Sunday 4 October 2015

मैं आर्यसमाजी हूं और आपका संन्यास लेने जा रहा हूं। आप अब तक अनेक महापुरुषों के बारे में बोल चुके हैं, लेकिन स्वामी दयानंद के बारे में कुछ नहीं बोले हैं। क्या स्वामी जी ने मानव—कल्याण के लिए कुछ भी योगदान नहीं किया?
पूछा है, ब्रह्मचारी हरिदेव ने। उत्तर इसीलिए दे रहा हूं क्योंकि संन्यास के पहले तुम्हें यह बात साफ समझ लेनी चाहिए कि आर्यसमाज को मैं कोई धर्म नहीं मानता हूं। यह एक सामाजिक आंदोलन है। इसका धर्म से कुछ लेना—देना नहीं। इसका संबंध समाज और राजनीति से है।
दूसरी बात, स्वामी दयानंद महापंडित थे, महात्मा भी, मगर बुद्धपुरुष नहीं। महापंडित थे, इसमें कोई रत्तीभर संदेह नहीं है। बहुत कम ऐसे महापंडित हुए हैं, जिनकी ऐसी स्पष्ट प्रतिभा हो, तर्क हो और शास्त्र के ऊपर जिनकी ऐसी प्रगाढ़। विश्लेषण की क्षमता हो। बहुत कम। तो उस अर्थ में दयानंद अपूर्व हैं, मगर महापंडित और महापंडित के प्रति मेरे मन में कोई मूल्य नहीं है।
महापंडित बुद्धि की बात है। इससे हृदय रूपांतरित नहीं होता। और महापंडित सिर्फ तर्क ही तर्क में जीता है। उसके जीवन में कोई गहरा अनुभव नहीं होता। तो तर्क तो उनके पास बड़ा था, खंडन—मंडन की बड़ी क्षमता थी, लेकिन अनुभव कोई भी नहीं था। अगर अनुभव होता, तो उन्होंने कुछ और ही बात कही होती। फिर वे यह न कहते कि कुरान वेद के विपरीत है। फिर वे यह न कहते कि महावीर और बुद्ध वेद के विपरीत हैं। अगर उनका अनुभव होता, तो निश्चित वे जान लेते कि जो महावीर ने कहा है, भाषा अलग होगी, जो बुद्ध ने कहा है, उसकी भी भाषा अलग है, और जो मोहम्मद ने कहा है, उसकी भाषा अलग है; जो जीसस ने कहा, उसकी भाषा अलग है; लेकिन जो कहा है, वह वही है जो वेदों ने कहा है। भिन्न तो कोई कह कैसे सकता है!
तो उनका सारा जीवन खंडन में गया। बाइबिल गलत है, कुरान गलत है, धम्मपद गलत है, सब गलत हैं, सिर्फ वेद सही हैं। यह हिंदू राजनीति है। इसका धर्म से कुछ लेना—देना नहीं है।
परमहंस रामकृष्णदेव ठीक विपरीत आदमी हैं। पंडित बिलकुल नहीं हैं, लेकिन धार्मिक, संत। जानते कुछ नहीं हैं, दूसरी क्लास तक मुश्किल से पढ़े हैं। तो मैं रामकृष्ण पर तो बोलता हूं, लेकिन दयानंद को छोड़ता हूं। छोड़ता हूं सिर्फ इसीलिए कि नाहक क्यों किसी को दुखी करना! दयानंद के मानने वाले जो लोग हैं, वे नाहक दुखी होंगे, उनको क्यों कष्ट देना! इसलिए छोड़ता हूं। क्योंकि अगर उनको लूंगा, तो मुझे उनके साथ ठीक—ठीक व्यवहार करना पड़ेगा। इसलिए छोड़ता हूं। ऐसे बात काटकर निकल जाता हूं।
लेकिन तुम चूंकि आर्यसमाजी हो और संन्यास भी लेने का सोचा है, इसलिए बात साफ कर लेनी जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि तुम आर्यसमाजी ही रहते हुए संन्यासी हो जाओ, तो संन्यास से कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि आर्यसमाज वैसा ही सामाजिक आंदोलन है जैसे और सामाजिक आंदोलन चलते हैं। यह परमात्म—प्रेम में डूबना नहीं है। इसलिए आर्यसमाज बकवास पैदा करते हैं। बकवासी पैदा करते हैं। तर्कजाल खूब, लेकिन प्राणों की सुगंध बिलकुल नहीं।
दयानंद महात्मा भी हैं, इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन महात्मा आयोजित बात है। चेष्टा से, प्रयास से। उनके पास सुंदर चरित्र है, लेकिन आरोपित। योजना से, ठोंक—ठोंककर उन्होंने अपने चरित्र को खड़ा किया है। तुम उनके चेहरे पर भी वही भाव देखोगे। सरलता नहीं, बड़ी कठोरता। बच्चे जैसा भाव नहीं। महात्मा हैं, लेकिन महात्माओं का भी मेरे मन में कोई बड़ा मूल्य नहीं है। सच तो यह है कि जिसको सच में परमात्मा का होना हो, उसे दो चीजें छोड़नी पड़ती हैं—महापंडित होना और महात्मा होना। इन दो को जो छोड़ देता है और सरलचित्त हो जाता है, निर्दोष बच्चे की भांति, वही केवल परमात्मा को पाने में समर्थ हो पाता है।
तो तुम सोच लेना। कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेकर फिर तुम्हारे मन में दुविधा खड़ी हो। कोई जल्दी नहीं है, और सोच लेना। क्योंकि जब कोई ईसाई संन्यास लेने आता है, तो मैं उसे कभी नहीं कहता कि तुम्हें जीसस को छोड़ना पड़ेगा तो मुझे पाओगे। नहीं, मैं उससे कहता हूं, अगर तुमने जीसस को प्रेम किया है तो तुमने मुझे प्रेम किया है। अगर कोई सिख संन्यास लेने आता है, तो मैं उससे यह नहीं कहता कि तुम्हें नानक को छोड़ना पड़ेगा। उससे मैं यही कहता हूं कि तुमने अगर मुझको चाह लिया तो मेरी चाह में तुम नानक को पा लोगे। कोई मुसलमान संन्यास लेने आता है, तो मैं कभी उसे समझाने की फिकर नहीं करता कि मोहम्मद या कुरान से उसे कुछ नाते तोड़ने हैं। सच तो यह है कि वह मुझसे नाता जोड़कर जीवित कुरान से नाता जोड लेगा।
लेकिन आर्यसमाजी के साथ मामला दूसरा है। यह धर्म है ही नहीं। यह तो ऐसे ही है कि जैसे एक कम्मुनिस्ट मेरे पास आए और कहे कि अब तक मैं कार्ल मार्क्स मानता रहा हूं और संन्यास लेना चाहता हूं, आप क्या कहते हैं? तो मैं उससे कहूंगा, जरा सोचकर आना। क्योंकि कार्ल मार्क्स बड़ा विचारक, लेकिन कोई धार्मिक नहीं। कार्ल मार्क्स ने बड़ा सामाजिक आंदोलन पैदा किया और मनुष्य—जाति का किसी अर्थ में कल्याण भी किया, लेकिन फिर भी वह कल्याण धार्मिक नहीं है। न ह कल्याण लौकिक है।
दयानंद ने भी बड़ी सेवा की हिंदू समाज की, लेकिन हिंदू समाज की। वह भी राजनीति है। उठा लिया हिंदू समाज को, एक संगठन में खड़ा कर दिया, एक नया बल दे दिया, एक नया अहंकार दे दिया हिंदू समाज को, कि तुम वेदपुत्र हो, अमरतस्य पुत्र:, कि तुम ऋषि—महर्षियों की संतान हो, ऐसा एक नया अहंकार दे दिया। लेकिन अहंकार तो कोई भी हो वह आदमी को धार्मिक नहीं बनाता। लोग सम्मान देते हैं इस तरह के लोगों को, क्योंकि स्वभावत: लोगों में अकड़ आ गयी, लोगो में फिर पुनरुज्जीवन आ गया। लोगों ने कहा कि ठीक, हम भी अपना गौरव खो बैठे थे, फिर से हमारा गौरव वापस मिला।
तो दयानंद ने हिंदू समाज की बड़ी सेवा की। लेकिन हिंदू समाज की सेवा धर्म कि सेवा नहीं है। अक्सर तो ऐसा होता है कि हिंदू समाज की सेवा, जैन समाज की सेवा, ईसाई समाज की सेवा धर्म—विरोधी होंगी। क्योंकि धर्म की सेवा तो मनुष्य मात्र कि सेवा है। उसमें हिंदू—मुसलमान—ईसाई का भेद नहीं होता।
तो तुम पूछते हो कि ‘स्वामी जी ने क्या मानव—कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया?
मानव—कल्याण के लिए तो कुछ भी नहीं किया। हिंदू—कल्याण के लिए बहुत कुछ किया। मगर हिंदू—कल्याण मानव—कल्याण नहीं है। और अक्सर तो ऐसा होगा कि हिंदू—कल्याण मानव—कल्याण के विपरीत जाएगा। जाएगा ही। क्योंकि यह धारणा ही कि कोई हिंदू है, मनुष्य—जाति के विपरीत ले जाती है। यह तुम्हें तोड़ती है, जोड़ती नहीं।
तो मेरे मन में आर्यसमाज का धर्म की तरह कोई स्थान नहीं है। मैं आर्यसमाज को गिनता हूं समाजवाद, कम्यूनिज्य, ब्रह्मसमाज, इस तरह के आंदोलनों में एक। महत्‍वपूर्ण आंदोलन, मगर धर्म की दृष्टि से शून्य है उसका मूल्य। समाज और राजनीति की दृष्टि से मूल्य अलग हैं, लेकिन उन मूल्यों से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहूंगा, हरिदेव, कि तुम सोच लेना। मेरे पास संन्यस्त होने का अर्थ होता है कि फिर तुम आर्यसमाजी नहीं रहे। अगर आर्यसमाजी रहना ही, छोड़ो संन्यास की बात। यह दो टूक है, सीधी—सीधी बात है। अगर यह साफ न हो तो अभी रुको, जब साफ हो जाए तब संन्यास ले लेना।
मैं तुम्हारे जीवन में किसी तरह की दुविधा नहीं डालना चाहता कि तुम्हारा आधा मन आर्य समाजी बना रहे और आधा मन संन्यासी हो जाए और तुम अड़चन में पड़ जाओ। मैं अड़चन नहीं लाना चाहता तुम्हारे जीवन में, मैं तो तुम्हारे जीवन में अड़चन मिटाना चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में विश्राम आए, शांति आए, आनंद आए। तो मैं तुम्हें किसी दुविधा में डालना ही नहीं चाहता। मुझे संन्यासियों की संख्या बढ़ाने का कोई लोभ नहीं है।
इसलिए इस बात को तुम ठीक से सोच लेना। विचार कर लेना, जब तुम्हारे मन में साफ हो जाए कि तुममें हिम्मत है सामाजिक, राजनैतिक आंदोलनों की बकवास छोड्कर वस्तुत: उस परम के सागर में डूब जाने की, जहां न कोई आर्य है और न कोई अनार्य है; न कोई वेद है, न कोई कुरान है, तो फिर तुम आ जाओ, मेरे द्वार खुले हैं। फिर तुम्हारा स्वागत है।

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