Tuesday 20 October 2015

सपने के बिना जिंदगी कैसी होगी? और संन्यास भी सपना है क्या?
प्रश्‍न स्वाभाविक है, उठता है मन में, सपनों के बिना जिंदगी कैसी होगी? क्योंकि हमने अब तक तो जो जीवन जीया, वह झूठ का जीवन है। हमारा जीवन तो झूठ ही झूठ है। और झूठ की ईंटों से बनाया हमने यह भवन। सपने ही सपनों में हम जीए हैं। आशा, कल्पना, वासना, मिला तो कुछ भी नहीं है। झूठ ही झूठ। तो जब मैं तुमसे कहता हूं छोड़ दो सब झूठ, तो एक घबडाहट आनी स्वाभाविक है, कि फिर जीवन का क्या होगा? यही तो हमने अब तक जीवन जाना है।
कुछ लोग एक ही सपना देखते हैं। उनकी बडी अदम्य वासना होती है। किसी को पद का सपना है, किसी को धन का सपना है। कुछ लोग अनेक सपने देखते हैं—पद का भी, धन का भी, यश का भी। मगर सभी सपने देखते हैं। कुछ लोगों का सपना एकाग्र होता है, कुछ लोगों का सपना अनेक दिशाओं में बंटा होता है। और सपने जब टूटते हैं, तो पीड़ा भी स्वाभाविक है।
मैं नहीं दस—बीस सपनों का धनी हूं
एक ही तो यह मनौती का सपन था
आज वह भी तो खरीदा जा चुका है
जो कि मेरे वास्ते धरती—गगन था
आज मेरे साज का मस्तक झुका है
और तुम कहते हो कि मीठा गीत गाऊं
दाग देकर जिस तरह घर लौटते हैं
उस तरह बस आज मैं खोया हुआ हूं
देखने को ये पलक सूखे पड़े हैं
किंतु मन की आंख से रोया हुआ हूं
आज दृग का देवता तक मर चुका है
और तुम कहते हो कि मीठा गीत गाऊं
मैं समझा। सपना टूटेगा तो तुम यह परमात्मा का मीठा गीत कैसे गाओगे, तुम्हें लगता है। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं सपना टूटेगा तो ही तुम यह मीठा गीत गा पाओगे। सपने के कारण ही नहीं गा पा रहे हो। और सपने के कारण तुम जो सोच रहे हो जीवन में मिठास है, वह है कहा? खयाल है। सिर्फ खयाल है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात उठा और अपनी पत्नी से बोला, जल्दी मेरा चश्मा ला। पत्नी जरा नाराज हुई, आधी रात, बीच नींद में, उसने कहा, चश्मे का करना क्या है आधी रात? मुल्ला ने कहा, बातचीत में समय न गंवा, मैं एक बड़ा प्यारा सपना देख रहा हूं। और आंख कमजोर होने की वजह से ठीक—ठीक नहीं देख पा रहा हूं, तू जरा चश्मा तो ले आ!
सपना ही है, चश्मा लगाकर भी देख लोगे तो क्या देख लोगे? सपना सपना है। सपने का अर्थ ही है कि जो नहीं है।
तो सारी मिठास जो तुम्हें मालूम पड़ती है सपनों में, वह सिर्फ खयाल की मिठास है। और उसी मिठास के कारण जो सत्य की मिठास है, उससे तुम चूके जा रहे हो, क्योंकि सपनों के भोजन करने में जो लीन है, वह सत्य भोजन को नहीं कर पाता। ये दोनों चीजें साथ—साथ नहीं चलतीं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जीवन सपना है। और सपने से जागना है।
अब तुम पूछते हो, ‘संन्यास भी सपना है क्या?’
तुम पर निर्भर है। तुम इस ढंग से संन्यास ले सकते हो कि वह भी एक सपना ही रहे। लेकिन तब तुमने मेरा संन्यास न लिया। तुमने अपना कोई संन्यास गढ़ लिया। मेरा संन्यास तो सब सपनों के बाहर आने की विधि है। यह कोई नया सपना नहीं है। यह सब सपनों का ध्वंस है। यह सपनों का अभाव है। लेकिन यह मेरी तरफ से। तुम्हारी तरफ से मैं नहीं कह रहा। तुम्हारी तरफ से तो हो सकता है यह एक नया सपना हो—कि नहीं मिला संसार में कुछ, चलो संन्यास लेकर मिल जाए।
एक मित्र ने परसों संन्यास लिया। मैंने पूछा, क्या करते हैं? उन्होंने कहा, वकालत करता हूं लेकिन चलती नहीं। सोचा, चलो आपके चरणों में झुक आऊं, शायद चल जाए।
अब वकालत चलानी है और संन्यास ले रहे हैं! मैंने कहा, बड़ा मुश्किल है। चलती भी होती तो गड़बड़ हो जाती और तुम्हारी तो चल ही नहीं रही। अब वकालत से ज्यादा गैर—संन्यासी कोई धंधा है! तुमको भी खूब सूझी। अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी। तुम कहां आ गए! एक तो वकालत, चल नहीं रही दूसरे, और तुम सोच रहे हो कि वह संन्यास के द्वारा शायद चल जाए। अब कभी न चलेगी, मैंने उनसे कहा, बात ही छोड़ दो! अब संन्यास चलेगा कि वकालत चलेगी?
तो मुझे पक्का नहीं है, तुम्हारी तरफ से क्या है! तुम हजार—हजार वासनाएं दबाकर मन में आते हो। तुम उन्हीं वासनाओं के लिए संन्यास भी ले लेते हो। तुम सोचते हो, चलो संसार में नहीं मिला तो शायद परमात्मा में मिल जाए, लेकिन चाहते तुम वही हो। तुम्हारी दृष्टि वही है। तुम्हारी पकड़ वही है।
तो हो सकता है, तुम्हारे लिए संन्यास भी सपना हो। मेरे लिए नहीं है। और संन्यास लेना हो, तो जो मैं दूं वह लेना। जो तुम लेना चाहते हो वह मत ले लेना, नहीं तो तुमने लिया ही नहीं। तब तुम ऊपर ही ऊपर रह जाओगे। कपड़े रंगकर रह जाओगे, आत्मा न रंग पाएगी।
जाएं कहां न सिर पर छत है
और न पांव तले धरती
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण
सभी दिशाएं सूनी हैं ओ,
मेरे मन भटक न घर—घर
यह नगरी बेगानी है
राहें सभी अजनबी हैं और
हर सूरत बेपहचानी है
अभी—अभी आवाज सुनी जो
तूने उत्सुक कानों से
तेरी ही प्रतिध्वनि लौटी थी
टकराकर चट्टानों से
धीरे— धीरे टूट किसी को
कानों कान पता न चले
यहां आत्महत्याएं वर्जित
मृत जीवन कानूनी है
चारों ओर स्लेटी कुहरा
चारों ओर उदासी है
आधी धरती अनुर्वरा है
आधी धरती प्यासी है
उगे कहा पर बीज कि
पूरा युग बंजर पथरीला है
आसमान पर मेघ नहीं हैं
सिर्फ धुआ जहरीला है
सुबह चले थे दिनभर भटके
शाम हुई तो यह पाया
सारी खुशियां खर्च हो गयीं
और व्यथाएं दूनी हैं
सांस न ले, विष घुल जाएगा
तेरी रक्त—शिराओं में
सुरभि नहीं अणु— धूल तैरती है
आज हवाओं में
चांद—सितारों तक तुझको
कोई न कभी ले जाएगा
सिर्फ अंधेरा अंधगुफाओं में
फिर—फिर भटकाएगा
रंगे हुए शब्दों
भड़कीले विज्ञापन पर ध्यान न दे
सभी कल्पनाएं झूठी हैं
सभी स्वप्न बातूनी हैं
स्वप्न से जागना मन से जागना है। स्वप्न यानी मन। मन में उठी तरंगें। ध्यान यानी मन का निस्तरंग हो जाना, मन का शात हो जाना। और जहां मन निस्तरंग है, वहीं तुम्हारी आत्मा दर्पण की तरह उसे झलकाती है, जो है। जो है, उसे जान लेना सत्य को जान लेना है। कहो उसे ईश्वर, परमात्मा, जो चाहो नाम देना, दो। न देना चाहो नाम, न दो। लेकिन बुद्ध का सारा संदेश यथार्थ के साथ तादात्म्य बना लेने का है, संबंध जोड़ लेने का है। तथागत हो जाने का है।
सपना है संसार। इस सपने के पार भी कुछ है। जो सपने को देख रहा है, वह इस सपने के पार है। जिसके सामने यह सपना चल रहा है, वह इस सपने के पार है। सपना देखने को भी तो देखने वाला चाहिए। देखने वाला तो सच चाहिए, देखने वाला तो होना ही चाहिए।
तुम गए, फिल्म में बैठ गए रात, पर्दे पर चलने लगा झूठ, छायाओं का जाल। वह झूठ है, लेकिन तुम तो सच हो न! तुम, जो देख रहे हो। देखने वाला तो झूठ नहीं हो सकता।
द्रष्टा सच है, दृश्य सपने हैं। द्रष्टा को पहचान लेना आत्मज्ञान है। और द्रष्टा की पहचान की तरफ चलने का जो पहला कदम है, वही संन्यास है।

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