Saturday 10 October 2015

आपके पास आकर मुझे लगता है कि मैंने जीवन में सब कुछ पा लिया। लेकिन कभी—कभी ऐसा भी लगता है कि यहां आकर मैंने अपना जीवन गंवा दिया।
दोनों ही बात सच हैं। और दोनों साथ ही होंगी तो ही हो सकती हैं। यहां आकर कुछ गंवाना होगा तभी तो कुछ पाओगे न! जितना गवाओगे, उतना ही पाओगे। उसी अनुपात में पाओगे। जो कुछ भी न गंवाके, वे कुछ भी न पाएंगे। वे खाली हाथ आएंगे और खाली हाथ जाएंगे। मुझ पर फिर नाराज मत होना। फिर यह मत कहना कि हम गए भी, आए भी, कितना गए, कितना आए, कुछ न मिला। गंवाओगे तो ही पाओगे। दाव पर लगाओगे तो ही पाओगे।
तो पूछा ठीक है, गीता ने पूछा है, ‘ आपके पास आकर मुझे लगता है कि मैंने जीवन में सब कुछ पा लिया। लेकिन कभी—कभी ऐसा भी लगता है कि यहां आकर मैंने अपना सारा जीवन गंवा दिया।’
इन दोनों में विरोध नहीं है। गंवाया, इसीलिए पाया। कुछ थोड़ा—बहुत, गीता, बचा रखा हो, उसको भी निकाल ले, उसको भी गंवा दे। जरूर थोड़ा—बहुत बचाया होगा, नहीं तो यह प्रश्न उठता नहीं। अगर बिलकुल ही गंवा दिया होता तो यह प्रश्न ही नहीं उठता, तुझे खुद ही दिखायी पड़ जाता कि यह तो गंवाना पाना हो गया। गंवा दो, रत्ती—रत्ती, तोला—तोला, कुछ बचाओ मत, तो मिल जाएगा सब। क्योंकि यह तो प्रक्रिया ही अपने को खोकर पाने की है। और गंवाकर पछताओगे न, इतना कहता हूं बचाकर जरूर पछताओगे। फिर मत कहना। क्योंकि यह हो भी सकता है, यह अवसर आज है, कल न हो। फिर पछताओगे कि गंवा ही क्यों न दिया!
वह तितली कागजी थी
जो कभी मेरे मन—कुसुम को बेध गयी
वह आस्था मृगजल थी
जो आंखों के दर्पण में मोती—सी चमकी थी
वह विश्वास जो हिमालय—सा अडिग
पानी पर बहता हुआ काठ का टुकड़ा था
वह सत्य शिव सुंदर जो आत्मा से उदभूत
महज एक दिखावा था
मेरी जिंदगी में सभी कुछ जो था या है
झूठ निकला
मित्रो, औरों से तुम ठीक ही कहते होओगे
मैं मूर्ख निकला
अगर तुमने न गंवाया तो एक दिन तुम यही पाओगे कि तुमने बड़ी मूढ़ता कर ली। जो बचाया, पानी पर बहता हुआ काठ का टुकडा था। जो बचाया, आंखों के दर्पण में मोती—सी चमकी थी, वह आस्था मृगजल थी।
वह तितली कागजी थी
जो कभी मेरे मन—कुसुम को बेध गयी
महज एक दिखावा था
मेरी जिंदगी में सभी कुछ जो था या है
झूठ निकला मित्रो, औरों से तुम ठीक ही कहते होओगे मैं मूर्ख निकला
गंवा लो, तो तुम्हें यह पछतावा न होगा। और गवाओगे क्या, तुम्हारे पास जो है काठ का टुकड़ा है। चाहे तुम सोना समझ रहे होओ। मगर तुम्हारे पास गंवाने को कुछ वास्तविक संपदा थोड़े ही है।
इसलिए मैं बार—बार कहता हूं कि जो नहीं है तुम्हारे पास, उसे जाने दो। है ही कहां? और तब तुम्हारे पास जो है, वह प्रगट हो जाएगा। इसलिए मैं ऐसा भी कहता हूं कि जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे मुझे छीन लेने दो, ताकि मैं तुम्हें वह दे सकूं जो तुम्हारे पास है। लेकिन लोग बड़े घबड़ाते हैं। लोग ऐसे हैं कि सपने टूट जाते हैं तो उन पर भी रोते हैं। छोटे—छोटे बच्चे देखे न, कभी—कभी छोटा बच्चा सुबह से उठकर रोने लगता है, क्योंकि वह सपने में एक बड़ी गुड़िया—लिए खेल रहा था—बड़ी सुंदर गुड़िया थी—वह कहता है, कहा है मेरी गुड़िया? टटोलता है बिस्तर में। मां कहती है, सपना था, मगर वह सुनता नहीं। अभी सपने और सच में उसे भेद ही नहीं हुआ है।
सपनों पर भी लोग रोते हैं। बहुत कम लोग हैं जो वस्तुत: मानसिक रूप से प्रौढ़ हो पाते हैं। अधिक लोग तो सपनों पर ही रोते हैं। किसी का प्रेम था और टूट गया।
परसों एक युवक आया, किसी के प्रेम में पड़ गया है। कहने लगा, मर जाऊंगा अगर यह स्त्री न मिली। तेरी मर्जी! मगर कोई कभी मरता—वरता नहीं। एक आदमी नें—उससे मैंने कहा—एक स्त्री से ऐसे ही कहा था कि अगर तूने मुझे न चुना, या मेरे साथ विवाह न किया, मैं मर जाऊंगा। मान रखना, मर जाऊंगा, वक्त नहीं। और निश्चित वह मरा, साठ साल बाद।
मर जाऊंगा? यह स्त्री कल तक दिखी भी नहीं थी, तब तक जी रहे थे, कोई अड़चन न थी इसके न होने से। आज इसके होने से, लगता है अगर न मिली तो मर जाऊंगा। कल फिर इसे भूल जाओगे। ये सपने हैं, उठते हैं, जाते हैं, टूट जाते हैं, बबूले हैं। कल फिर भूल जाओगे। कल फिर किसी और स्त्री के मोह में पड़ जाओगे और यही फिर कहने लगोगे कि मर जाऊंगा अगर न मिली।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री से कह रहा था कि अगर तू मुझे न मिली तो मर जाऊंगा। तो उस स्त्री ने कहा, मुल्ला, सच कहते हो? उसने कहा, यह मेरी पुरानी आदत है, यह मैं कई स्त्रियों से कह चुका। यह कोई नया नहीं है, इसका मुझे पुराना अभ्यास है।
सपने पर तुम जान दांव पर लगाने को तैयार हो जाते हो। कोई कहता है, अगर पद न मिला तो मर जाऊंगा। कोई कहता है, अगर धन न मिला तो मर जाऊंगा। और अगर नहीं मिलते तो लोग बड़े रोते हैं।
छोड़ो भी, क्या सपनों के शव पर रोते हो
अरे, किरन का अतिथि द्वार पर खड़ा हुआ
तुम हो कि अंधेरे के स्वागत में लीन हुए
जीवन का मंगल—गीत बुलावा भेज रहा
तुम हो कि मर्सिया पढ़ते हो गमगीन हुए
पुतलियां दृगों की बांध रहीं नूतन पलना
तुम हो कि अभी तक पलकों में शव ढोते हो
छोड़ो भी, क्या सपनों के शव पर रोते हो
कम हो गया अगर तो नव मोती बींधो
पर न अधूरी छोड़ो जीवन की माला
आंसू पोंछो सब शोक भुला मुस्काओ तुम
वह सुनो प्रभाती गाता पथ में उजियाला
सपना ही तो टूटा है, नहीं हृदय टूटा
फिर क्यों जीवन के प्रति —निराश तुम होते हो
छोड़ो भी, क्या सपनों के शव पर रोते हो
और लोग रोते हैं। खूब रोते हैं, जार—जार रोते हैं। जीवन में रोना मिटता ही नहीं। जब तक सपने साफ—साफ समझ में नहीं आते कि सपने हैं, तब तक आदमी रोता है। कभी इस सपने के टूट जाने पर, कभी उस सपने के टूट जाने पर। और सपने तो टूटेंगे ही, सपने तो टूटने को ही हैं। सपनों को तुम कितना ही सम्हालकर रखो, रख नहीं सकते, वे टूटेंगे ही। वे बड़े नाजुक हैं। कांच के बर्तन ‘हैं। वे टूटेंगे ही, फिर रोओगे।
गीता से मैं कहना चाहूंगा, जो तूने छोड़ा उसमें था भी क्या? जो गया, उसमें था भी क्या? और गीता को मै भलीभांति जानता हूं, बहुत वर्षों से जानता हूं, मैंने तो कभी कुछ देखा नहीं कि इसके पास कुछ था। मगर सपने होंगे, सपने बसाए होंगे मन में। स्त्री है, सपने बसाए होंगे—शादी—विवाह करेगी, किसी धनपति से विवाह करेगी, कोई बड़ा बंगला बनाएगी, केडिलक कार खड़ी करेगी, ऐसा होगा, वैसा होगा, ऐसे सपने स्त्रियां बनाती हैं।
स्त्रियों के सपने, पुरुषों के सपने थोड़े अलग— अलग होते हैं, पर सपने तो सपने हैं। बच्चे होंगे, ऐसे सपने उसने संजोए होंगे। वही सपने चले गए और तो कुछ था नहीं जाने को। न तो कोई मकान था, न कोई केडिलक गाड़ी थी, न कुछ था। और होते भी तो भी उनके होने में क्या होता है? और फिर भी नासमझ है। क्योंकि मुझे पता है, उसने पहले विवाह भी किया था, और दुःखी हो गयी, बहुत दुखी हो गयी। अपने पति को लेकर एक बार मेरे पास आयी थी, वर्षों बीत गए। तब किसी तरह पति से उसकी झंझट छुड़वायी थी। उसको मुक्‍त करवाया था किसी तरह कि छूट जा, अब नहीं बनता दोनों का तो क्‍या सार है!
कुछ था क्या, जो छूट गया हो। है तो कुछ भी नहीं हाथ में, मगर आदमी मुट्ठी बंद रखता है, सोचता है, भीतर कुछ है।
दो पागल बैठे एक —दूसरे से बात कर रहे थे। एक मुट्ठी बांधकर बोला कि अच्छा शर्त लगाता हूं, बता दे कि मेरी मुट्ठी में क्या है तो यह दस रुपए का नोट। उस आदमी ने सोचा, उसने कहा कि भाई, कुछ थोड़ा इशारा तो दो। थोड़े इंगित, मतलब अब एकदम से संसार इतना बड़ा है! इसमें कौन सी चीज तुम्हारी मुट्ठी में हो, क्या पता! कुछ इशारा। कम से कम तीन इशारे तो चाहिए ही। मगर पहला पागल बोला कि इशारे अगर चाहते हो फिर ये दस रुपए नहीं मिलेंगे। ये दस रुपए तो मिलते ही हैं बिना इशारे के अगर तुम बोल दो। तो उसने थोडा सोचा, उसने कहा कि हो न हो हाथी है तेरे हाथ में।
उस पहले पागल ने धीरे से मुट्ठी खोलकर देखी और उसने कहा कि मालूम होता है तूने किसी तरकीब से देख लिया।
अब मुट्ठी में हाथी होते नहीं। हो नहीं सकते। मगर मुट्ठी बंद हो, तो कुछ भी हो सकता है—कल्पना का जाल खुला है। तुमने कभी अपनी मुट्ठी खोलकर देखी, तुम्हारे पास है क्या?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, सब आपके चरणों में छोड़ते हैं। मैंने कहा, जरा रुको, यह है क्या? वह कहते हैं, नहीं, अब सभी छोड़ते हैं। मगर मैं. जरा हिसाब—किताब तो लगा लें कि है क्या? चिंता, बेचैनी, परेशानी, क्रोध, लोभ, माया, मोह, क्या छोड़ रहे हो? और ये छोड्कर कल ऐसा मत कहना कि देखो, हमने कितना आपके चरणों में छोड़ दिया। ये सब सांप—बिच्छू छोड़ रहे हो। कुछ और छोड़ने को है भी नहीं। और कल ऐसे घूमने लगोगे कि सब दान कर आए, सब छोड़ दिया, उनके चरणों में सब रख आए। रखने को क्या है? क्या छोड़ते हो?
अगर तुम थोड़ा होश से समझोगे, मुट्ठी खोलकर देखोगे, तो तुम चरणों में झुकोगे और कहोगे कि मेरे पास तो चरणों में रखने को कुछ भी नहीं है, अपने को खाली झुका रहा हूं। लेकिन मुश्किल से कभी कोई आदमी ऐसा कहता है कि अपने को खाली झुका रहा हूं। वह अपने सपनों को ही संपत्ति मान रहा है।
तो गीता, क्या था तेरे पास जिसको तू सोचती है कि खो गया? कुछ नहीं था। कुछ नहीं होने की अवस्था को समझा लेने के लिए कुछ सपने सजा रखे थे, मान रखा था कि ऐसा—ऐसा है, वे सपने टूट गए। वे टूट ही जाने चाहिए थे। इसलिए लगता है कि—
‘कभी—कभी ऐसा भी लगता है कि यहां आकर मैंने अपना जीवन गंवा दिया।’
जरूर, एक तरह का जीवन तूने गंवा दिया, पागलपन का जीवन तूने गंवा दिया। एक तरह का जीवन जो तेरे पिता जीए, पिता के पिता जीए, वह तूने गंवा दिया। लेकिन तेरे पिता ने क्या पाया, तुझे पता ? मरने के आखिरी दम तक संन्यास की हिम्मत न जुटा सके। आखिरी बार जब मुझे मिलने आए, मैंने उनसे कहा कि अब ज्यादा देर मत करो। तो उनको बात समझ में भी आयी, कहने लगे, हौ, शरीर भी कमजोर होता जाता है, लेना तो है संन्यास, मगर जरा ठहरें। अब उनको कुछ बाधा भी न थी संन्यास लेने में। जरा ठहरें! जरा ठहरे और एक सप्ताह के भीतर तो वे चले गए। अब ऐसा अवसर उन्हें दुबारा कभी आएगा, कब आएगा, कहना बहुत मुश्किल है!
अगर तू मुझसे पूछे गीता, तो तेरे पिता ने गंवाया, तूने कुछ नहीं गंवाया है। और जो भूल तेरे पिता ने की, उसके लिए वे पछता के जन्मों—जन्मों तक। क्योंकि वे आदमी खोजी थे, चाहते थे, मगर साहस न जुटा पाए। उतरने का मन था, लेकिन डावाडोल होते रहे। तूने हिम्मत की और डूब गयी। खोया कुछ भी नहीं है। या जो कुछ भी नहीं जैसा था वही खोया है। और जो तुझे मिला है, उसका तो तू अभी ठीक—ठीक मूल्यांकन भी नहीं कर सकती कि क्या मिला है। क्योंकि अभी तो प्रत्यभिज्ञा का उपाय भी तेरे पास नहीं है। धीरे—धीरे, धीरे—धीरे साफ होगा कि क्या मिला है।
यह तो ऐसे ही है कि जैसे एक फकीर को हम एकदम से साम्राज्य दे दें, तो उसकी समझ में ही न आएगा पहले कि क्या मिला। सिंहासन पर बिठा दें तो वह बड़ा बेचैन ही होगा कि मामला क्या है, यह क्या दरबार, यह क्या राजमहल, यह धन—दौलत, यह सब क्या है! क्या मिला है, उसको एकदम से समझ में ही नहीं आएगा। वक्त लगेगा हिसाब—किताब जोड़ने में, पहचान करने में, इस नयी परिस्थिति में डूबने में वक्त लगेगा।
जो माया का जगत था, उससे तेरे थोड़े हाथ छूटे, और जो सत्य का जगत है, उस तरफ थोड़ी जीवन की यात्रा आगे बढ़ी है। अब पीछे लौट—लौटकर मत देखो। जो गया, जाने दो। वह कुछ था ही नहीं, इसीलिए गया। जो अपना है, वह कभी जाता ही नहीं। इसे कसौटी समझो। जो वस्तुत: अपना है, उसे खोने का उपाय नहीं है, वह हमारा स्वभाव है। और जो खो जाए, वह अपना था ही नहीं। वह जितनी जल्दी खो गया उतना अच्छा, उतना कम समय व्यर्थ हुआ, प्रभु की अनुकंपा है। ऐसा मानकर, जो खोता हो उसे खो जाने देना और जो नया आता हो उसके स्वागत को तैयार रहना।

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