खोल देगी। लेकिन जहां तक तुम्हारा संबंध है, तुम बंद रखो। जब दम घुटने लगे, तब वह क्षण आता है, निर्णायक क्षण; क्योंकि घुटन पुराने एसोसिएशन तोड़ डालती है। इसलिए कुछ और क्षण जारी रख सको तो अच्छा।
यह काम कठिन होगा, मुश्किल होगा, और तुम्हें लगेगा कि मौत आ गई। लेकिन डरो मत। तुम मर नहीं सकते, क्योंकि द्वारों को बंद भर करने से तुम नहीं मरोगे। लेकिन जब लगे कि मैं मर जाऊंगा, तब समझो कि वह क्षण आ गया।
अगर तुम उस क्षण में धीरज से लगे रहे तो अचानक हर चीज प्रकाशित हो जाएगी। तब तुम उस आंतरिक आकाश को महसूस करोगे जो कि फैलता ही जाता है और जिसमें समग्र समाया हुआ है। तब द्वारों को खोल दो और तब इस प्रयोग को फिर—फिर करो। जब भी समय मिले, इसको प्रयोग में लाओ।
लेकिन इसका अभ्यास मत बनाओ। तुम श्वास को कुछ क्षण के लिए रोकने का अभ्यास कर सकते हो, लेकिन उससे कुछ लाभ न होगा। एक आकस्मिक, अचानक झटके की जरूरत है। उस झटके में तुम्हारी चेतना के पुराने स्रोतों का प्रवाह बंद हो जाता है और कोई नयी बात संभव हो जाती है।
भारत में अभी भी सर्वत्र अनेक लोग इस विधि का अभ्यास करते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि वे अभ्यास करते है, जब व यह एक अचानक विधि है। अगर तुम अभ्यास करो तो कुछ भी नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा। अगर मैं तुम्हें अचानक इस कमरे से बाहर निकाल फेंकूं तो तुम्हारे विचार बंद हो जाएंगे। लेकिन अगर हम रोज—रोज इसका अभ्यास करें तो कुछ नहीं होगा। तब वह एक यांत्रिक आदत बन जाएगी।
इसलिए अभ्यास मत करो; जब भी हो सके, प्रयोग करो। तो धीरे— धीरे तुम्हें अचानक एक आंतरिक आकाश का बोध होगा। वह आंतरिक आकाश तुम्हारी चेतना में तभी प्रकट होता है जब तुम मृत्यु के कगार पर होते हो। जब तुम्हें लगता है कि अब मैं एक क्षण भी नहीं जीऊंगा, अब मृत्यु निकट है, तभी वह सही क्षण आता है। इसलिए लगे रहो, डरो मत।
मृत्यु इतनी आसान नहीं है। कम से कम इस विधि को प्रयोग में लाते हुए कोई व्यक्ति अब तक नहीं मरा है। इसमें अंतर्निहित सुरक्षा के उपाय हैं, यही कारण है कि तुम नहीं मरोगे। मृत्यु के पहले आदमी बेहोश हो जाता है। इसलिए होश में रहते हुए यह भाव आए कि मैं मर रहा हूं तो डरो मत। तुम अब भी होश में हो, इसलिए मरोगे नहीं। और अगर तुम बेहोश हो गए तो तुम्हारी श्वास चलने लगेगी, तब तुम उसे रोक नहीं पाओगे।
और तुम कान के लिए डाट काम में ला सकते हो, आंखों में पट्टी बांध सकते हो, लेकिन नाक और मुंह के लिए कोई डाट उपयोग नहीं करने हैं, क्योंकि तब वह संघातक हो सकता है। कम से कम नाक को छोड़ रखना ठीक है। उसे हाथ से ही बंद करो। उस हालत में जब बेहोश होने लगोगे तो हाथ अपने आप ही ढीला हो जाएगा और श्वास वापस आ जाएगी। तो इसमें अंतर्निहित सुरक्षा है। यह विधि बहुतों के काम की है।
चौथी विधि उनके लिए है जिनका हृदय बहुत विकसित है, जो प्रेम और भाव के लोग हैं, भाव—प्रवण लोग हैं।
‘हे भगवती, जब इंद्रियां हृदय में विलीन हों, कमल के केंद्र पर पहुंचो।’
यह विधि हृदय—प्रधान व्यक्ति के द्वारा काम में लायी जा सकती है। इसलिए पहले यह समझने की कोशिश करो कि हृदय—प्रधान व्यक्ति कौन है। तब यह विधि समझ सकोगे।
जो हृदय—प्रधान है, उस व्यक्ति के लिए सब कुछ हृदय ही है। अगर तुम उसे प्यार करोगे तो उसका हृदय उस प्यार को अनुभव करेगा, उसका मस्तिष्क नहीं। मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति प्रेम किए जाने पर भी प्रेम का अनुभव मस्तिष्क से लेता है। वह उसके संबंध में सोचता है, आयोजन करता है; उसका प्रेम भी मस्तिष्क का ही सुचिंतित आयोजन होता है। लेकिन भावपूर्ण व्यक्ति तर्क के बिना जीता है। वैसे हृदय के भी अपने तर्क हैं, लेकिन हृदय सोच—विचार नहीं करता है।
अगर कोई तुम्हें पूछे कि क्यों प्रेम करते हो और तुम उस क्यों का जवाब दे सकी तो तुम मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति हो। और अगर तुम कहो कि मैं नहीं जानता, मैं सिर्फ प्रेम करता हूं तो तुम हृदय वाले व्यक्ति हो। अगर तुम इतना भी कहते हो कि मैं उसे इसलिए प्यार करता हूं कि वह सुंदर है तो वहां बुद्धि आ गई। हृदयोन्यूख व्यक्ति के लिए कोई सुंदर इसलिए है कि वह उसे प्रेम करता है। मस्तिष्क वाला व्यक्ति किसी को इसलिए प्रेम करता है कि वह सुंदर है। बुद्धि पहले आती है और तब प्रेम आता है। हृदय—प्रधान व्यक्ति के लिए प्रेम प्रथम है और
शेष चीजें प्रेम के पीछे—पीछे आती हैं। वह हृदय में केंद्रित है, इसलिए जो भी घटित होता है वह पहले उसके हृदय को छूता है।
जरा अपने को देखो। हरेक क्षण तुम्हारे जीवन में अनेक चीजें घटित हो रही है। वे किस स्थल को छूती हैं? तुम जा रहे हो और एक भिखारी सड़क पार करता है। वह भिखारी तुम्हें कहां छूता है? क्या तुम आर्थिक परिस्थिति पर सोच—विचार शुरू करते हो? या क्या तुम यह विचारने लगते हो कि कैसे कानून के द्वारा भिखमंगी बंद की जाए? या कि कैसे एक समाजवादी समाज बनाया जाए जहां भिखमंगे न हों?
यह एक मस्तिष्क—प्रधान आदमी है जो ऐसा सोचने लगता है। उसके लिए भिखारी महज विचार करने का आधार बन जाता है। उसका हृदय अस्पर्शित रह जाता है, सिर्फ मस्तिष्क स्पर्शित होता है। वह इस भिखारी के लिए अभी और यहां कुछ नहीं करने जा रहा है। नहीं, वह साम्यवाद के लिए कुछ करेगा, वह भविष्य के लिए, किसी ऊटोपिया के लिए कुछ करेगा। वह उसके लिए अपना पूरा जीवन भी दे दे, लेकिन अभी, तत्‍क्षण वह कुछ नहीं कर सकता है। मस्तिष्क सदा भविष्य में रहता है, हृदय सदा यहां और अभी है।
एक हृदय—प्रधान व्यक्ति अभी ही भिखारी के लिए कुछ करेगा। यह भिखारी आदमी है, आंकड़ा नहीं। मस्तिष्क वाले आदमी के लिए वह गणित का आंकड़ा भर है। उसके लिए भिखमंगी बंद करना समस्या है, इस भिखारी की मदद की बात अप्रासंगिक है।
तो अपने को देखो, परखो। देखो कि तुम कैसे काम करते हो, देखो कि तुम्हें हृदय की फिक्र है या मस्तिष्क की। अगर तुम समझते हो कि तुम हृदयोन्यूख व्यक्ति हो तो यह विधि तुम्हारे बहुत काम की होगी। लेकिन यह बात भी ध्यान रखो कि हर आदमी अपने को यह धोखा देने में लगा है कि मैं हृदयोम्मुख व्यक्ति हूं। हर आदमी सोचता है कि मैं बहुत प्रेमपूर्ण व्यक्ति हूं भावुक किस्म का हूं। क्योंकि प्रेम एक ऐसी बुनियादी जरूरत है कि अगर किसी को पता चले कि मेरे पास प्रेम करने वाला हृदय नहीं है तो वह चैन से नहीं रह सकेगा। इसलिए हर आदमी ऐसा सोचे और माने चला जाता है।
लेकिन विश्वास करने से क्या होगा? निष्पक्षता के साथ अपना निरीक्षण करो, ऐसे जैसे कि तुम किसी दूसरे का निरीक्षण कर रहे हो और तब निर्णय लो। क्योंकि अपने को धोखा देने की जरूरत क्या है? और उससे लाभ क्या होगा? और अगर तुम अपने को धोखा भी दे दो तो तुम विधि को धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि तब विधि को प्रयोग करने पर तुम पाओगे कि कुछ भी नहीं होता है।
लोग मेरे पास आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं कि तुम किस कोटि के हो। उन्हें यथार्थत: कुछ पता नहीं है। उन्होंने कभी इस संबंध में सोचा ही नहीं कि वे किस कोटि के हैं। उन्हें अपने बारे में धुंधली धारणाएं हैं। और वे धारणाएं दरअसल मात्र कल्पनाएं हैं। उनके पास कुछ आदर्श हैं, कुछ प्रतिमाएं हैं और वे सोचते हैं—सोचते क्या चाहते है—कि हम वे प्रतिमाएं होते। सच में वे हैं नहीं। और अक्सर तो यह होता है कि वे उसके ठीक विपरीत होते हैं।
इसका कारण है। जो व्यक्ति जोर देकर कहता है कि मैं हृदय—प्रधान आदमी हूं हो सकता वह ऐसा इसलिए कह रहा हो कि उसे अपने हृदय का अभाव खलता है। और वह भयभीत है। वह इस तथ्य को नहीं जान सकेगा कि उसके पास हृदय नहीं है।
इस संसार पर एक नजर डालो! अगर अपने हृदय के बारे में हरेक आदमी का दावा सही है तो यह संसार इतना ह्रदयहीन नहीं हो सकता। यह ससार हम सबका कुल जोड़ है। इसलिए कहीं कुछ अवश्य गलत है। वहां हृदय नहीं है।
सच तो यह है कि कभी हृदय को प्रशिक्षित ही नहीं किया गया। मन प्रशिक्षित किया गया है, इसलिए मन है। मन को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय हैं, लेकिन हृदय के प्रशिक्षण के लिए कोई जगह नहीं है। और मन का प्रशिक्षण लाभदायी है, लेकिन हृदय का प्रशिक्षण खतरनाक है। क्योंकि अगर तुम्हारा हृदय प्रशिक्षित किया जाए तो तुम इस संसार के लिए बिलकुल व्यर्थ हो जाओगे। यह सारा संसार तो बुद्धि से चलता है। अगर तुम्हारा हृदय प्रशिक्षित हो तो तुम पूरे ढांचे से बाहर हो जाओगे। जब सारा संसार दाएं जाता होगा, तुम बाएं चलोगे। सभी जगह तुम अड़चन में पड़ोगे।
सच तो यह है कि मनुष्य जितना अधिक सुसभ्य बनता है, हृदय का प्रशिक्षण उतना ही कम हो जाता है। हम तो उसे भूल ही गए हैं, भूल गए हैं कि हृदय भी है या उसके प्रशिक्षण की जरूरत है। यही कारण है कि ऐसी विधियां जो आसानी से काम कर सकती थीं, कभी काम नहीं करतीं।
अधिकांश धर्म हृदय—प्रधान विधियों पर आधारित हैं। ईसाइयत, इस्लाम, हिंदू तथा अन्य कई धर्म हृदयोन्‍मुख लोगों पर आधारित हैं। जितना ही पुराना कोई धर्म है वह उतना ही अधिक हृदय— आधारित है। जब वेद लिखे गए और हिंदू धर्म विकसित हो रहा था तब लोग हृदयोन्‍मुख थे। उस समय मन—प्रधान लोग खोजना मुश्किल था। लेकिन अभी समस्या उलटी है। तुम प्रार्थना नहीं कर सकते, क्योंकि प्रार्थना हृदय—आधारित विधि है।
यही कारण है कि पश्चिम में, जहां ईसाइयत का बोलबाला है—और ईसाइयत, खासकर कैथोलिकी ईसाइयत प्रार्थना का धर्म है—प्रार्थना कठिन हो गई है। ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई स्थान नहीं है। लेकिन अब पश्चिम में भी लोग ध्यान के लिए पागल हो रहे हैं। कोई अब चर्च नहीं जाता है, और अगर कोई जाता भी है तो वह महज औपचारिकता है, रविवारीय धर्म। क्यों? क्योंकि आज पश्चिम का जो आदमी है उसके लिए प्रार्थना सर्वथा असंगत हो गई है।
ध्यान ज्यादा मनोन्मूख है; प्रार्थना ज्यादा हृदयोन्मूख व्यक्ति की ध्यान—विधि है। यह विधि भी हृदय वाले व्यक्ति के लिए ही है।

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