Tuesday 6 October 2015

स्वप्न अगर सत्य की छाया है, तो क्या स्वप्न के सहारे सत्य को नहीं खोजा जा सकता है?
स्‍वप्‍न निश्चित ही सत्य की छाया है। इसलिए प्रश्न बड़ा मूल्यवान है कि अगर स्‍वप्‍न सत्य की छाया है, तो क्या स्वप्न के सहारे हम सत्य को नहीं खोज सकते हैं? नहीं, स्‍वप्‍न सत्य की छाया है, स्वप्‍न को छोड़ोगे तो सत्य को खोज पाओगे। अगर छोड़ने को सहारा लेना कहते हो, तब तो ठीक। लेकिन अगर स्वप्‍न का सहारा लेकर बढ़े तो और स्वप्न में चले जाओगे।
फर्क समझो! आकाश में चांद है, शरद पूर्णिमा की रात है, और एक झील में चांद का प्रतिबिंब बन रहा है, छाया बन रही है। जो झील में चांद बन रहा है, वह असली चांद की ही छाया है, इसलिए जुड़ा तो असली चांद से ही है। हालांकि झूठ है। सब झूठ सच से जुड़े होते हैं। नहीं तो झूठ चलेंगे कैसे? बिना सच के झूठ चल नहीं सकता एक कदम। झूठ को उधार लेने पड़ते हैं पैर सच के। सच के सहारे ही चलता है। इसीलिए तो हर झूठा आदमी हर तरह का उपाय करता है कि मैं जो कह रहा हूं? बिलकुल सच है। क्योंकि अगर वह यह सिद्ध न कर पाए कि यह सच है, तो उसकी झूठ चलेगी कैसे?
मुल्ला नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था। और गांव का जो सबसे भोला और सरल आदमी था, उसको उसने लूट लिया था। मजिस्ट्रेट ने कहा कि मुल्ला, थोड़ा तो विचार कर, यह आदमी गांव का सबसे सीधा, सरल, साधु चित्त आदमी
है, तुझे यह मिला लूटने को! इतना बड़ा गांव बेईमानों का पड़ा है, किसी को भी लूट लेता। उसने कहा, आप भी खूब बात कर रहे हैं! अरे, इसको न लूटो तो लूटो किसको? यह अकेला ही तो लुटने को राजी है। क्योंकि यह अकेला ही मुझ पर भरोसा करता है। इस गांव में और तो कोई मुझ पर भरोसा करने वाला नहीं। और जब तक कोई भरोसा न करे, लूटो कैसे? महाराज, आप भी खूब बातें कर रहे हैं! यह मैं जानता हूं कि सीधा—सरल है, इसीलिए तो लूटा। सच पूछो तो यह प्रमाण—पत्र है कि यह आदमी सीधा—सरल है। इसकी साधुता सिद्ध होती है, क्योंकि मैंने इसको लूटा, और यह लुट गया। और यह अभी भी मुझ पर भरोसा करता है। अगर अदालत से कभी छूटने का मौका मिला तो यह फिर मुझे मौका देगा—यह आदमी सच में सरल है।
मगर, सरल को ही लूटा जा सकता है, यह खयाल किया? लूट के लिए भी कोई भरोसा करने वाला तो चाहिए न! झूठ के लिए भी कोई माने कि सच है, तो ही तो झूठ चलता है। अन्यथा झूठ नहीं चल सकता। चांद अगर आकाश में न हो तो झील न में प्रतिबिंब तो नहीं बन सकता न! चांद के बिना तो नहीं बनता—अमावस की रात तो नहीं बनता। तो एक बात तो तय है कि प्रतिबिंब आकाश के चांद से जुड़ा है। इसलिए हम प्रतिबिंब का आधार मानकर चांद की खोज कर सकते हैं।
लेकिन खयाल रखना—अब फर्क समझना होगा—अगर तुमने प्रतिबिंब को आधार माना तो तुम क्या करोगे? पानी में डुबकी लगाओगे चांद को खोजने के लिए? तब तो चांद तो खो ही जाएगा, प्रतिबिंब भी खो जाएगा। क्योंकि जैसे ही तुम पानी में उतरे कि पानी डावाडोल हुआ कि प्रतिबिंब भी बिखर गया। तो प्रतिबिंब का सहारा लेकर अगर तुम झील के भीतर उतरे, भीतर गए डुबकी मारकर कि देखें चांद कहां है, तो तुम चांद से बहुत दूर निकल जाओगे।
हां, प्रतिबिंब का सहारा लेने का इतना ही अर्थ होता है—चूंकि प्रतिबिंब उलटा है, इसलिए उलटे चलो। जहा प्रतिबिंब दिखायी पडता हो, उससे उलटे चलो, उससे विपरीत चलो, प्रतिबिंब को छोड़ो, तो तुम सत्य के करीब पहुंचोगे।
जैसे तुम दर्पण के सामने खड़े हो, दर्पण में दिखायी पड़ रहे हो—छोटे बच्चे धोखा खा जाते हैं। छोटे से बच्चे को पहली दफा जब दर्पण के सामने रखो, तो वह बड़ा हैरान होता है, टटोलकर देखता है। पीछे भी जाकर देखता है घसिटकर कि आईने के पीछे कोई बैठा है? उसकी बिलकुल समझ में नहीं आता कि यह मामला क्‍या है? वह अपने को पहचानता भी नहीं, अभी अपनी शक्ल की भी पहचान नहीं कि यह मैं ही हूं! छूने की कोशिश करता है, खेलने की कोशिश करता है इस बच्चे के साथ, लेकिन कुछ पकड़ में नहीं आता। घबड़ा भी जाता है, रोने भी लगता है। और रोने लगता है तो बच्चा भी रोता है, और भी घबड़ाहट बढ़ जाती है। हंसता है तो बच्‍चा हंसता है। लेकिन छोटा बच्चा कोशिश करता है कि दर्पण में कोई छिपा है। वैसी ही हमारी कोशिश चल रही है।
हम नासमझ, अज्ञानी संसार के दर्पण में परमात्मा को खोज रहे हैं जगह—जगह। शायद धन में छिपा हो, पद में छिपा हो, प्रतिष्ठा में छिपा हो, मोह—ममता में छिपा हो। खोज रहे हैं। हर जगह दीवाल से टकरा जाते हैं। कभी कुछ मिलता नहीं, मगर खोज जारी रहती है। अगर इसका सहारा लेना है तो सहारा लेने का एक ही मतलब होगा, इसके विपरीत चलो, इससे उलटे चलो। क्योंकि प्रतिबिंब उलटा बना है, इसलिए उलटे जाने से सत्य के करीब आओगे।

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