Friday 11 September 2015

मन को भूलकर मध्य में रहो— जब तक।
सूत्र इतना ही है। किसी भी वैज्ञानिक सूत्र की तरह यह छोटा है, लेकिन ये थोड़े से शब्द भी तुम्हारे जीवन को समग्रत: बदल सकते हैं।
‘मन को भूलकर मध्य में रहो—जब तक।’
‘मध्य में रहो’—बुद्ध ने अपने ध्यान की विधि इसी सूत्र के आधार पर विकसित की। उनका मार्ग मज्‍झिम निकाय या मध्य मार्ग कहलाता है। बुद्ध कहते हैं, सदा मध्य में रहो—प्रत्येक चीज में।
एक बार राजकुमार श्रोण दीक्षित हुआ, बुद्ध ने उसे संन्यास में दीक्षित किया। वह राजकुमार अदभुत व्यक्ति था। और जब वह संन्यास में दीक्षित हुआ तो सारा राज्य चकित रह गया। लोगों को यकीन नहीं हुआ कि राजकुमार श्रोण संन्यासी हो गया है। किसी ने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था! क्योंकि श्रोण पूरा सांसारिक था, भोग—विलास में सर्वथा लिप्त, डूबा हुआ। सुरा—सुंदरी ही उसका पूरा संसार था।
तभी अचानक एक दिन बुद्ध उसके नगर में आए। राजकुमार श्रोण उनके दर्शन को गया। वह बुद्ध के चरणों में गिरा और बोला कि मुझे दीक्षित कर लें, मैं संसार छोड़ दूंगा।
जो लोग उसके साथ आए थे उन्हें भी इसकी कुछ खबर नहीं थी। ऐसी अचानक घटना थी यह। उन्होंने बुद्ध से पूछा कि यह क्या हो रहा है! यह तो चमत्कार है। श्रोण उस कोटि का व्यक्ति नहीं है, वह तो भोग—विलास में रहा है। हमने तो कल्पना भी नहीं की थी कि श्रोण संन्यासी होगा। यह क्या हो रहा है? आपने कुछ कर दिया है।
बुद्ध ने कहा कि मैंने कुछ नहीं किया है। मन एक अति से दूसरी अति पर जा सकता है। वह मन का ढंग है—एक अति से दूसरी अति पर जाना। श्रोण कुछ नया नहीं कर रहा है। यह होना ही था। क्योंकि तुम मन के नियम नहीं जानते, इसलिए तुम चकित हो रहे हो।
मन एक अति से दूसरी अति पर गति करता रहता है। मन का यही ढंग है। यह रोज—रोज होता है। जो आदमी धन के पीछे पागल था वह अचानक सब कुछ छोड्कर नंगा
फकीर हो जाता है। हम सोचते हैं कि चमत्कार हो गया। लेकिन यह सामान्य नियम के सिवाय त्रिनेत्र कुछ नहीं है। जो आदमी धन के पीछे पागल नहीं है उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि
वह त्याग करेगा। क्योंकि तुम एक अति से ही दूसरी अति पर जा सकते हो—वैसे ही जैसे घडी का पेंडुलम एक अति से दूसरी अति पर डोलता रहता है।
इसलिए जो आदमी धन के लिए पागल था वह पागल होकर धन के खिलाफ जाएगा, लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। वही मन है। जो आदमी कामवासना के लिए ही जीता था वह ब्रह्मचारी हो जा सकता है, एकांत में चला जा सकता है, लेकिन उसका पागलपन कायम रहेगा। पहले वह कामवासना के लिए जीता था, अब वह कामवासना के खिलाफ होकर जीएगा। लेकिन उसका रुख, उसकी दृष्टि वही की वही रहेगी। इसलिए ब्रह्मचारी सच में कामवासना के पार नहीं गया है, उसका पूरा चित्त काम—प्रधान है। वह सिर्फ विरुद्ध हो गया है, उसने काम का अतिक्रमण नहीं किया है। अतिक्रमण का मार्ग सदा मध्य में है, वह कभी अति में नहीं है।
तो बुद्ध ने कहा कि यह होना ही था, यह कोई चमत्कार नहीं है। मन ऐसे ही व्यवहार करता है।
श्रोण भिक्‍खू बन गया, संन्यासी हो गया। शीघ्र ही बुद्ध के दूसरे शिष्यों ने देखा कि वह दूसरी अति पर जा रहा था। बुद्ध ने किसी को नग्न रहने को नहीं कहा था, लेकिन श्रोण नग्न हो गया। बुद्ध नग्नता के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा कि यह दूसरी अति है। लोग हैं जो कपड़ों के लिए ही जीते हैं, मानो वही उनका जीवन हो। और ऐसे लोग भी हैं जो नग्न हो जाते हैं। लेकिन दोनों वस्त्रों में विश्वास करते हैं।
बुद्ध ने कभी नग्नता की शिक्षा नहीं दी, लेकिन श्रोण नग्न हो गया। वह बुद्ध का अकेला शिष्य था जो नग्न हुआ। श्रोण आत्म—उत्पीड़न में भी गहरे उतर गया। बुद्ध ने अपने संन्यासियों को दिन में एक बार भोजन की व्यवस्था दी थी, लेकिन श्रोण दो दिनों में एक बार भोजन लेने लगा। वह बहुत दुर्बल हो गया। दूसरे भिक्षु पेड़ की छाया में ध्यान करते थे, लेकिन श्रोण कभी छाया में नहीं बैठता था। वह सदा कड़ी धूप में रहता था। वह बहुत सुंदर आदमी था, उसकी देह बहुत सुंदर थी। लेकिन छह महीने के भीतर पहचानना मुश्किल हो गया कि यह वही आदमी है। वह कुरूप, काला, झुलसा—झुलसा दिखने लगा।
एक रात बुद्ध श्रोण के पास गए और उससे बोले: श्रोण, मैंने सुना है कि जब तुम राजकुमार थे, तब तुम्हें वीणा का शौक था और तुम एक कुशल वीणावादक और बड़े संगीतज्ञ थे। तो मैं तुमसे एक प्रश्न पूछने आया हूं। अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों तो क्या होता है? श्रोण ने कहा कि अगर तार ढीले होंगे तो कोई संगीत संभव नहीं होगा।
और फिर बुद्ध ने पूछा कि अगर तार बहुत कसे हों तो क्या होगा? श्रोण ने कहा कि तब भी संगीत नहीं पैदा होगा। तारों को मध्य में होना चाहिए; वे न ढीले हों और न कसे हुए, ठीक मध्य में हों। और श्रोण ने कहा कि वीणा बजाना तो आसान है, लेकिन एक परम संगीतज्ञ ही तारों को मध्य में रख सकता है।
तो बुद्ध ने कहा कि छह महीनों तक तुम्हारा निरीक्षण करने के बाद मैं तुमसे यही कहने आया हूं कि जीवन में भी संगीत तभी जन्मता है जब उसके तार न ढीले हों और न कसे हुए,
ठीक मध्य में हों। इसलिए त्याग करना आसान है, लेकिन परम कुशल ही मध्य में रहना जानता है। इसलिए श्रोण, कुशल बनों और जीवन के तारों को मध्य में, ठीक मध्‍य में रखो। इस या उस अति पर मत जाओ। और प्रत्येक चीज के दो छोर हैं, दो अतियां हैं, लेकिन तुम्हें सदा मध्य में रहना है।
लेकिन मन बहुत बेहोश है। इसलिए सूत्र में कहा गया है. ‘मन को भूलकर।’ तुम यह बात सुन भी लोगे, तुम इसे समझ भी लोगे, लेकिन मन उसको नहीं ग्रहण करेगा। मन सदा अतियों को चुनता रहेगा। मन में अतियों के लिए बड़ा आकर्षण है, मोह है। क्यों? क्योंकि मध्य में मन की मृत्यु हो जाती है।
घड़ी के पेंडुलम को देखो। अगर तुम्हारे पास कोई पुरानी घड़ी हो तो उसके पेंडुलम को देखो। पेंडुलम सारा दिन चलता रह सकता है यदि वह अतियों तक आता—जाता रहे। जब वह बाएं जाता है तब दाएं जाने के लिए शक्ति अर्जित करता है। जब वह दाएं जा रहा है तो मत सोचो कि वह दाएं जा रहा है, वह बाएं जाने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहा है। अतियां ही दाएं—बाएं हैं। पेंडुलम को बीच में ठहरने दो और सब गति बंद हो जाएगी। तब पेंडुलम में ऊर्जा नहीं रहेगी, क्योंकि ऊर्जा तो एक अति से आ रही है। एक अति उसे दूसरी अति की ओर फेंकती है, उससे एक वर्तुल बनता है और पेंडुलम गतिमान होता है। उसको बीच में होने दो और तब सब गति ठहर जाएगी।
मन पेंडुलम की भांति है। और अगर तुम इसका निरीक्षण करो तो रोज ही इसका पता चलेगा। तुम एक अति के पक्ष में निर्णय लेते हो और तब तुम दूसरी अति की ओर जाने लगते हो। तुम अभी क्रोध करते हो, फिर पश्चात्ताप करते हो। तुम कहते हो, नहीं, बहुत हुआ, अब मैं कभी क्रोध न करूंगा। लेकिन तुम कभी अति को नहीं देखते।
यह ‘कभी नहीं’ अति है। तुम कैसे निश्चित हो सकते हो कि तुम कभी नहीं क्रोध करोगे? तुम कह क्या रहे हो? एक बार और सोचो। कभी नहीं? अतीत में जाओ और याद करो कि कितनी दफे तुमने निश्चय किया कि मैं कभी नहीं क्रोध करूंगा। जब तुम कहते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करूंगा तो तुम नहीं जानते हो कि क्रोध करते समय ही तुमने दूसरे छोर पर जाने की ऊर्जा इकट्ठी कर ली थी। अब तुम पश्चात्ताप कर रहे हो। अब तुम्हें बुरा लग रहा है। तुम्हारी आत्म—छवि हिल गई है, गिर गई है। अब तुम नहीं कह सकते कि मैं अच्छा आदमी हूं धार्मिक आदमी हूं। मैंने क्रोध किया और धार्मिक व्यक्ति क्रोध नहीं करता है। अच्छा आदमी क्रोध कैसे करेगा?
तो तुम अपनी अच्छाई को वापस पाने के लिए पश्चात्ताप करते हो। कम से कम अपनी नजर में तुम्हें लगेगा कि मैंने पश्चात्ताप कर लिया, चैन हो गया और अब फिर क्रोध नहीं होगा। इससे तुम्हारी हिली हुई आत्म—छवि पुरानी अवस्था में लौट आएगी। अब तुम चैन महसूस करोगे। क्योंकि अब तुम दूसरी अति पर चले गए।
लेकिन जो मन कहता है कि अब मैं फिर कभी क्रोध नहीं करूंगा, वह फिर क्रोध करेगा। अब जब तुम फिर क्रोध में होगे तो तुम अपने पश्चात्ताप को, अपने निर्णय को, सब
को बिलकुल भूल जाओगे। और क्रोध के बाद फिर वह निर्णय लौटेगा। और पश्चात्ताप वापस आएगा और तुम कभी उसके धोखे को नहीं समझ पाओगे। ऐसा सदा हुआ है। मन क्रोध से पश्चात्ताप और पश्चात्ताप से क्रोध के बीच डोलता रहता है।
बीच में रहो। न क्रोध करो, न पश्चात्ताप। और अगर क्रोध कर गए तो कृपा कर क्रोध ही करो, पश्चात्ताप मत करो। दूसरी अति पर मत जाओ। बीच में रहो। कहो कि मैंने के केंद्र और किया, मैं बुरा आदमी हूं हिंसक हूं। मैं ऐसा ही हूं। लेकिन पश्चात्ताप मत करो, दूसरी अति पर मत जाओ। मध्य में रहो। अगर तुम मध्य में रह सके तो फिर तुम क्रोध करने के लिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं कर पाओगे।
इसलिए यह सूत्र कहता है : ‘मन को भूलकर मध्य में रहो—जब तक।’
इस ‘जब तक’ का क्या मतलब है? मतलब यह है कि जब तक तुम्हारा विस्फोट न हो जाए। मतलब यह है कि तब तक मध्य में रहो जब तक मन की मृत्यु न हो जाए। तब तक मध्य में रहो जब तक मन अ—मन न हो जाए। अगर मन अति पर है तो अ—मन मध्य में होगा।
लेकिन मध्य में होना संसार में सबसे कठिन काम है। दिखता तो सरल है, दिखता तो यह आसान है। तुम्हें लगेगा कि मैं कर सकता हूं। और तुम्हें यह सोचकर लगेगा कि पश्चात्ताप की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन प्रयोग करो। और तब तुम्हें पता चलेगा कि जब तुम क्रोध करोगे तो मन पश्चात्ताप करने पर जोर देगा।
पति—पत्नियों का झगड़ा सदा से चलता आया है। और सदियों से महापुरुष और सलाहकार समझा रहे हैं कि कैसे रहें और प्रेम करें, और यह झगड़ा जारी है। पहली दफा फ्रायड को इस तथ्य का बोध हुआ कि जब भी तुम प्रेम, तथाकथित प्रेम में होओगे, तुम्हें घृणा में भी होना पड़ेगा। सुबह प्रेम करोगे और शाम घृणा करोगे। और इस तरह पेंडुलम हिलता रहेगा। प्रत्येक पति—पत्नी को इसका पता है। लेकिन फ्रायड की अंतर्दृष्टि बड़ी अदभुत है, वह कहता है कि अगर किसी दंपति ने झगड़ा बंद कर दिया है तो समझो कि उनका प्रेम मर गया। घृणा और लड़ाई के साथ जो प्रेम है, वह मर गया।
इसलिए अगर किसी जोड़े को तुम देखो कि वह कभी लड़ता नहीं है तो यह मत समझो कि यह आदर्श जोड़ा है। उसका इतना ही अर्थ है कि यह जोड़ा ही नहीं है। वे समांतर रह रहे हैं, लेकिन साथ—साथ नहीं रहते हैं। वे समांतर रेखाएं हैं जो कहीं नहीं मिलतीं, लड़ने के लिए भी नहीं। वे दोनों साथ रहकर भी अकेले—अकेले हैं—अकेले—अकेले और समांतर।
मन विपरीत पर गति करता है। इसलिए अब मनोविज्ञान के पास दंपतियों के लिए बेहतर निदान है—बेहतर और गहरा। वह कहता है कि अगर तुम सचमुच प्रेम—इसी मन के साथ—करना चाहते हो तो लड़ने—झगड़ने से मत डरो। सच तो यह है कि तुम्हें प्रामाणिक ढंग से लड़ना चाहिए, ताकि तुम प्रामाणिक प्रेम के दूसरे छोर को प्राप्त कर सको। इसलिए अगर तुम अपनी पत्नी से लड़ रहे हो तो लड़ने से चूको मत, अन्यथा प्रेम से भी चूक जाओगे। झगड़े से बचो मत, उसका मौका आए तो अंत तक लड़ो, तभी संध्या आते—आते तुम फिर प्रेम करने योग्य हो जाओगे, मन तब तक शक्ति जुटा लेगा।
सामान्य प्रेम संघर्ष के बिना नहीं जी सकता, क्योंकि उसमें मन की गति संलग्न है। सिर्फ वही प्रेम संघर्ष के बिना जीएगा जो कि मन का नहीं है। लेकिन वह बात ही और है। बुद्ध का प्रेम ही बात।’’
लेकिन अगर बुद्ध तुम्हें प्रेम करें तो तुम बहुत अच्छा नहीं महसूस करोगे। क्यों?
क्योंकि उसमें कुछ दोष नहीं रहेगा। वह मीठा ही मीठा होगा और उबाऊ होगा, क्योंकि दोष तो झगड़े से आता। बुद्ध क्रोध नहीं कर सकते, वे केवल प्रेम कर सकते है। तुम्हें उनका प्रेम पता नहीं चलेगा, क्योंकि पता तो विरोध में, विपरीतता में चलता है।
जब बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने नगर वापस आए तो उनकी पत्नी उनके स्वागत को नहीं आई। सारा नगर उनके स्वागत के लिए इकट्ठा हो गया, लेकिन उनकी पत्नी नहीं आई। बुद्ध हंसे और उन्होंने अपने मुख्य शिष्य आनंद से कहा कि यशोधरा नहीं आई, मैं उसे भलीभांति जानता हूं। ऐसा लगता है कि वह मुझे अभी भी प्रेम करती है। वह मानिनी है, वह आहत अनुभव करती है। मैं तो सोचता था कि बारह वर्ष लंबा समय है, वह अब प्रेम में न होगी। लेकिन मालूम होता है कि वह अब भी प्रेम में है, अब भी क्रोध में है। वह मुझे लेने नहीं आई, मुझे ही उसके पास जाना होगा।
और बुद्ध गए। आनंद भी उनके साथ था। आनंद को एक वचन दिया हुआ था। जब आनंद ने दीक्षा ली थी तो उसने एक शर्त रखी—और बुद्ध ने मान ली—कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा। वह बुद्ध का बड़ा चचेरा भाई था, इसलिए उन्हें मानना पड़ा था। सो आनंद राजमहल तक उनके साथ गया। वहां बुद्ध ने उससे कहा कि कम से कम यहां तुम मेरे साथ मत चलो, क्योंकि यशोधरा बहुत नाराज होगी। मै बारह वर्षों के बाद लौट रहा हूं। और उसे खबर किए बिना मैं यहां से भाग निकला था, वह अब भी नाराज है, तो तुम मेरे साथ मत आओ। अन्यथा वह समझेगी कि मैंने उसे कुछ कहने का भी अवसर नहीं दिया। वह बहुत कुछ कहना चाह रही होगी। तो उसे क्रोध कर लेने दो, मेरे साथ मत आओ।
बुद्ध भीतर गए। यशोधरा ज्वालामुखी बनी बैठी थी, वह फूट पड़ी। वह रोने—चिल्लाने लगी, बकने लगी। बुद्ध चुपचाप बैठे सुनते रहे। धीरे—धीरे वह शात हुई और तब वह समझी कि उस बीच बुद्ध एक शब्द भी नहीं बोले हैं। उसने अपनी आंखें पोंछीं और बुद्ध की ओर देखा। बुद्ध ने कहा कि मैं यह कहने आया हूं कि मुझे कुछ मिला है, मैंने कुछ जाना है, मैंने कुछ उपलब्ध किया है। अगर तुम शात होओ तो मैं तुम्हें वह संदेश, वह सत्य दूं जो मुझे उपलब्ध हुआ है। मैं इतनी देर इसलिए रुका रहा कि तुम्हारा रेचन हो जाए। बारह साल लंबा समय है। तुमने बहुत घाव इकट्ठे किए होंगे। और तुम्हारा क्रोध समझने योग्य है। मुझे इसकी प्रतीक्षा थी। उसका अर्थ है कि तुम अब भी मुझे प्रेम करती हो। लेकिन इस प्रेम के पार भी एक प्रेम है, और उसी प्रेम के कारण मैं तुम्हें कुछ कहने वापस आया हूं।
लेकिन यशोधरा उस प्रेम को नहीं समझ सकी। इसे समझना कठिन है, क्योंकि यह इतना शात है। यह प्रेम इतना शांत है कि अनुपस्थित सा लगता है।
जब मन विसर्जित होता है तो एक और ही प्रेम घटित होता है। लेकिन उस प्रेम का कोई विपरीत पक्ष नहीं है, विरोधी पक्ष नहीं है। जब मन विसर्जित होता है तब जो भी घटित होता है उसका विपरीत पक्ष नहीं रहता। मन के साथ सदा उसका विपरीत खड़ा रहता है, और मन एक पेंडुलम की भांति गति करता है।

No comments:

Post a Comment