Thursday 8 October 2015

मेरी शरण आना तो बहुत सरल है, क्योंकि तुम मेरे लगाव में पड़े हो, तुम मेरे प्रेम में पड़े हो, तुम दीवाने हो, तो झुक गए। दीक्षा से तुम्हारा कोई ऐसा लगाव नहीं, ऐसा कोई दीवानापन नहीं, दीक्षा तो लगती ठीक तुम जैसी है, लेकिन अर्थ समझना। जब तक तुम तुम जैसों के शरण में नहीं जाओगे, तब तक तुमने अभी तक अपने को समझा ही नहीं। क्योंकि जो तुम जैसा है, वह तुम्हें आदर योग्य नहीं मालूम होता, इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि तुम स्वयं ही अभी अपनी आंखों में आदर योग्य नहीं हो। जब तुम कहते हो कि अपने ही जैसे की शरण जाएं, तो तुम क्या कह रहे हो, तुमने शायद सोचा नहीं। तुम यह कह रहे हो कि मैं तो निंदित, पापी, अपराधी, और मेरे ही जैसे किसी की शरण जाऊं! तो तुम्हारे मन में बड़ी आत्मग्लानि है। तुम्हारे मन में बडा आत्म—तिरस्कार है। अपमान है अपना।
और जिसके मन में अपने प्रति अपमान है, वह कैसे आत्मवान हो सकेगा’? जो अपनी निंदा कर रहा है, जो अभी अपना सम्मान भी नहीं सीख सका, वह अपने भीतर कैसे प्रवेश कर सकेगा? जो अभी अपने को प्रेम भी नहीं कर सकता, वह किसको प्रेम कर सकेगा? कहने वाला तो यही कह रहा है कि शायद वह दीक्षा का असम्मान कर रहा है यह कहकर कि वह तो मेरे ही जैसी है, उसकी क्या शरण जाना!
लेकिन वह अपना ही अपमान कर रहा है। वह घोषणा कर रहा है कि मैं दो कौड़ी का, और दीक्षा मेरे जैसी, तो मैं कैसे शरण जाऊं?
जिस दिन तुम अपने ही जैसों की शरण जाने लगोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में आत्म—गौरव आएगा। यह बात तुम्हें बड़ी विरोधाभासी लगेगी कि जिस दिन व्यक्ति समस्त के चरणों में झुक जाता है, उस दिन वह आत्म—गौरव को उपलब्ध हो गया। उसने कहा कि निम्नतम के भी शरण में मैं झुक जाता हूं पत्थर के शरण झुक जाता हूं क्योंकि अस्तित्व महिमावान है, निम्न यहां कोई हो ही कैसे सकता है! उस दिन उसे अपने भीतर की गरिमा का बोध होगा।
तो बुद्ध की शरण जाना तो बड़ा सरल है। सरल से शुरू करो मगर सरल पर अटके मत रह जाना। इसलिए संघं शरणं गच्छामि। संघ का मतलब, दीक्षा, लक्ष्मी, मैत्रेय, इनकी शरण जाओ, कभी—कभी अपनी ही शरण. जाओ, कभी—कभी अपने ही पैर छू लो। क्योंकि तुम्हारे भीतर भी परमात्मा विराजमान है। लगेगा पागलपन, पहले तो दूसरे के पैर छूने में बड़ा पागलपन लगता है, फिर अपने पैर छूने में तो निश्चित ही पागलपन लगेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, कभी—कभी अपने भी पैर छुओ। तुम्हारे भीतर भी परमात्मा ही विराजमान है—उतना ही जितना मेरे भीतर, उतना ही जितना बुद्ध के भीतर, उतना ही जितना महावीर के भीतर।
ऐसा हुआ एक बार, रामकृष्ण की किसी ने तस्वीर उतारी। वह तस्वीर लेकर आया तो रामकृष्ण ने झुककर उस तस्वीर के चरण छुए। खुद की तस्वीर! शिष्य जरा बेचैन हुए, उन्होंने कहा कि लोग पागल तो समझते ही हैं इन्हें, अब और बिलकुल पागल समझेंगे, यह हद्द हो गयी। किसी ने जरा टेहुनी मारी कि परमहंसदेव, क्या कर रहे? खबर हो गयी लोगों को तो, लोग पागल मानते ही हैं, अब हद्द हो जाएगी कि अब अपनी ही तस्वीर के पैर छूने लगे। तो उन्होंने कहा कि मेरी तस्वीर! मेरी तस्वीर तो हो कैसे सकती है! क्योंकि मैं तो देह नहीं हूं। लेकिन यह जो तस्वीर है, बड़ी समाधि की है। जिसकी भी ली गयी हो यह तस्वीर, यह आदमी बड़ी समाधि में रहा होगा! तो मैं तो समाधि को झुक रहा हूं। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं ही समाधि में था कि कोई और समाधि में था। समाधि में कहां मैं, कहां तू? समाधि तो समाधि है।
कभी अपने पैर भी छूना, और तुम अपूर्व पुलक का अनुभव करोगे। कभी अपने जैसों के भी पैर छूना। अपने से बड़ों के पैर छूने में तो अहंकार गिरता नहीं। कैसे गिरेगा? जिसको तुम अपने से बड़ा मानते हो, उसके पैर छूने में कैसे अहंकार गिरेगा? जिसको तुम अपने जैसा मानते हो, या अपने से छोटा मानते हो, उसके पैर छूने में अहंकार गिरेगा।
मगर स्वाभाविक है, पहले तो यात्रा वहां से करनी होती है जो सुगम हो। इसलिए बुद्धं शरणं गच्छामि। पहले अपने से विराट के चरण छू लो। फिर संघं शरणं गच्छामि। फिर संघ में तो सब तरह के लोग होंगे, कोई तुम जैसा होगा, कोई तुमसे अच्छा होगा, कोई तुमसे गया—बीता होगा। संघ की शरण जाने का अर्थ है, अब मैं हिसाब नहीं रखता कि कौन बड़ा, कौन छोटा, कौन ऊपर, कौन नीचे, अब तो जो भी सत्य की खोज कर रहे हैं, सब की शरण जाता हूं।
और तीसरा, धम्मं शरणं। लेकिन संघ की शरण में भी सीमा है। अगर बुद्ध के मानने वाले बौद्ध भिक्षुओं की शरण जाते हैं, तो वे जैन भिक्षुओं की शरण तो न जाएंगे, हिंदू संन्यासियों की शरण तो न जाएंगे, मुसलमान फकीरों की शरण तो न जाएंगे, ईसाइयों की शरण तो न जाएंगे। सीमा है। और जहा सीमा है, वहा अभी हम परमात्मा से दूर हैं। इसलिए आखिरी कदम उठाया जाता है, सीमा तोड़ दी जाती है —धम्मं शरणं गच्छामि। अब कौन हिंदू कौन मुसलमान, कौन ईसाई, कौन सिख, कौन जैन, कुछ भेद न रहा। हिंदू मुसलमान, ईसाई की तो बात ही छोड़ो; पौधे, पशु, पक्षी, पत्थर, पहाड़, चांद—तारे, सबके भीतर जो एक ही सत्य समाया हुआ है, हम उसकी शरण जाते हैं।
ऐसे ये त्रि—रत्‍न हैं। ये बड़े बहुमूल्य हैं। इनका अर्थ समझोगे, तो इनके द्वारा कुंजी मिल सकती है।

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