Monday 28 September 2015

‘जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए हैं, जो शोक और भय को पार कर गए हैं, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता।’
यह वचन भी बुद्ध ने एक विशेष परिस्थिति में कहा। उस परिस्थिति को समझें। ये परिस्थितियां बड़ी अनूठी हैं। और सूत्र को ठीक से समझ में आने के लिए जरूरी है उनकी पूरी पृष्ठभूमि खयाल में आ जाए—कब ऐसा बुद्ध ने कहा?
एक समय भगवान श्रावस्ती से वाराणसी को जाते हुए मार्ग में एक वृक्ष के नीचे ठहरे। उस वृक्ष पर एक छोटा चबूतरा था। पास में ही खेत में काम करता हुआ एक ब्राह्मण किसान भगवान को देखकर उनके दर्शन को आया। लेकिन भगवान के चरणों में झुकने के पूर्व उसने वृक्ष के चबूतरे को झुककर पहले प्रणाम किया। शास्ता ने उससे पूछा ब्राह्मण क्या जानकर ऐसा किया? मुझे प्रणाम किए लेकिन मुझसे पहले ‘चबूतरे को प्रणाम किए फिर मुझे प्रणाम किए ऐसा क्या जानकर किए? उस किसान ने कहा भगवान मुझे ज्यादा तो पता नहीं लेकिन परंपरा से चला आया हमारा यह पूज्य स्थान है सदा से हम इसे पूजते रहे हैं। ऐसा परंपरागत है। भगवान ने कहा ब्राह्मण तूने यह ठीक ही किया।
भगवान के शिष्य बात सुनकर बहुत चौंके, क्योंकि बुद्ध सदा कहते थे, चबूतरे पूजने से क्या होगा? अभी पिछले दिनों ही कोई सूत्र आया था—वृक्ष की पूजा से क्या होगा! चैत्य की पूजा से क्या होगा! मंदिर की पूजा से क्या होगा! मूर्ति की पूजा से क्या होगा! शास्त्र की पूजा से क्या होगा! तो बुद्ध तो सदा कहते थे, इस तरह की पूजा व्यर्थ है। आज तो शिष्य बड़े चौंके।
उस ब्राह्मण को उन्होंने कहा कि ब्राह्मण! यह तूने ठीक ही किया। भगवान के शिष्य बहुत चौके—इसमें उन्हें विरोधाभास दिखायी पड़ा। तो भगवान ने उनसे कहा यह पूर्व में हुए काश्यप बुद्ध की समाधि है। और पूजनीयों की पूजा करनी युक्त है सदा युक्त है। फिर उन्होंने कहा भिक्षुओ आंखें बंद करो और ध्यान करो तुम्हारी सारी चेतना को इस चबूतरे पर लगाओ। सारे भिक्षु ध्यान करने बैठ गए शांत होकर बैठे चबूतरे पर उन्होंने सारी अपनी जीवन— ऊर्जा को बहाया तो बड़े चौके। ऐसा तो उन्होंने कभी न देखा था। ऊपर से तो वह चबूतरा बस जरा सा खंडहर था ईटं— पत्थर का लेकिन भीतर अनंत ज्योति थी। उस दीन— दरिद्र चबूतरे के भीतर ऐसी विराट ज्योति थी कि कोसों तक उसका प्रकाश फैला हुआ था। तब उन्होंने आंखें खोली और उन्होंने भगवान से कहा हमें समझाइए।
तो बुद्ध ने कहा कि मुझसे पूर्व काश्यप बुद्ध हुए। मैं कोई पहला बुद्ध नहीं हूं अनंत बुद्ध मुझसे पहले हो गए अनंत बुद्ध मेरे बाद होंगे। यह पृथ्वी कभी बुद्धों से खाली नहीं रहती। मुझसे पहले काश्यप बुद्ध हुए यह उनका चबूतरा है। और बुद्धों के लिए क्या पहला और क्या पीछा क्या अतीत और क्या भविष्य असली सवाल तो बुद्धत्व को नमस्कार करने का है। और इस आदमी को पता भी नहीं है कि यह किसको नमस्कार कर रहा है। लेकिन क्या तुमको पता है? तुम मुझे नमस्कार करते हो क्या तुम्हें पता है कि तुम किसको नमस्कार कर रहे हो? अज्ञान में तो आदमी अज्ञान में ही होता है। लेकिन अज्ञान में भी यह ठीक दिशा में चल रहा है। अंधेरे में भी यह द्वार के लिए टटोल रहा है इसे पता नहीं है कि यह चबूतरा किसका है क्यों है— कहता है परंपरा से चला आया है। लेकिन जो बात चली आयी परंपरा से जरूरी नहीं कि ठीक हो जरूरी नहीं कि गलत हो।
इस बात को खयाल में लेना। जो बात चली आयी है सदा से, जरूरी नहीं कि ठीक हो, जरूरी नहीं कि गलत हो। इसलिए प्रत्येक बात का निर्णय उस बात के ही गुणधर्म से करना। ऐसा कह देना कि जो परंपरा से चला आया है ठीक है, नासमझी है; और ऐसा कह देना भी नासमझी है कि जो परंपरा से चला आया है, वह इसीलिए गलत है कि परंपरा से चला आया है। न तो नया सत्य होता है, न पुराना सत्य होता है। सत्य पुराने में भी होता है, नए में भी होता है। सिर्फ कोई चीज पुरानी है, इसलिए सच मत मान लेना; और कोई चीज नयी है, इसलिए भी सच मत मान लेना।
दुनिया सदा इस तरह की भूलें करती है। जैसे पूरब में—पूरब में जो पुराना है; सो सही। पश्चिम में—जो नया है, सो सही। दोनों ही बातें गलत हैं। सही कें नए और पुराने होने से कोई संबंध नहीं है। वेद चाहे पाच हजार साल पुराने हों और चाहे पचास हजार साल पुराने हों, इससे क्या फर्क पड़ता है! सही हैं, तो पांच दिन पुराने हों तो भी सही हैं। और गलत हैं, तो पचास हजार साल पुराने हों तो भी गलत हैं। मैं तुमसे जो कह रहा हूं अगर सही है तो सही है, चाहे कितना ही नया हो। और अगर गलत है तो गलत है, चाहे कितना ही नया हो। नए और पुराने से सत्य का कोई संबंध नहीं है।
प्रत्येक बात की जांच उस बात को देखकर ही करना बुद्ध ने कहा। इसलिए मैने बहुत बार कहा है कि चैत्य की पूजा में क्या रखा है मगर इस ब्राह्मण से न कह सकूंगा। क्योंकि इसने जिस चैत्य को सिर झुकाया है वहां कुछ रखा है हालांकि इसे पता नहीं है लेकिन झुकते—झुकते पता चल जाएगा। पूजनियों की पूजा करना ठीक है। न पता हो तो भी ठीक है। क्योंकि झुकते— झुकते शायद किसी दिन किरण उतर जाए। उस समय उन्होंने यह सूत्र कहा—
‘जो संसार—प्रपंच को अतिक्रमण कर गए हैं, जो शोक और भय को पार कर गए हैं, ऐसे पूजनीय बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुषों की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता। ‘
बुद्ध ने कहा, इतना—इतना परिणाम है उस पुण्य का—पूजा के पुण्य का, झुकने के पुण्य का—कि उसे कहा नहीं जा सकता। क्यों झुकने में इतना पुण्य होगा? सच बात यह है कि झुकने में नहीं है वस्तुत) क्योंकि झुकने का अर्थ होता है, तुमने अहंकार को थोड़ा झुकाया—उसी में है, वह जो अहंकार झुका। तुम झुकने को राजी हुए, तुमने अहंकार को थोड़ी देर को अपने सिर से उतारकर रख दिया, तुमने किसी के सामने अपने को छोटा माना, उसी में पुण्य है।
इसलिए पूरब में हमने इस तरह की बहुत सी व्यवस्था की थी कि जिसके कारण आदमी को झुकने का अभ्यास बना रहे। बाप के पैर छू लो—अब जरूरी नहीं कि बाप ठीक ही हो। सभी बाप ठीक हों तो दुनिया ठीक ही हो जाए! बाप चोरी भी करता है, बाप हत्यारा भी हो सकता है। लेकिन फिर भी पूरब में हमने कहा कि बाप हत्यारा हो तो भी झुककर पैर छूना। मां के पैर छू लो—अब सभी मां ठीक नहीं होतीं। जरूरी भी नहीं है कि ठीक हों। मां होने से क्या ठीक होने का लेना—देना है! लेकिन झुक जाना। क्यों? ताकि झुकने का अभ्यास बना रहे। ताकि झुकने की प्रक्रिया भूल न जाए। ऐसे झुकते—झुकते किसी दिन उस आदमी के करीब भी पहुंच जाओगे जहां कुछ है, तो उस वक्त अड़चन न आएगी।
अब मैं देखता हूं यहां, पश्चिम से कोई आता है, उसे झुकने में बड़ी अड़चन आती है। वह झुकता भी है तो थोड़ा झिझकता—झिझकता सा झुकता है। क्योंकि पश्चिम में झुकने की कोई प्रक्रिया नहीं है। किसी के पैर छूना, पश्चिम में कोई परंपरा नहीं है। बाप के पैर नहीं छूना, मां के पैर नहीं छूना, गुरु के पैर नहीं छूना, पैर छूने की परंपरा नहीं है। एक दिन अचानक तुम उससे कहते हो कि परमात्मा के सामने झुको, उसे झुकने का कोई अभ्यास नहीं है। जो छोटे, उथले जल में नहीं तैरा, उसे अचानक सागर में उतारते हो! वह डुबकी खा जाएगा।
पहले तो तैरना सीखना पड़ता है नदी में—छोटी नदी में, या स्वीमिंग पूल में—उथले—उथले में तैरना आ जाए, फिर तुम गहरे सागरों में जा सकते हो। पिता माना कि अभी उथला किनारा है, सब तरह की भूलें हैं जो आदमी में होनी चाहिए, जो आदमी में होती हैं, ठीक, इसकी तुमने फिकर न की, फिर भी झुके—ऐसे उथले पानी में तुमने झुकने का अभ्यास कर लिया। फिर अगर कभी तुम संयोग से किसी बुद्धपुरुष के करीब आ जाओ, तो झुकने में जरा भी अड़चन न आएगी—जरा भी अड़चन न आएगी। एक बार भी मन में ऐसा न उठेगा कि झुकूं कि नहीं, झुकना चाहिए कि नहीं, तुम अवश झुक जाओगे। तुम सहज झुक जाओगे। तुम अचानक पाओगे कि तुम झुके हुए हो। तुम्हारा झुकना इतना स्वाभाविक होगा। और उसी स्वाभाविक झुकने में पुण्य है, उसी स्वाभाविक झुकने में कुछ तुममें बह जाएगा।
हमारी मान्यता यह है कि अगर किसी गलत आदमी के सामने झुके तो तुम्हारा कुछ खोता नहीं। हर्जा कुछ भी नहीं है। बस कुछ मिला नहीं, इतना ही हुआ न! लेकिन झुकने का अभ्यास बना रहा। किसी दिन अगर ठीक आदमी के सामने झुक जाओगे तो उसके अंतर से बहती हुई ऊर्जा तुम्हारे पात्र में भर जाएगी, तुम लबालब हो जाओगे। और तब तुम पाओगे कि जिन गलत आदमियों के सामने झुके, उनका भी धन्यवाद है, क्योंकि उन्होंने ही यह घड़ी सामने लायी।
तो बुद्ध कहते हैं, बुद्धों अथवा श्रावकों की, या उन जैसे मुक्त और निर्भय पुरुष की पूजा के पुण्य का परिणाम इतना है, यह किसी से कहा नहीं जा सकता, इसलिए इस ब्राह्मण को मैं कहता हूं, तूने ठीक ही किया, ब्राह्मण! तू मुझे तो जानता नहीं, लेकिन परंपरा से चले आए इस चबूतरे को जानता है—कोई कभी इस चबूतरे के सामने जानकर झुके होंगे, हजारों साल पहले काश्यप बुद्ध हुए, उनके चरणों में कोई जानकर झुका होगा। फिर उसके बेटे यह सोचकर झुके होंगे कि पिता झुकते थे। फिर उसके बेटे को भी थोड़ा खयाल रहा होगा कि यहां कुछ है। फिर धीरे—धीरे बात भूलती गयी, मगर झुकने की परंपरा जारी रही। इस चैत्य ने ही तुझे इस योग्य बनाया है कि तू मेरे चरणों में भी झुक सका। इसलिए तूने ठीक ही किया कि तू पहले इस चैत्य के, चबूतरे के चरणों में झुका। धन्यवाद इसको देना जरूरी है।
काश्यप बुद्ध से बुद्ध का? मिलना हुआ है पिछले जन्मों में, और बड़ी अनूठी कथा है। तब बुद्ध अज्ञानी थे—गौतम बुद्ध अज्ञानी थे—काश्यप बुद्ध की बड़ी महिमा थी। दूर—दूर से लोग यात्रा करके उनके चरणों में आते थे। तो गौतम बुद्ध भी अपने उस जन्म में उनके दर्शन को गए, वह उनके चरणों में झुके। जब वह चरण छूकर खड़े हुए तो बड़े चौंके, क्योंकि काश्यप, बुद्ध उनके चरणों में झुक गए। तो बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि भंते, यह कैसा पाप! यह आप क्या कर रहे हैं! मैं आपके चरणों में झुकुं यह तो ठीक—मैं अज्ञानी, मैं पापी, मैं नासमझ, मैं अबोध—मैं चरणों में झुकूं यह तो ठीक, लेकिन आप यह क्या कर रहे हैं, मेरे चरणों में झुक रहे! तो काश्यप बुद्ध ने कहा कि सुन, तू एक दिन बुद्ध हो जाएगा, मैं देख पाता हूं। तुझे तेरा बुद्धत्व दिखायी नहीं पड़ता, लेकिन मुझे दिखायी पड़ रहा है, तू एक दिन बुद्ध हो जाएगा। मैं उस भविष्य के बुद्धत्व के चरणों में झुक रहा हूं।
उसी काश्यप बुद्ध की यह समाधि है जिस पर आज बुद्ध ठहरे हैं। हजारों वर्ष बीत गए हैं, लेकिन जब भिक्षुओं ने ध्यान किया है तो उन्हें लगा कि उस समाधि के भीतर अपूर्व प्रकाश है। ध्यान की आख हो तो हजारों साल पहले जो बुद्ध जा चुके हैं, उनका प्रकाश भी तुम्हें छुएगा, आंदोलित करेगा। और ध्यान की आख न हो तो जीवित बुद्ध के सामने भी तुम अंधे की तरह बैठे रहोगे, तुम्हें कोई प्रकाश न छुएगा। सब तुम पर निर्भर है।
बुद्ध का वचन खयाल रखना, झुकने का अभ्यास अच्छा है। और बुरे— भले का भी क्या हिसाब रखना! और हम तय भी करने वाले कौन कि कौन बुरा और कौन भला! जहां झुकने का अवसर मिले, झुक जाना। तुम तो इसकी ही फिकर करना कि हमें झुकने का अवसर मिला, यही बहुत। ऐसे झुकते रहे, झुकते रहे, झुकते रहे, तो अहंकार कटता जाएगा, कटता जाएगा; अहंकार पत्थर की चट्टान है, समय लगता है कटने में। लेकिन अगर झुकते रहे, झुकने का जल अगर इस पत्थर की चट्टान पर गिरता रहा, गिरता रहा—
रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निसान।
कठिन से कठिन पत्थर पर भी कुएं की रस्सी आते—जाते निशान पड़ जाता है। करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
और धीरे— धीरे, धीरे— धीरे, इंच—इंच चल—चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है और जड़मति भी सुजान हो जाता है।
तो बुद्ध कहते हैं, ठीक ही किया इस ब्राह्मण ने। इसे पता तो नहीं है, लेकिन झुकने का तो पता है। किसके चरणों में झुक रहा है, इसे पता नहीं, लेकिन झुकने का तो पता है।
इसलिए खयाल रखना, बुद्धपुरुषों की वाणी में अगर कभी विरोधाभास मिले, तो जल्दी से विरोधाभास की वजह से उलझ मत जाना। जब बुद्ध कहते हैं, क्या रखा है मंदिरों में झुकने से, तब भी ठीक कहते हैं। और जब बुद्ध कहते हैं, झुकने में बहुत कुछ रखा है, तब भी ठीक कहते हैं। दोनों ही बातें सच हैं। दोनों अलग—अलग पात्रों के लिए कही गयी हैं।

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