Tuesday 13 October 2015

जीवन में व्रत का क्या मूल्य है?
व्रत का मूल्य तो जरा भी नहीं, बोध का मूल्य है। व्रत का तो अर्थ ही होता है, बोध की कमी है। उसकी परिपूर्ति तुमने व्रत से कर ली।
तुमने देखा, झूठे आदमी ज्यादा कसमें खाते हैं। हर बात में कसम खाने को तैयार रहते हैं। झूठा आदमी कसम के सहारे चलता है। वह अपनी झूठ को कसम के सहारे सच बताना चाहता है।
पश्चिम में ईसाइयों का एक छोटा सा रहस्यवादी संप्रदाय है, क्येकर। वे अदालत में भी कसम खाने को राजी नहीं होते। सैकड़ों बार तो उनको इसीलिए सजा भोगनी पड़ी है, क्योंकि अदालत में वह कसम खानी ही पडेगी बाइबिल हाथ में लेकर कि मैं सच बोलूंगा। लेकिन क्वेकर्स का कहना भी बड़ा सही है, वे कहते हैं कि मैं सच बोलूंगा, यह भी कोई कसम खाने की बात है! और अगर मैं झूठ बोलने वाला हूं तो कसम भी झूठी खा लूंगा। यह बात ही फिजूल है, यह बात ही मूढ़तापूर्ण है। एक झूठे आदमी से कहो कि यह हाथ में लेकर कुरान या बाइबिल या गीता कसम खा लो कि सच बोलोगे। अब अगर वह आदमी सच में झूठा है, तो वह कसम खा लेगा कि लाओ, कसम खा लेता हूं। झूठ बोलने वाले आदमी को झूठी कसम खाने में कौन सी बाधा है! और सच बोलने वाला आदमी जरूर कहेगा कि मैं कसम क्यों खाऊं, क्योंकि मैं जो बोलता हूं वह सच ही है। कसम खाने का तो मतलब होगा कि बिना कसम खाए जो बोलता हूं वह झूठ है।
इसलिए क्येकर कसम नहीं खाते। वे कहते हैं, कसम खाने का तो मतलब ही यह हुआ कि बिना कसम खायी गयी बात झूठ है। हम सच ही बोलते हैं, कसम और गैर—कसम का कोई सवाल नहीं है!
व्रत का अर्थ होता है, कसम। व्रत का अर्थ होता है, समाज के सामने कसम। तुम गए मंदिर में, साधु—संन्यासी के पास, मुनि महाराज के पास, समाज की भीड़ में तुमने कसम खा ली। यह कसम तुम भीड़ में खाते हो। क्यों? क्योंकि तुम्हें अपने पर तो भरोसा नहीं है। तुम जानते तो हो कि अगर सबके सामने कसम खा ली कि अब धूम्रपान न करेंगे, तो अब प्रतिष्ठा का सवाल हो गया। अब अगर समाज में कहीं कोई धूम्रपान करता हुआ पकड़ लेगा, तो बेइज्जती होगी। तो तुमने धूम्रपान के खिलाफ अहंकार को खड़ा कर दिया। कसम का क्या मतलब है?
कसम का मतलब यह हुआ कि अब अहंकार को चोट लगेगी। लोग कहेंगे, अरे, तुमने तो कसम खा ली थी धूम्रपान न करने की, अब कर रहे हो! शर्म नहीं आती! मुनि महाराज के पास किस मुंह को लेकर जाओगे? मंदिर में कैसे प्रवेश करोगे? बाजार में कैसे निकलोगे? प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी। कसम का मतलब यह है कि अब सबसे कह दिए कि आज से मैं सिगरेट नहीं पीऊंगा, कि धूम्रपान नहीं करूंगा। अब सारे लोग तुम्हारे पहरेदार हो गए, यह मतलब है कसम का। अब जो भी देखेगा छोटे से लेकर बड़े तक, वह कहेगा, अरे भाई! क्या कर रहे हो! कल तक कोई भी नहीं कह सकता था, क्योंकि तुम अपने मालिक थे। तुमने मालकियत इनके हाथ में दे दी। कल तक हो सकता था पत्नी से बचाकर पी लेते थे, पिता से बचाकर पी लेते थे, अब तुमको सबसे बचाकर पीना होगा, यह बहुत कठिन मामला है! कहां पीओगे? कैसे बचाओगे?
कसम का अर्थ है, भीतर तो बोध नहीं है, भीतर से तो तुम धूम्रपान छोड़ना चाहते नहीं। अगर भीतर से छोड़ना चाहते तो किसी के गवाही की क्या जरूरत थी, छोड़ दिया होता, बात खतम हो गयी। तुम्हें समझ में आ गयी बात कि धूम्रपान व्यर्थ है, बात समाप्त हो गयी। उसी क्षण समाप्त हो गयी, बचा क्या छोड़ने को? धूम्रपान में छोड़ने जैसा है क्या? पहले तो पीने की मूढ़ता की, अब छोड़ने की मूढ़ता कर रहे हो। पहले पीकर सोचते थे कुछ बड़ा काम कर रहे हो.।
अक्सर ऐसा होता है। सिगरेट पीते वक्त लोग बड़े अकड़कर बैठ जाते हैं, जैसे कोई बड़ा काम कर रहे हैं। छोटे बच्चे भी जल्दी बड़े होना चाहते हैं कि बड़े हो जाएं तो सिगरेट पीए। छोटे बच्चे भी बैठकर सिगरेट पीना चाहते हैं, क्योंकि सिगरेट पीने के साथ बड़प्पन का भाव जुड़ा है। ऐसा लगता है, कुछ खास हो गए। मैं एक गांव में रहता था। सुबह घूमने गया था, तो देखा एक छोटा सा बच्चा एक दो आने की मूंछ लगाए सिगरेट पी रहा है, एक झाडू के नीचे। मुझे देखकर वह छिपने लगा। मैं उसके पीछे भागा तो वह अपने घर में घुस गया। मैं उसके पीछे उसके घर में गया। वह एक पोस्ट—मास्टर का लड़का था। वह घबड़ा गया। उसने जल्दी से अपनी मूंछ छिपा ली, सिगरेट फेंक दी, उसका बाप आया कि क्यों आप मेरे लड़के के पीछे लगे हैं! उसको क्यों डरा दिए? मैंने कहा, डरा मैंने नहीं दिया, मैं पूछने आया हूं उससे कुछ। आपका लड़का गजब का है, जरा उसे बाहर लाएं।
वह लड़का बाहर डरता हुआ आया। मैंने पूछा कि तू यह क्या कर रहा था? बस मुझे तेरे से सिर्फ पूछना है, तुझे यह नहीं कहना है कि तू गलत कर रहा है, तू कर क्या रहा था? यह मूंछ लगाकर सिगरेट पीना? तब मैंने गौर से उसके बाप का चेहरा देखा, वैसी मूंछ बाप की है। बाप भी थोड़ा शर्माया। उसने कहा, यह करता है। यह कभी—कभी करता है। यह एक दो आने की मूंछ खरीद लाया है और इसने बिलकुल काटकर मेरे जैसी बना ली है। और सिगरेट मेरी पी जाता है!
मगर जब बाप की अकड़ देखता होगा तो उसको भी होता होगा कि अकड़ जाएं। छोटे —छोटे बच्चे सिगरेट पीकर सिर्फ ऐसा काम कर रहे हैं जिसमें प्रतिष्ठा है। सिगरेट में कुछ प्रतिष्ठा है।
तो जब तुम पीते हो तब अकड़कर पीते थे, अब तुमने छोड़ दिया! एक तो काम ही मूढ़तापूर्ण था। मैं पाप नहीं कह रहा हूं, ध्यान रखना, मूढ़तापूर्ण। मैं सिगरेट पीने वाले को पापी नहीं कहता, क्योंकि पापी कहना तो बड़ा सम्मान हो गया कि बडा काम कर रहे हैं, चलो पाप ही सही, मगर कुछ कर तो रहे हैं! कुछ ऐसा काम कर रहे हैं कि परमात्मा को भी इनका हिसाब रखना पड़ेगा। पाप का मतलब होता है, उस ऊपर की खाते—बही में तुम्हारा नाम लिखा जाएगा कि फलां सज्जन सिगरेट पीते हैं, दिन में इतनी पीते हैं! कुछ विशेष कर रहे हैं। पाप तो विशिष्ट हो गया। मैं सिर्फ कहता हूं मूढ़ता। परमात्मा की खाते —बही में कहीं भी नहीं लिखा होगा कि तुमने कितनी सिगरेट पी हैं, कि नहीं पी हैं। कि कौन से मार्के की सिगरेट पीते थे! अगर परमात्मा ऐसा करता हो तो तुमसे भी गया—बीता है। ये भी कोई हिसाब रखने की बातें हैं! तुम मूढ़ता करो और परमात्मा हिसाब रखे!
नहीं, मैं सिर्फ कहता हूं मूढ़ता। एक तरह की मूर्च्छा। जिसको बुद्ध ने प्रमाद कहा है। एक तरह का प्रमाद। प्रमाद शब्द में मूर्च्छा और अहंकार, दोनों का भाव है। इसलिए तो हम अहंकारी को भी कहते हैं, बड़ा प्रमादी। मूर्च्‍छित को भी कहते हैं प्रमादी। प्रमाद शब्द बड़ा बहुमूल्य है, उसमें मूर्च्छा और अहंकार, दोनों का जोड़ है। मूर्च्छित अहंकार, या अहंकारी मूर्च्छा।
तो एक तो सिगरेट पीकर तुम प्रमाद कर रहे थे। उतने से तुम्हारा मन न माना, अब मंदिर में जाकर तुम छोड़ आए। तुम्हारे मुनि भी तुमसे गए—बीते हैं जो बड़े प्रसन्न होते हैं—तुमने धूम्रपान छोड़ दिया। जैसे दुनिया का बड़ा कल्याण हुआ जा रहा है। तुम करते ही कुल इतना थे कि धुआ भीतर ले जाते थे, बाहर निकालते थे। तुम्हारे धुआ बाहर— भीतर निकालने से न दुनिया का अकल्याण हो रहा था, न कल्याण हो जाएगा बंद कर देने से। धुआ बाहर— भीतर निकालने से क्या कल्याण— अकल्याण का संबंध! हौ, तुम इतना ही बता रहे थे कि तुम बुद्ध हो।
लेकिन, अब ये मुनि महाराज कहते हैं, तुमने बड़ा काम किया कि व्रत ले लिया, कसम खा ली। धन्यभागी हो तुम! तुम्हारे जीवन में पुण्य की शुरुआत हुई।
पहली तो बात धुआ पीना और बाहर निकालना पाप न था; फिर धुआ निकालना, ले जाना छोड़ना पुण्य नहीं हो सकता। तुमने भी पुण्य की कैसी बचकानी बातें बना रखी हैं। जो लोग सिगरेट नहीं पी रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि खाते—बही में बड़ा पुण्य लिखा जा रहा होगा कि देखो, यह आदमी सिगरेट नहीं पिता, यह आदमी पान नहीं खाता, यह आदमी तंबाकू नहीं खाता, यह आदमी यह नहीं करता, यह आदमी वह नहीं करता, तुम जरा सोचो तो तुम्हारे कितने पुण्य चल रहे हैं। जो—जो तुम नहीं करते, वह सब पुण्य है। तुम वेश्या के घर नहीं जाते, शराब नहीं पीते, पान नहीं खाते, सिगरेट नहीं पीते, ताश नहीं खेलते, पुण्य ही पुण्य कर रहे हो तुम! अब और क्या कमी है तुम्हारे जीवन में? महात्मा हो तुम! जरा देखो भी तो कि कितने पुण्य कर रहे हो! जो —जो तुम नहीं कर रहे हो, उसको गिन लो।
जिस दिन तुम सिगरेट पीना छोड़ देते हो, उस दिन तुमने कोई पुण्य किया? तुमने सिर्फ अपने पर थोड़ी अनुकंपा की जरूर, मगर पुण्य इत्यादि कुछ भी नहीं। तुम थोड़े समझदार हुए जरूर, मगर पुण्य इत्यादि कुछ भी नहीं।
कल हमने बुद्ध के भिक्षु की बात कही जो झाडू लगाया करता था। अब क्या तुम सोचते हो, झाडू लगाना छोड़ देने से पुण्य हुआ? कि भगवान कहेगा कि धन्यभागी! तेरा बड़ा सौभाग्य कि तूने झाडू लगाना छोड़ दिया! इसकी कहीं पुण्य में गिनती होगी!
अगर तुम गौर से समझो तो इस जमीन पर पाप के नाम से तुमने जो किया है, वह नासमझी है। और पुण्य के नाम से उस नासमझी को मिटाते हो। पुण्य क्या है? चोरी की, चोरी कर—करके धन इकट्ठा कर लिया, फिर दान करके पुण्य कर दिया। पहले धनी होने का मजा ले लिया, फिर पुण्यात्मा, दानी होने का मजा ले लिया। और दोनों निर्भर हैं धन पर। और धन का कोई मूल्य ही नहीं है। धन दो कौड़ी का है। मिट्टी है। पहले मिट्टी इकट्ठी करके मजा ले लिया, तब अखबारों में खबर छप गयी कि देखो, कितनी मिट्टी इकट्ठी कर ली इस आदमी ने। और फिर मिट्टी दान करके मजा ले लिया। फिर अखबारों में खबर छप गयी कि यह आदमी पुण्यात्मा हो गया।
व्रत बेईमानी है। समझदार के जीवन में क्रांति होती है, व्रत नहीं होते।

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