Saturday 26 September 2015

जीसस को सूली पर लटकाया, तो भी आखिरी समय जीसस ने यही कहा—हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते क्या कर रहे हैं। और जिनके लिए वह क्षमा मांग रहे थे, वे पत्थर फेंक रहे थे, सड़े—गले फल फेंक रहे थे, गंदगी फेंक रहे थे, जूते फेंक रहे थे। जितना अपमान हो सकता था जीसस का, कर रहे थे। मरते हुए आदमी के साथ दुर्व्यवहार कर रहे थे—जीते जी भी दुर्व्यवहार किया, मरते क्षण में भी उनको दया न आयी।
जीसस को प्यास लगी है, सूली पर लटके हैं—वह सूली जो यहूदी देते थे उन दिनों, आदमी जल्दी नहीं मरता था; हाथ ठोंक चेते, पैर ठोंक देते कीलों से, कभी छह घंटे लगते मरने में, कभी आठ घंटे लगते, कभी आदमी चौबीस घंटे लटका रहता, खून बहता रहता, जब सारा खून बह जाता. शरीर से तब आदमी मरता, वह आजकल जैसी सूली नहीं थी जो क्षण में हो जाती है, बड़ी पीड़ादायी थी—तो खून बहने लगा है उनकी देह से और बड़ी गहरी प्यास लगी। लगती है प्यास, जब खून बहेगा तो पानी कम होने लगता है, क्योंकि खून के साथ शरीर का पानी बहने लगता है। तो उन्हें बड़ी तीव्र प्यास लगी है, उनका कंठ जल रहा है प्यास से, भरी दुपहरी है और उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि मुझे प्यास लगी है। तो किसी ने गंदी नाली में एक मशाल डालकर मशाल बुझा दी और मशाल के ऊपर जो गंदगी लग गयी, पानी लग गया नाली का, वह उठाकर जीसस के चेहरे के पास कर दिया कि इसे चाट लो, इससे थोड़ी प्यास बुझ जाएगी। इनके लिए वह प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु, इन्हें क्षमा कर देना, क्योंकि ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
जिसने इंसानों की तकसीम के सदमे झेले
फिर भी इसी की अखौवत का परस्तार रहा,
ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ है। उसे न कोई अपना है, न कोई पराया है।
द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
द्वैत दर्शन में है
तुम घर के भीतर बैठे हो, बच्चा बाहर खेल रहा है, तुम कहते हो बाहर खेल रहा है। बच्चा भीतर आ गया, तुम कहते हो भीतर आ गया। लेकिन द्वार से पूछो कि क्या बाहर है, क्या भीतर है, तो द्वार के लिए तो दोनों बराबर दूरी पर हैं बाहर और भीतर।
द्वार के लिए न भीतर है न बाहर
द्वैत दर्शन में है
जो द्वार बनकर खड़ा हो गया है उसे न कोई अपना है, न कोई पराया, न कुछ बाहर है, न भीतर है; न कुछ सुख है, न दुख; उसका द्वंद्व गया, द्वैत गया, अब तो उसे एक ही दिखायी पड़ता है। इस एक की प्रतीति का नाम श्रेष्ठत्व है।
और बुद्ध ने कहा, ऐसा श्रेष्ठ व्यक्ति सब जगह उत्पन्न नहीं होता। फिर जब कभी ऐसा अनूठा व्यक्ति कहीं पैदा होता है—
‘वह धीर जहां उत्पन्न होता है, उस कुल में सुख बढ़ता है। ‘
कुल का अर्थ भी समझना, उसके भी साथ भूल होती रही है।
उसका अर्थ हुआ कि जिस घर में बुद्ध पैदा होते हैं उसमें सुख बढ़ता है, वह तो ठीक ही है, बुद्ध की मौजूदगी जहां होगी वहा सुख बढ़ेगा। अकारण भी कोई बुद्ध के करीब से गुजर जाएगा तो भी सुख की एक झलक, सुख का एक झोंका उसे लग जाएगा। बुद्ध के पास न जानकर भी आए हुए आदमी को थोड़ी सी सुगंध तो लग ही जाएगी। तो जिस घर में बुद्ध पैदा होंगे उस घर में तो सुख होगा, यह ठीक है, मगर यह बात असली नहीं है। बुद्ध की भाषा में कुल का कुछ और अर्थ होता है। बुद्ध कहते हैं कि तुम्हारे भीतर कोई थिर आत्मा नहीं है, तुम्हारे भीतर कोई ठोस आत्मा नहीं है, तुम्हारे भीतर एक संतति है। जैसे हम सांझ को दीया जलाते हैं; शाम को दीया जलाया, फिर सुबह अगर कोई तुमसे पूछे कि क्या यह वही दीया है जो रात तुमने जलाया था, तो तुम क्या कहोगे? तुम अगर थोड़ा सोच—विचार करोगे तो तुम कहोगे कि दीया तो वही है एक अर्थ में, लेकिन एक अर्थ में नहीं भी है, क्योंकि जो ज्योति हमने जलायी थी वह तो कभी की बुझ चुकी। दूसरी ज्योति आ रही है प्रतिक्षण। जो ज्योति हमने जलायी थी वह तो हवा में लीन होती जा रही है और दूसरी ज्योति आती जा रही है। तो यह दीया इस अर्थ में वही है कि इस दीए में जो ज्योति अभी जल रही है, वह उसी ज्योति की संतति है, उसी कुल में आयी है, मगर वह ज्योति तो कभी की जा चुकी। हजारों ज्योतिया आ चुकीं रात में और जा चुकीं।
जैसे नदी है। तुम कहते हो, यह गंगा है। तुम कहो कि हम पिछले वर्ष भी यहां आए थे, यह वही नदी है। तो बुद्ध कहते हैं, यह वही नदी है? ठीक से सोचकर कह रहे हो? नहीं, उसी नदी के कुल में है। वह नदी तो कब की बह गयी! जो तुम देख गए थे सालभर पहले, वह तो सागर में गिर चुकी। हो, उसी की धारा में बहने वाली नदी है, उसी से जुड़ी है—उससे भिन्न भी नहीं है, उसके साथ एक भी नहीं है।
इसको बुद्ध ने संतति का नियम कहा है। इसको बुद्ध कहते हैं, कुल।
तुम जब पैदा हुए थे, तुम वही हो? कितनी तो धारा बह चुकी, कितनी तो नदी बह चुकी! गंगा का कितना पानी तो बह चुका! तुम जवान हो गए अब, कितने बह गए! के होओगे तब तुम यही रहोगे? बहुत कुछ बह चुका होगा। लेकिन एक अर्थ में तुम यही रहोगे, क्योंकि एक ही धारा है। जो पैदा हुआ था, वही तो नहीं मरेगा; जो बच्चा पैदा हुआ था सत्तर साल पहले, वही थोड़े ही मरेगा, सत्तर साल में सब बदल गया, लेकिन फिर भी एक अर्थ में वही मरेगा, वही धारा टूटेगी।
इस धारा के सिद्धात को बुद्ध ने बड़ा मूल्य दिया है। यह उनकी अनूठी खोज है। इसका अर्थ हुआ कि इस जगत में कोई भी चीज थिर नहीं है, तुम भी थिर नहीं हो, अथिरता इस जगत का स्वभाव है। परिवर्तन इस जगत का स्वभाव है। इसके पहले भी लोगों ने कहा है कि जगत का स्वभाव परिवर्तन है, लेकिन तुमको बचा लिया था—उन्होंने कहा था, तुम नहीं बदलते, सब बदल रहा है, तुम थिर हो। लेकिन बुद्ध कहते हैं, तुम भी थिर नहीं हो, तुम भी बदल रहे हो। और जो नहीं बदल रहा है, उसका तो तुम्हें पता ही नहीं है। और जब तक तुम हो, तब तक उसका पता भी नहीं चलेगा। जब तुम बिलकुल ऐसा अनुभव कर लोगे कि मैं भी इस बदलते जगत की ही एक छाया हूं और तुम भी इस जगत की बदलाहट के साथ?
जाओगे और धीरे— धीरे यह मोह छोड़ दोगे कि मैं थिर हूं तब तुम्हें कुछ दिखायी पड़ेगा। कुछ, जो शाश्वत है।
लेकिन उसकी बुद्ध ने चर्चा नहीं की। क्योंकि वह कहते हैं, चर्चा करते से ही गलती हो जाती है। जिसकी भी हम चर्चा कर सकते हैं, वही अशाश्वत हो जाता है। इसलिए उसे चर्चा के बाहर छोड़ दिया है। है कुछ, अनिर्वचनीय, नित्य, मगर उसकी चर्चा नहीं की है। तुम तो जिसे अभी जानते हो कि मैं हूं यह बदल रहा है। तुम एक धारा हो, एक संतति हो। जैसे दीए की ज्योति, या नदी। इस बात को खयाल में लोगे तो अर्थ साफ हो जाएगा।
‘वह धीर जहां उत्पन्न होता है…….। ‘
यत्थ सो जायति धीरो त कुलं सुखमेधति ।
‘……. उस कुल में सुख बढ़ता है। ‘
जहां बुद्धत्व का पदार्पण हो गया, फिर उसके बाद तुम्हारे भीतर जो संतति चलती है, जो धारा आती है, तुम जो रोज—रोज पैदा होते हो, उसमें रोज—रोज सुख बढ़ता चला जाता है। आज और, कल और, परसों और। तुम बदलते जाते हो लेकिन सुख घना होता जाता है। सुख बढ़ता ही चला जाता है। और एक ऐसी घड़ी आती है जहां सुख महासुख हो जाता है। उस महासुख की घड़ी को ही निर्वाण की घड़ी कहा है। समाधि की घड़ी कहो, जीवन—मुक्त की दशा कहो, या जो भी नाम देना हो।

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