Thursday 15 October 2015

मैं कवि हूं। क्या सत्य को पाने के लिए अब संन्यासी भी होना आवश्यक है?
सत्‍य यदि मिल गया हो, तो पूछ किसलिए रहे हो? और कवि होने से सत्य मिलता है! कवि तो कल्पना का ही विस्तार है। ही, कभी—कभी सत्य को पाने वाले भी कवि होते हैं। लेकिन इससे तुम यह मत समझ लेना कि जो—जो कवि है, सबने सत्य को पा लिया है।
इसलिए इस देश में हमने कवियों के लिए दो नाम दिए हैं—ऋषि और कवि। दोनों का एक ही अर्थ होता है। लेकिन दोनों का बड़ा गहन भेद भी है।
ऋषि हम उसे कहते हैं, जिसे सत्य मिला और जिसने सत्य को गीत में गाया। जिसने सत्य पाया और सत्य को ऋचा बनाया, गीत बनाया, उसको हम ऋषि कहते है। उपनिषद जिसने लिखे, वेद के मंत्र जिसने लिखे। कबीर और नानक और दादू आरे मीरा और सहजों और दया, ये सब ऋषि हैं। इनको तुम कवि कहकर ही भ्रांति में मत पड़ जाना। क्योंकि कवि तो हजारों हैं, लेकिन वे नानक नहीं हैं, और न कबीर है। और यह भी हो सकता है कि वे नानक से बेहतर कवि हों और कबीर से बेहतर कवि हों, क्योंकि कविता एक अलग बात है। नानक कोई बहुत बड़े कवि थोड़े ही हैं! अगर कविता को ही खोजने जाओ तो नानक और कबीर में कोई बहुत बड़ी कविता थोड़े ही है! कविता के कारण उनका गौरव भी नहीं है। गौरव तो किसी और बात से है। जो उन्होंने देखा है, उसको उन्होंने काव्य में ढाला है। उसको गाकर कहा है।
साधारण कवि ने देखा तो कुछ भी नहीं है, ज्यादा से ज्यादा सपने देखे हैं—यह भी हो सकता है कि शराब पीकर देखे हों कि गांजा पीकर देखे हों। इसलिए अक्सर कवि को तुम पाओगे शराब पीते, गांजा पीते, इस तरह के काम करते। किसी कवि कि कविता अच्छी लग जाए तो भूलकर कवि से मिलने मत जाना, नहीं तो बड़ा सदमा पहुंचता है। कविता तो ऐसी ऊंची थी और कवि को देखा तो वे नाली में पड़े है! कि चायघर में बैठे गालियां बक रहे हैं! कवि को देखने जाना ही मत। अगर कविता पसंद पड़े तो भूलकर मत जाना, नहीं तो कविता तक में अरुचि हो जाएगी।
हां, ऋषि की बात और है। अगर ऋषि की पंक्ति पसंद पड़ जाए और ऋषि उपलब्ध हो तो छोड़ना मत। क्योंकि पंक्ति में क्या रखा है! पंक्ति तो कुछ भी नहीं है। जब तुम ऋषि को देखोगे तब तुम्हें पूरा दर्शन होगा। पंक्ति तो जैसे एक किरण थी छोटी। एक नमूना था। जरा सा स्वाद दिया था पंक्ति ने तो। ऋषि के पास जाओगे तो पूरा सागर लहलहाता मिलेगा।
कवि तो कविता में खतम हो गया। कवि को पाओगे तो रिक्त, कोरा पाओगे। ऋषि कविता में खतम नहीं हो गया है। कविता तो ऐसी ही है जैसे ऋषि के भीतर तो आनंद उछल रहा था, कुछ बूंदें —कविता बन गयीं।
तुम कहते हो, ‘मैं कवि हूं। ‘
अच्छा है कवि हो, लेकिन ऋषि न बनना चाहोगे? तुम्हारे काव्य के साथ संन्यास जुड़ जाए तो तुम ऋषि हो जाओ। तुम्हारे काव्य के साथ ध्यान जुड़ जाए तो तुम ऋषि हो जाओ। कवि होने पर मत रुक जाना। कवि कोई बहुत बड़ा गुण नहीं है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने एक युवती से विवाह का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। तो उसने खुशी में डुबकी लेकर पूछा, क्या तुम्हारे माता—पिता को पता है कि मैं कवि हूं शायर? युवती ने कहा, नहीं अभी तक नहीं। मैंने उनसे चोरी के अपराध में तुम्हारी जेल—यात्रा के संबंध में जरूर बताया है। यह भी कि तुम्हें जुआ खेलने की आदत है, और यह भी कि शराब की लत है। लेकिन तुम कवि भी हो, यह मैंने नहीं कहा, सोचा सभी बातें एक साथ बताना ठीक नहीं। धीरे — धीरे बताएंगे।
कवि होना अनिवार्यरूपेण गुण नहीं है। अक्सर तो तुम कविता करते उन लोगों को पाओगे जो जीवन में असफल हो गए हैं। जो कुछ और न कर सके वे कवि हो गए। फिर जो कवि भी नहीं हो सकते, वे आलोचक हो जाते हैं। वह और गयी—बीती दशा है। कवि होने का अर्थ ही इतना है कि तुम कृत्य में नहीं उतार पाए, तो अब कल्पनाओं में उतार रहे हो। जिनके जीवन में प्रेम नहीं घटा, वे प्रेम की कविताएं लिख रहे हैं। ऐसे मन को समझा रहे हैं, बुझा रहे हैं। यह सांत्वना है।
इसलिए कवियों की कविताओं से तुम प्रेम की कोई धारणा मत बना लेना, क्योंकि उनको प्रेम का कुछ पता ही नहीं है। प्रेम का जिनको पता है, वे शायद कविताएं लिखेंगे भी नहीं। अक्सर ऐसा होता है कि जिनके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव नहीं घटता, वे किसी तरह के सपने पैदा करके परिपूरक निर्मित करते हैं। सपने का उपयोग ही यही है।
तुम दिन में भूखे सोए, किसी दिन तुमने उपवास किया, तो रात तुम सपना देखोगे कि भोजन कर रहे हो, राजा के घर मेहमान हो, बडा स्वादिष्ट भोजन है, सभी तरह के मिष्ठान्न हैं। ये भूखे आदमी ही इस तरह के सपने देखते हैं। उपवास करने वाले, व्रत इत्यादि ले लिया, कि पर्यूषण आ गए, ऐसा कुछ मौका आ गया, तो रात में सपने आते हैं। जब तुम भरे पेट सोते हो तो रात कभी भोजन के सपने नहीं आते। गरीब आदमी सपने देखता है, सम्राट हो गया है। सम्राट नहीं देखता ऐसे सपने। झोपड़े वाला सपने देखता है, महल में हो गया। महल वाला ये सपने नहीं देखता। 5०
संसार. सीढ़ी परमात्मा तक जाने की तुम तो चकित होओगे, अक्सर महल वाला देखता है कि संन्यासी हो गया, भिक्षु हो गया। अक्सर धन वाला देखता है सपने कि कब इस धन से छुटकारा होगा, कब इस फंदे से बाहर निकलेंगे। कब हो जाएंगे मस्त फकीर। न कुछ फिकर, न कुछ लेन—देन। सपने विपरीत होते हैं, यह मैं कह रहा हूं। जिस चीज की कमी होती है, सपने के द्वारा उसकी हम पूर्ति करते हैं।
कविता एक तरह का सपना है। जो तुम्हारे जीवन में कम है, उसकी तुम सुंदर—सुंदर पंक्तियां रचकर अपने को समझाते हो कि चलो, कविता कर ली। ऐसे मन बहलता है। काव्य कोई जीवन का बड़ा गहरा अनुभव नहीं है। अगर जीवन का गहरा अनुभव करना है तो ऋषि बनो। कवि और ऋषि का फर्क है कवि का अर्थ है, सपने देखने वाला आदमी, ऋषि का अर्थ है, सत्य देखने वाला आदमी। सपने देखकर तुम जो गीत गुनगुनाओगे, उनमें सपनों ही की तो गंध होगी। सत्य देखकर तुम जो गीत गुनगुनाओगे उनमें सत्य की गंध होगी। सपनों में गंध कहा, दुर्गंध ही होती है। गंध तो सत्य की ही होती है।
इसलिए मैं तुमसे कहूंगा, कवि हो, सुंदर। और थोडे आगे बढो, यह कोई मंजिल नहीं आ गयी। यहां रुकने से कुछ होगा नहीं, थोड़े आगे चलो। ऋषि बनो। तब तुम्हारे भीतर से एक नए ढंग के काव्य का अवतरण होगा। तब तुम्हारी गीत की कड़िया तुम्हारी न होंगी, परमात्मा की होंगी। तब तुम बांस की पोगरी हो जाओगे। गीत उसका होगा, ओंठ उसके होंगे, तुम वेणु बन जाओगे। तब भी बांसुरी बजेगी, लेकिन स्वर परमात्मा का होगा। तब बड़ी अनूठी बांसुरी बजती है।
अभी तुम्हीं तो बजाओगे, तुम्हारे पास है क्या? तुम डालोगे क्या बांसुरी में? तुम्हारी संपदा क्या है? तुम्हारे भीतर है क्या? हुआ क्या है? कुछ भी तो नहीं हुआ है। तुम वैसे ही साधारण आदमी हो जैसे दूसरा कोई साधारण आदमी है। तुम्हें परमात्मा की झलक कहा मिली! तो तुम कहोगे क्या कविता में?
तुम्हारे पास डालने को कुछ भी ग्ही है। तो तुम्हारी कविता कोरी—कोरी होगी, सूनी—सूनी होगी, मुर्दा—मुर्दा होगी। शब्दों का अंबार लगा दोगे तुम, लेकिन शब्दों के पीछे जब तक सत्य न हो तब तक बेबुनियाद है भवन। तब तक तुम कागज की नावें जितनी चाहो तैरा लो, लेकिन इनसे भवसागर पार न होगा।

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