Sunday 11 October 2015

धारणा के बिना कैसे कोई जानेगा कि क्या पथ है और क्या कुपथ; क्या ग्राह्य है और क्या त्याज्य; क्या पुण्य है और क्या पाप; और अंततः क्या द्रष्टा है और क्या दृश्य?
धारणा के बिना जानने की जरूरत ही नहीं है। क्‍योंकि धारणा के बिना तुम हो गए कि तुम जहां हो वहीं पथ है। तुम जो हो, वहीं द्रष्‍टा है।
कल मैं पढ़ता था मिर्जा गालिब के संबंध में। मिर्जा तो पियक्‍कड़ थे, शराबी थे। एक आदमी आ गया—पंडिताऊ किस्म का आदमी, धार्मिक किस्म का आदमी—वह शराब के खिलाफ समझाने लगा। बड़ी बातें करने लगा शराब के खिलाफ। मिर्जा बड़ी देर तक सुनते रहे, फिर बोले कि भाई, एक बात तो बता कि अगर कोई शराब पीता ही रहे तो सबसे बड़ा हर्जा क्या है? सबसे बड़ा नुकसान क्या है? तो उस आदमी ने कहा, सबसे बड़ा नुकसान यह है कि शराबी आदमी कभी परमात्मा की प्रार्थना नहीं करता, कर नहीं सकता। तो मिर्जा ने जोर से ताली बजायी और कहा, अरे पागल, शराबी प्रार्थना करेगा भी किस चीज के लिए? जो चाहिए वह मिला ही हुआ है। यह तो तुम लोग करो प्रार्थना वगैरह। शराबी को प्रार्थना करने को है ही क्या और!
तुम पूछते हो कि ‘जिसकी धारणा खो गयी हो, वह कैसे जानेगा कि पथ क्या है?’ जानने की जरूरत ही नहीं है। जिसकी धारणा खो गयी उसका अर्थ है, मन खो गया। क्योंकि मन धारणाओं का संग्रह है। जिसका मन खो गया, वह पथ पर है। उसी को बुद्ध ने सम्यक पथ कहा है। ठीक—ठीक मार्ग कहा है। जहां मन न रहा, वहां गैर ठीक होने का उपाय न रहा।
तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। समझो कि एक आदमी चश्मा लगाने का आदी है और कोई उससे कहे कि तेरी आंख ठीक हो जाएगी, तू चश्मा छोड़! तो वह कहे मैं चश्मा छोड़ दूं तो फिर देखूंगा कैसे? हम उसको कह रहे हैं कि तेरी आंख ठीक हो जाएगी, तू चश्मा छोड़! वह कहता है, आंख ठीक हो जाएगी, वह तो ठीक, लेकिन फिर मैं देखूंगा कैसे? उसने सदा चश्मे से देखा है। वह सोचता है, चश्मे के बिना देखना होगा ही कैसे?
मन से ही हमने सदा जाना है, क्या ठीक और क्या गलत—हालांकि जान कभी नहीं पाए, मान लिया है कि यह ठीक और यह गलत। हमें कभी दर्शन तो हुआ नहीं ठीक—ठीक कि क्या गलत है और क्या ठीक है। फिर मन कहता है, यह ठीक, मगर करते कहां हम! करते तो वही जो मन कहता है कि ठीक नहीं है। करते कुछ, कहते कुछ, मन की यही तो सब बिबूचन है, विडंबना है। मन गया कि वही होता है जो होना चाहिए। व्याख्या नहीं रह जाती, सत्य दिखायी पड़ता है, व्याख्या खो जाती है। व्याख्या और सत्य में बड़ा फर्क है।
एक गुलाब का फूल खिला, तुम कहते हो, अगर हमने सुंदर— असुंदर की धारणा छोड दी तो फिर हम कैसे इसके सौंदर्य का मजा लेंगे। तुमने अभी इसका मजा लिया ही नहीं है। जब तुम कहते हो, यह सुंदर है, तभी मजा खो गया। एक ऐसा भी मजा है, जब न तो सुंदर का शब्द उठता है, न असुंदर का। फूल होता है, तुम होते हो, दोनों के बीच अपार लेन—देन होता है, एक शब्द नहीं उठता, न सुंदर का न असुंदर का। तब तुम्हें इसके सौंदर्य का वास्तविक अनुभव होता है। कहते नहीं तुम कि सुंदर है, कहने की जरूरत नहीं है, स्वाद लेते हो। जब तुम कहते हो, सुंदर है, तब तो तुम सिर्फ थोथी बात कर रहै हो—तुम्हें कुछ अनुभव नहीं हो रहा है, तुमने बाप—दादों से सुना है, गांव के लोगों से सुना है, गुलाब का फूल सुंदर होता है, तो तुम कह रहे हो सुंदर है।
तुमने देखा, अभी नयी—नयी फैशन दुनिया में चली है—कैक्टस। लोग घर में कैक्टस लगाने लगे। गुलाब तो गया! अब गुलाब को कौन पूछता है! गुलाब तो पुरानी परंपरा की बात हो गयी। गुलाब तो हट गए हैं बड़े बंगलों से। यह गुलाब तो दकियानूसी हो गया है। कितने पुराने दिनों से लोग गुलाब की प्रशंसा कर रहे हैं, हटाओ! कैक्टस आ गया है। नागफनी! जिसको कभी लोग घर में नहीं लाते थे। गांव के बाहर खेत—खलिहान के आसपास लगाते थे कि जानवर वगैरह न घुस जाएं। नागफनी को कौन घर में लाता था!
अब नागफनी सम्राट होकर विराजी है। बैठकघरों में बैठी है! और लोग कहते हैं आकर, आह! कैसी प्यारी नागफनी है। और इन्हीं लोगों ने कभी इसके पहले नहीं कहा था कि प्यारी नागफनी! हवा बदल गयी। अब गुलाब की प्रतिष्ठा नहीं रही। नागफनी की प्रतिष्ठा हो गयी। लोग तो शब्दों से जीते हैं, प्रचार से जीते हैं। जिस चीज का प्रचार हो जाता है, उसी को सुंदर — असुंदर कहने लगते हैं, सौंदर्य— असौंदर्य का अनुभव थोडे ही है कुछ।
एक ऐसा अनुभव भी है जहा शब्द बनते ही नहीं। निःशब्द रहते हैं प्राण। अनुभव इतना सघन होता है कि शब्द बनाने की फुरसत किसे होती है! सब ठगा और अवाक रह जाता है! तब एक चीज दिखायी पड़ती है जो वास्तविक है।
मैंने सुना, एक वैज्ञानिक था—बड़ा वैज्ञानिक। खासकर विद्युत के यंत्रों में उसकी बड़ी क्षमता थी। वह अपनी लड़की के संबंध में बड़ा चिंतित था, क्योंकि एक लडका उसकी लड़की के पीछे पड़ा था। पुराने ढंग का बाप होता, डंडे मारकर निकाल देता। पुराने ढंग का भी नहीं था, आधुनिक आदमी थी। पर आधुनिकता तो ऊपर रहती है, भीतर तो पुराना ही चलता रहता है। तो भीतर तो बाप को अड़चन भी होती थी कि यह कहां उसको वह कहता था, वह बंदर कहां है? —वह लड़के को। कि वह फिर आ गया बंदर। वह उसको बिलकुल बर्दाश्त के बाहर था। और वह घंटों बैठकर लड़की से बैठकखाने में गपशप करता, आधी—आधी रात तक दोनो बैठे रहते। आखिर उसकी बर्दाश्त के बाहर हो गया, उसको यह बड़ी बेचैनी रहने लगी कि ये दोनों करते क्या हैं बैठकर?
आधुनिक बाप था, तो बीच में जाकर खड़ा भी नहीं हो सकता था, पुराने जमाने के दिन गए कि बीच में जाकर खड़ा हो जाए। क्योंकि उससे आधुनिकता मरती है कि लोग कहते हैं—यह. भी क्या बात है, लड़की तो प्रेम करेगी ही! और बंदर! बंदर तो सभी हैं, डार्विन ने सिद्धे ही कर दिया है, अब इसमें क्या! सभी बंदर की औलाद हैं, तो यह भी सही। फिर लड़की को पसंद है तो तुम्हें क्या बाधा?
तो उसने एक तरकीब बनायी—वैज्ञानिक था बड़ा! उसने जिस कमरे में लड़का और लड़की बैठकर प्रेमालाप चलाते थे, उसमें एक छोटा सा यंत्र लगा दिया सीलिंग पर। और अपने कमरे में एक रडार का पर्दा लगा दिया। उस यंत्र से उसके रडार पर रंग बन जाते। अगर लडका लड़की का हाथ पकड़ता, तो स्वभावत: लड़का—लड़की जवान, अभी प्रेम में पड़े, तो काफी गर्मी पैदा होती जब हाथ पकड़ते—तो वह जो गर्मी को पकड़ने वाला यंत्र था, वह जल्दी से गर्मी पकड़ लेता और रडार के पर्दे पर लाल रंग आ जाता। तो वह समझ जाता कि अच्छा, हाथ पकड़ा उस बंदर के बच्चे ने! अगर वे एक—दूसरे का चुंबन लेते तो हरा रंग आ जाता। तो वह बंदर का बच्चा चुंबन ले रहा है लड़की का! या कभी आलिंगन करते, तो नीला रंग आ जाता। ऐसे उसने रंग बना रखे थे।
एक दिन वैज्ञानिकों की एक काफ्रेंस चल रही थी तो उसे जाना पड़ा। वह बड़ा बेचैनी में गया, क्योंकि वह बंदर, जब वह बाहर जा रहा था, वह अंदर घुस रहा था। तो उसने अपने छोटे बेटे को कहा, सुन बेटा, तू जाकर अंदर बैठ जा, वहा पर्दा लगा है, उस पर देखते रहना और यह कागज ले ले, इस पर नोट करते जाना कि कौन सा रंग किस क्रम से आया। बेटे को कुछ पता नहीं था कि यह रंगों का मतलब क्या है। बेटा तो समझा कि बाप एक काम दे गया है तो वह बड़ी मुस्तैदी से जाकर बैठ गया और रंग लिखने लगा कि कौन सा रंग पहले, कौन सा पीछे, कब क्या आया। और बाप जल्दी से गया काफ्रेंस में, वह किसी तरह खतम करके, उसको तो बेचैनी यही थी कि वहा रंग कौन से आ रहे हैं? लेकिन इससे पहले कि वह घर आए, बेटा भागता हुआ कांफ्रेंस भवन में पहुंच गया। बाप ने पूछा, क्या हुआ, ऐसा भागा हुआ क्यों आ रहा है? उसने कहा, अरे पिता जी, गजब हो गया! उसके बाप ने पूछा, क्या हुआ, जल्दी बोल! अरे, उसने कहा, इंद्रधनुष आया है! तो उसको कुछ पता नहीं था। सभी रंग एक साथ आ रहे हैं!
इस बच्चे को कोई व्याख्या तो नहीं है, लेकिन जो है वह तो दिखायी पड़ रहा है। बाप के मन में व्याख्या है, बाप ने तो सिर पीट लिया। वह लड़के की तो समझ में नहीं आया, उसने कहा, आप क्यों सिर पीट रहे हैं? अरे, इतना गजब का इंद्रधनुष बना है कि देखते रह जाओ! मैं तो भागा आया कि आप चूक जाएंगे, चलिए! लड़के की प्रसन्नता।
जब सारी धारणाएं खो जाती हैं, जब कोई धारणा नहीं रह जाती—क्या अच्छा, क्या बुरा, क्या सुंदर, क्या असुंदर, क्या नीति, क्या अनीति—तब जीवन में जो है, जैसा है, अपूर्व रूप से प्रगट होता है, और कोई व्याख्या नहीं होती। तुम होते हो और जीवन का सत्य होता है—जैसा है, वैसा ही। इसलिए इससे भयभीत न होओ। सब धारणाएं सीमा बनाती हैं और सब व्याख्याएं क्षुद्र हैं। निर्व्याख्य ही विराट है।

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