Friday 2 October 2015

बुद्ध ने संघं शरणं गच्छामि क्यों कहा? कृपाकर हमें इसका अभिप्राय समझाएं।
समर्पण अनिवार्य है। फिर चाहे मार्ग भक्ति का हो,चाहे ध्यान का। फर्क ही पड़ेगा कि भक्ति के मार्ग पर समर्पण पहले है, पहले चरण में, और ध्यान के मार्ग पर समर्पण है अंतिम चरण में।
भक्ति कहती है, अहंकार को छोड्कर ही मंदिर में प्रवेश करो। क्योंकि जिसे छोड़ना ही है, उसे इतने दूर भी क्यों साथ ढोना? छोड़ ही दो। भक्ति पहले ही क्षण में अहंकार को गिरा देती है। भक्ति को सुविधा है, क्योंकि भगवान की धारणा है। ध्यानी को वैसी सुविधा नहीं है। ध्यानी चलता है बिना किसी धारणा के। तो अहंकार बचा रहेगा। किसके चरणों में रखें अहंकार को? ध्यानी तो अनुभव के बाद ही, गहरे अनुभव में उतरकर ही, आखिरी घड़ी में, जब कुछ और शेष न रह जाएगा, सिर्फ सूक्ष्म अहंकार मात्र शेष रह जाएगा, वही पर्दा रहेगा। बहुत झीना पर्दा, इतना झीना, इतना पारदर्शी कि बहुतो को तो लगेगा कि यह पर्दा है ही नहीं। जैसे शुद्ध कांच। जब तक तुम पास ही न आ जाओगे, तुम्हें लगेगा कोई पर्दा है ही नहीं बीच में। सब साफ दिखायी पड रहा है। लेकिन जब तुम पास आओगे, तब टकराओगे। उस घड़ी में अहंकार को छोड़ना पड़ता है। अंतिम घड़ी में।
तो ध्यान—मार्ग भी अंततः कैसे तुम अहंकार को छोड़ोगे उसके लिए व्यवस्था जुटाता है। जुटानी ही पड़ेगी। यह बुद्ध ‘की व्यवस्था है कि उन्होंने त्रि—शरण कहे। बुद्ध इन्हें त्रि—रत्न कहते हैं। हैं भी ये रत्न। इनसे बहुमूल्य और कुछ भी नहीं, क्योंकि इन्हीं को खोकर हमने सब खोया है। और इन्हीं को पाकर हम सब पा लेंगे।
ये हैं तीन रत्न—
बुद्धं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि।
और इनके पीछे एक तर्कसरणी है। समझो।
पहले तो बुद्ध के प्रति। बुद्ध का अर्थ गौतम बुद्ध नहीं है। इस भ्रांति में मत पड़ना। बुद्ध का अथई है, बुद्धत्व।
एक बार बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप तो कहते हैं कि किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं है और लोग आपके सामने ही आकर कहते है—बुद्धं शरणं गच्छामि? आप चुप रहते हैं। चुप्पी से तो समर्थन मिलता है। यह तो मौन समर्थन हो गया। आपको इकार करना चाहिए।
तो गौतम बुद्ध ने कहा, वे मेरी शरण जाते हों तो मैं इंकार करूं, और मेरी शरण तो जाएंगे भी कैसे? क्योंकि मैं तो बचा भी नहीं। वे बुद्धत्व की शरण जाते हैं। जौ बुद्ध हुए हैं अतीत में, जो बुद्ध आज हैं, और जो बुद्ध कभी होंगे, उन सभी के सारभूत तत्व का नाम बुद्धत्व है। जो कभी जागे और कभी जागेंगे और जाग रहे हैं, उस जागरण का नाम बुद्धत्व है।
तो पूछने वाले ने पूछा, फिर आपके ही चरणों में आकर क्यों कहते हैं? कही भी कह दें। तो उन्होंने कहा, वह उनसे पूछो, वह उनकी समस्या है। उन्हें सब जगह दिखायी नहीं पड़ता, उन्हें मुझमें दिखायी पड़ता है। चलो, यहीं से शुरुआत सही, कहीं से तो शुरुआत हो! झुकना कहीं तो सीखें। आज मुझमें दिखा है, कल और में भी दिखेगा, परसों और में भी दिखेगा, फिर उनकी दृष्टि बड़ी होती जाएगी। एक दफा दिख जाए हीरा, तो फिर तुम्हें बहुत जगह दिखायी पड़ेगा। और एक बार हीरे की ठीक—ठीक परख आ जाए, तो फिर जौहरी की दुकान पर जो साफ—सुथरे, निखरे हीरे रखे हैं, उनमें ही नहीं, खदानों में भी जो हीरे पड़े हैं, जो अभी साफ—सुथरे नहीं हैं, उनमें भी हीरा दिखायी पड़ जाएगा। परख उग्र जाए।
तो बुद्ध में और साधारण व्यक्ति में इतना ही फर्क है कि साधारण व्यक्ति ऐसा हीरा है जो अभी खदान में पड़ा है, और बुद्ध ऐसे हीरे हैं जिसको साफ—सुथरा किया गया, तराशा गया, जिस पर चमक आ गयी है। बुद्ध ने अपने हीरे के साथ जो करना था कर लिया, तुमने अपने हीरे के साथ जो करना था अभी नहीं किया। लेकिन जिसको हीरा पहचान में आ गया, उसे तो तुममें भी हीरा दिखायी पड़ जाएगा।
तो बुद्ध ने कहा, अगर मुझमें उन्हें दिखायी पड़ती है बुद्धत्व की झलक, चलो, यही ठीक! आज यहां दिखायी पड़ती है, कल और भी कहीं दिखायी पड़ेगी, फिर दिखायी पड़ती जाएगी। फिर सब तरफ दिखायी पड़ने लगेगी।
तो पहला चरण है, एक के प्रति समर्पण। क्योंकि वहां से, उस झरोखे से तुम्हें सूरज दिखायी पड़ा। खयाल रखना, जब तुम किसी झरोखे के पास खड़े होकर सूर्य को नमस्कार करते हो तो तुम झरोखे को नमस्कार नहीं कर रहे हो। हालांकि चाहे तुम्हें पहले ऐसा ही लगता हो कि इस झरोखे की बड़ी कृपा—इसी से तो सूरज दिखायी पड़ा न! नहीं तो अंधेरे में ही रहते—तो चाहे तुम झरोखे को धन्यवाद भी दो, लेकिन झरोखे के माध्यम से तुम धन्यवाद तो सूरज को ही दे रहे हो। झरोखे ने तो कुछ किया नहीं, सिर्फ द्वार दिया, बाधा नहीं बना। बुद्ध का इतना ही अर्थ है —जिसके भीतर सब बाधा गिर गयी है, तुम आर—पार देख सकते हो।
तो पहली समर्पण की भावना है—बुद्धं शरणं गच्छामि।
दूसरी समर्पण की धारणा है—संघं शरणं गच्छामि। संघं का अर्थ होता है, उन सबको जो जागे हैं। उन सबको जो जाग रहे हैं। उन सबको जो जागने के करीब आ रहे। उन सबको जो करवट ले रहे। उन सबको जिनके सपने में जागरण की पहली किरण पड गयी है। जिनकी नींद में खलल पड़ गयी है। तो संघ का स्थूल प्रतीक तो यह है कि जिन लोगों ने बुद्ध से दीक्षा ले ली है, उन समस्त संन्यासियों की मैं शरण जाता हूं। लेकिन इसका मूल अर्थ तो यही हुआ न कि जिन्होंने स्रोत में प्रवेश कर लिया, जो स्रोतापन्न फल को प्राप्त हो गए। जिन्होंने संन्यास लिया है।
संन्यास तो अभीप्सा है, खबर है कि मैं अब अपने जीवन की धारा बदलता हूं। अब नहीं धन होगा मूल्यवान मेरे लिए। अब होगा ध्यान मूल्यवान मेरे लिए। अब नहीं खोजूंगा स्थूल को, सूक्ष्म की यात्रा पर जाता हूं। जिसको मृत्यु मिटा देती है, अब उस पर मेरी आंख खराब नहीं करूंगा, अब अमृत की खोज में जाता हूं। अंधेरे से प्रकाश की तरफ, मृत्यु से अमृत की तरफ, असत्य से सत्य की तरफ, ऐसी जो प्रार्थना है वही तो संन्यास है। असतो मा सदगमय।
संघ का अर्थ है, वे सब जो स्रोत—आपन्न हो गए। वे सब, जिन्होंने निर्णय लिया है सत्य की खोज का। जो सत्य के अन्वेषण पर निकल गए हैं। उनकी शरण जाता हूं। थोड़ी दृष्टि बड़ी हुई, अब बुद्ध ही काफी नहीं। बुद्ध में तो दिखता ही है, लेकिन अब उनमें भी दिखायी पड़ने लगा जो बुद्ध के पास बैठे हैं।
होना भी यही चाहिए। जब बुद्ध के पास रहोगे तो उनकी सुगंध पकड़ेगी न तुम्हें। इस बगीचे से घूमकर निकलोगे, घर जाकर पहुंच जाओगे अपनी पुरानी गंदगी में, तो भी तुम पाओगे वस्त्रों में थोड़ी सी फूलों की गंध साथ चली आयी है। बुद्ध के पास बैठोगे —उठोगे, तो उनका स्वाद लगेगा, उनकी बूंदें तुम पर बरसेंगी, उनका स्पर्श तुम्हें होगा। जो हवा उन्हें छुएगी, वही हवा तुम्हें भी छुएगी। बुद्ध के पास उठोगे——बैठोगे, उनका रंग लगेगा, उनका ढंग लगेगा। बुद्ध के पास उठोगे —बैठोगे, तो बुद्धत्व संक्रामक है। याद रखना, बीमारी ही थोडे ही लगती है, स्वास्थ्य भी लग जाता है। पागलपन ही थोड़े ही लगता है; पागलों के साथ रहोगे, पागल हो जाओगे, मुक्तों के साथ रहोगे तो मुक्त हो जाओगे—होने लगोगे।
तो अब दृष्टि थोड़ी बड़ी हुई। अब बुद्ध ही नहीं दिखायी पड़ते, अब बुद्ध में वे सब दिखायी पड़ने लगे जो उनके आसपास हैं। जो सब बुद्ध की तरफ उन्‍मुख हैं। दूर है अभी मंजिल उनकी, चल पड़े हैं। बुद्ध पहुंच गए गंगासागर, गंगा गिर गयी सागर में, लेकिन गंगा में जो और लहरें चली जा रही हैं सागर की तरफ भागती हुई, वे भी पहुंच ही जाएंगी, पहुंचने को ही हैं, आज नहीं कल की ही बात है, समय का ही भेद है। पहले नमस्कार किया वृक्ष को, फिर नमस्कार किया बीज को, क्योंकि बीज भी वृक्ष तो हो ही जाएगा। देर— अबेर के लिए नमस्कार रोकोगे क्या! सिर्फ समय के कारण नमस्कार को रोकोगे क्या!
और जब एक बार नमस्कार करने का मजा आ जाता है, जब बुद्ध के चरणों में सिर रखने का मजा आ गया, तो मन करेगा जितने चरणों में सिर रखा जा सके, रखो। जब एक बार इतना मजा आया है और एक के पास इतना मजा आया है, काश, तुम्हारा सिर सभी के चरणों में लोटने लगे तो आनंद की धार बह उठेगी।
इसलिए, संघं शरणं गच्छामि।
और भी एक कदम आगे बात उठती है, क्योंकि संघ की शरण जाने का अर्थ हुआ, जो सत्य की खोज कर रहे हैं उनकी शरण जाता हूं। बुद्ध की शरण जाने का अर्थ हुआ, जिसने सत्य पा लिया है उसकी शरण जाता हूं। और धम्मं शरणं गच्छामि का अर्थ होता है, बुद्ध की शरण भी तो इसीलिए गए न कि उन्होंने सत्य को पा लिया, और संघ की शरण भी इसीलिए गए न कि वे सत्य की खोज में जा रहे हैं, तो सत्य की ही शरण जा रहे हो, चाहे बुद्ध की शरण जाओ, चाहे संघ की शरण जाओ। इसलिए, धम्मं शरणं गच्छामि।
धम्म का अर्थ होता है सत्य। जो परम सत्य है, वही धर्म है। इसलिए अंतिम रूप में आखिरी शरण है—धर्म की शरण जाता हूं; उस परम नियम की शरण जाता हूं जो संसार को चला रहा है; उस ऋत की शरण जाता हूं, ताओ की शरण जाता हूं, जो संसार को धारे हुए है। धर्म का अर्थ, जिसने संसार को धारण किया है। जिस पर सब खेल चल रहा है, उस परम में डूबता हूं।
बौद्ध उसे भगवान नहीं कहते, क्योंकि भक्त की वह भाषा नहीं है, वे उसे कहते हैं, धर्म। वह ज्ञानी की भाषा है, ध्यानी की भाषा है। वे कहते हैं, नियम, परम नियम, शाश्वत नियम। भक्त इसी को भगवान कहता है, फर्क कुछ भी नहीं है। भक्त कहता है, भगवान ने सबको धारा हुआ है। और ज्ञानी कहता है, धर्म ने सबको धारा हुआ है। शब्दों का भेद है। भक्त धर्म को रूप दे देता है, तो भगवान। प्रतिमा बना लेता है, तो भगवान। इतनी प्रतिमा नहीं बनाता, नियम को शुद्ध नियम रहने देता है। रूप नहीं देता, व्याख्या नहीं देता।
तो तीसरा रत्न है—धम्मं शरणं गच्छामि। तीसरी शरण में जाकर तुम समस्त की शरण में चले गए—सार्वभौम है धर्म। पहले बुद्ध की शरण में गए, वह एक; फिर संघ की शरण में गए, अनेक, फिर धर्म की शरण में गए, सर्व। सार्वभौम। विसर्जन पूरा हो गया। इसके पार विसर्जन करने को कुछ है नहीं। तुम उससे एक हो गए, जो है।
ऐसे ये तीन रत्न हैं। इनके संबंध में कुछ और बातें भी समझ लेनी चाहिए। पहली बात, बुद्ध की शरण जाना सबसे सरल है। ऐसा रोज यहां होता है। कोई आकर मुझसे कहता है कि हमने समर्पण आपको किया है, हम लक्ष्मी की क्यों मानें? तो मैं उनसे कहता हूं मुझे समर्पण करना सरल है। तुम लक्ष्मी को समर्पण करोगे तो और रस आएगा, और गहरा रस आएगा। मुझे समर्पण करना तो बहुत सुगम है। क्योंकि तुम मेरे इतने प्रेम में हो। तुम मेरे रस में ऐसे डूबे हो।
कोई भोजनालय में काम करता है, दीक्षा से उसकी नहीं बनती, तो मैं उससे कहता हूं, जाकर दीक्षा को समर्पण कर दो। वह कहता है, दीक्षा को! आपकी शरण में हम आए हैं, दीक्षा की शरण में नहीं। मैं उनसे कहता हूं, तो मैं ही तो तुमसे कह रहा न! तुम मेरी शरण आ गए, अब गए हाथ से, अब मैं कहता हूं तुम जाओ दीक्षा के शरण में, तो मेरी मानोगे या नहीं? कहते हैं, मानेंगे तो जरूर लेकिन दीक्षा की शरण! दीक्षा तो हमारे ही जैसी है! कठिन हो गया दीक्षा की शरण जाना। लेकिन मैं कहता हूं, जाओ।
मेरी शरण आना तो बहुत सरल है, क्योंकि तुम मेरे लगाव में पड़े हो, तुम मेरे प्रेम में पड़े हो, तुम दीवाने हो, तो झुक गए। दीक्षा से तुम्हारा कोई ऐसा लगाव नहीं, ऐसा कोई दीवानापन नहीं, दीक्षा तो लगती ठीक तुम जैसी है, लेकिन अर्थ समझना। जब तक तुम तुम जैसों के शरण में नहीं जाओगे, तब तक तुमने अभी तक अपने को समझा ही नहीं। क्योंकि जो तुम जैसा है, वह तुम्हें आदर योग्य नहीं मालूम होता, इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि तुम स्वयं ही अभी अपनी आंखों में आदर योग्य नहीं हो। जब तुम कहते हो कि अपने ही जैसे की शरण जाएं, तो तुम क्या कह रहे हो, तुमने शायद सोचा नहीं। तुम यह कह रहे हो कि मैं तो निंदित, पापी, अपराधी, और मेरे ही जैसे किसी की शरण जाऊं! तो तुम्हारे मन में बड़ी आत्मग्लानि है। तुम्हारे मन में बडा आत्म—तिरस्कार है। अपमान है अपना।
और जिसके मन में अपने प्रति अपमान है, वह कैसे आत्मवान हो सकेगा’? जो अपनी निंदा कर रहा है, जो अभी अपना सम्मान भी नहीं सीख सका, वह अपने भीतर कैसे प्रवेश कर सकेगा? जो अभी अपने को प्रेम भी नहीं कर सकता, वह किसको प्रेम कर सकेगा? कहने वाला तो यही कह रहा है कि शायद वह दीक्षा का असम्मान कर रहा है यह कहकर कि वह तो मेरे ही जैसी है, उसकी क्या शरण जाना!
लेकिन वह अपना ही अपमान कर रहा है। वह घोषणा कर रहा है कि मैं दो कौड़ी का, और दीक्षा मेरे जैसी, तो मैं कैसे शरण जाऊं?
जिस दिन तुम अपने ही जैसों की शरण जाने लगोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में आत्म—गौरव आएगा। यह बात तुम्हें बड़ी विरोधाभासी लगेगी कि जिस दिन व्यक्ति समस्त के चरणों में झुक जाता है, उस दिन वह आत्म—गौरव को उपलब्ध हो गया। उसने कहा कि निम्नतम के भी शरण में मैं झुक जाता हूं पत्थर के शरण झुक जाता हूं क्योंकि अस्तित्व महिमावान है, निम्न यहां कोई हो ही कैसे सकता है! उस दिन उसे अपने भीतर की गरिमा का बोध होगा।
तो बुद्ध की शरण जाना तो बड़ा सरल है। सरल से शुरू करो मगर सरल पर अटके मत रह जाना। इसलिए संघं शरणं गच्छामि। संघ का मतलब, दीक्षा, लक्ष्मी, मैत्रेय, इनकी शरण जाओ, कभी—कभी अपनी ही शरण. जाओ, कभी—कभी अपने ही पैर छू लो। क्योंकि तुम्हारे भीतर भी परमात्मा विराजमान है। लगेगा पागलपन, पहले तो दूसरे के पैर छूने में बड़ा पागलपन लगता है, फिर अपने पैर छूने में तो निश्चित ही पागलपन लगेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, कभी—कभी अपने भी पैर छुओ। तुम्हारे भीतर भी परमात्मा ही विराजमान है—उतना ही जितना मेरे भीतर, उतना ही जितना बुद्ध के भीतर, उतना ही जितना महावीर के भीतर।
ऐसा हुआ एक बार, रामकृष्ण की किसी ने तस्वीर उतारी। वह तस्वीर लेकर आया तो रामकृष्ण ने झुककर उस तस्वीर के चरण छुए। खुद की तस्वीर! शिष्य जरा बेचैन हुए, उन्होंने कहा कि लोग पागल तो समझते ही हैं इन्हें, अब और बिलकुल पागल समझेंगे, यह हद्द हो गयी। किसी ने जरा टेहुनी मारी कि परमहंसदेव, क्या कर रहे? खबर हो गयी लोगों को तो, लोग पागल मानते ही हैं, अब हद्द हो जाएगी कि अब अपनी ही तस्वीर के पैर छूने लगे। तो उन्होंने कहा कि मेरी तस्वीर! मेरी तस्वीर तो हो कैसे सकती है! क्योंकि मैं तो देह नहीं हूं। लेकिन यह जो तस्वीर है, बड़ी समाधि की है। जिसकी भी ली गयी हो यह तस्वीर, यह आदमी बड़ी समाधि में रहा होगा! तो मैं तो समाधि को झुक रहा हूं। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं ही समाधि में था कि कोई और समाधि में था। समाधि में कहां मैं, कहां तू? समाधि तो समाधि है।
कभी अपने पैर भी छूना, और तुम अपूर्व पुलक का अनुभव करोगे। कभी अपने जैसों के भी पैर छूना। अपने से बड़ों के पैर छूने में तो अहंकार गिरता नहीं। कैसे गिरेगा? जिसको तुम अपने से बड़ा मानते हो, उसके पैर छूने में कैसे अहंकार गिरेगा? जिसको तुम अपने जैसा मानते हो, या अपने से छोटा मानते हो, उसके पैर छूने में अहंकार गिरेगा।
मगर स्वाभाविक है, पहले तो यात्रा वहां से करनी होती है जो सुगम हो। इसलिए बुद्धं शरणं गच्छामि। पहले अपने से विराट के चरण छू लो। फिर संघं शरणं गच्छामि। फिर संघ में तो सब तरह के लोग होंगे, कोई तुम जैसा होगा, कोई तुमसे अच्छा होगा, कोई तुमसे गया—बीता होगा। संघ की शरण जाने का अर्थ है, अब मैं हिसाब नहीं रखता कि कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन ऊपर, कौन नीचे, अब तो जो भी सत्य की खोज कर रहे हैं, सब की शरण जाता हूं।
और तीसरा, धम्मं शरणं। लेकिन संघ की शरण में भी सीमा है। अगर बुद्ध के मानने वाले बौद्ध भिक्षुओं की शरण जाते हैं, तो वे जैन भिक्षुओं की शरण तो न जाएंगे, हिंदू संन्यासियों की शरण तो न जाएंगे, मुसलमान फकीरों की शरण तो न जाएंगे, ईसाइयों की शरण तो न जाएंगे। सीमा है। और जहा सीमा है, वहा अभी हम परमात्मा से दूर हैं। इसलिए आखिरी कदम उठाया जाता है, सीमा तोड़ दी जाती है —धम्मं शरणं गच्छामि। अब कौन हिंदू कौन मुसलमान, कौन ईसाई, कौन सिख, कौन जैन, कुछ भेद न रहा। हिंदू मुसलमान, ईसाई की तो बात ही छोड़ो; पौधे, पशु, पक्षी, पत्थर, पहाड़, चांद—तारे, सबके भीतर जो एक ही सत्य समाया हुआ है, हम उसकी शरण जाते हैं।
ऐसे ये त्रि—रत्‍न हैं। ये बड़े बहुमूल्य हैं। इनका अर्थ समझोगे, तो इनके द्वारा कुंजी मिल सकती है।

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