Wednesday 7 October 2015

 प्रतिबिंबों के सहारे सत्य खोजा जा सकता है, अगर तुम प्रतिबिंबों के विपरीत चलो। इसीलिए तो धन इकट्ठा करने से शायद सत्य के मिलने का उतना संबंध नहीं जुड़ता, जितना धन को दान कर देने से जुड़ता है। यह विपरीत चलना हुआ। साधारण मन तो कहता है, धन इकट्ठा करो। असाधारण मन कहता है, दान कर दो, मौत तो ले ही लेगी, छीन ही लेगी। इसके पहले कि छीन ले, लुटा दो। जो छिन ही जाएगा, उसको लुटाने का मजा तो कम से
कम ले लो। जो मौत ले ही जाएगी..।
एक अमरीका का बहुत बड़ा करोड़पति मरने के करीब था, तो उसका परिवार सब इकट्ठा हो गया। उसका वकील आया और उसने कहा, आप अपनी वसीयत करवा दें। तो उस करोड़पति ने आंख खोली और एक ही लाइन बोला, उसने कहा, वसीयत में लिखो कि मैं होशियार आदमी था, जो भी मैंने कमाया सब लुटा दिया। अब वसीयत में मेरे पास करने को कुछ है नहीं। जिस तरह मैंने कमाया, मेरे बच्चे भी उसी तरह कमाएं और जिस तरह मैंने लुटाया, उसी तरह मेरे बच्चे भी लुटा दें। मैं इतना नासमझ न था कि इकट्ठा करके और दूसरों के लिए छोड़ जाऊं। जब छोड़। जाना था तो मैंने लुटा दिया।
धन के संग्रह से शायद सत्य की झलक उतनी नहीं मिलती, जितना धन के त्याग से मिल जाती है। पद की पकड़ से शायद सत्य की उतनी झलक नहीं मिलती, जितना पद के त्याग से मिल जाती है।
इसलिए तो महावीर और बुद्ध सड़क के भिखारी हो गए, सिंहासन छोड़ दिया। तुम्‍हारे हिसाब से तो नासमझ ही थे। सिंहासन मिलता कहां ! कितनी मुश्किल से मिलता है! मिला—मिलाया छोड़ दिया। पागल रहे होंगे। लेकिन छोड्कर कुछ और पाया जो बड़ा था, उलटे चले। आदमी का मन भीड़— भाड़ में जाने का होता है, जो एकांत में चला जाता है, उसको मिलता। आदमी का मन तो होता है— भीड़— भाड़, अकेले में तो मन भांय—भांय करता है, घबड़ाहट होती है। अकेले बैठे नहीं कि चैन नहीं पड़ता है—कहा जाएं, कहां न जाएं? क्या करें, क्या न करें? किससे मिलें, किसको बुला लें? कोई तो चाहिए। मित्र न मिले तो दुश्मन सही, मगर कोई तो चाहिए। अकेले? अकेले में तो बड़ी घबड़ाहट होती है।
तो मनुष्य का मन तो भीड़ की तरफ जाता है। भीड़ में तुम परमात्मा को न पा सकोगे। भीड़ तो प्रतिबिंब देगी। भीड़ के विपरीत। इसलिए जिन्होंने शान को खोजा वे जंगल चले गए, पहाड़ चले गए, दूर एकांत में गुफाओं में बैठ गए। वे प्रतीक हैं इस बात के कि उलटे जा रहे हैं।
बुझा—बुझा मन
थका— थका तन
भटका हूं मैं कहां—कहां
किसने दी आवाज मुझे
मैं खिंचा चला आया पीछे
जैसे डोर किसी बंसी की
मछली को ऊपर खींचे
यह अबूझ बेनाम उदासी
यह तन से निर्वासित मन
यह संदर्भहीन पीड़ाएं
दर्पन में प्रतिबिंबित दर्पन
किसी हृदय में किसी नजर में
खटका हूं मैं कहा—कहा
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
जैसे दीया लिए हाथों में
उतर रहा तहखाने में
नंगे पांव झुलसते मरुथल में
निर्झर का अन्वेषण आह,
सृजन से पूर्व
मनःस्थितियों के दुर्निवार ये क्षण
कभी भाव पर
कभी बिंब पर
अटका हूं मैं कहां—कहां
बुझा—बुझा मन
थका— थका तन
भटका हूं मैं कहां —कहा
हमारी सारी भटकन क्या है? हमारी भटकन यही है कि जो है उसे न खोजकर हम उसकी छाया खोज रहे हैं।
इसीलिए तो इस देश में ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। माया का अर्थ है, जो नहीं है और प्रतीत होता है कि है। झील में दिखने वाला चांद है या नहीं है? अगर तुमसे कोई पूछे कि ही और न में जवाब दो, क्या करोगे? अगर वह कहे, ही और न में जवाब दो, ज्यादा बातचीत हम चाहते नहीं। झील में दिखायी पड़ने वाला नाद है या नहीं? तो क्या तुम कहोगे, है? या तुम कहोगे, नहीं? तुम कहोगे, भाई, है और नहीं में तो उत्तर नहीं हो सकता। ही और न में उत्तर नहीं हो सकता, थोड़ी सुविधा दो मुझे बोलने की। है भी और नहीं भी है। है भी, क्योंकि साफ दिखायी पड़ रहा है कि है। और मुझे पता है कि जब नहीं होता तब झील अलग ढंग की होती है। इसलिए है तो। और है भी नहीं, क्योंकि उतरकर बहुत बार देखा, कुछ पाया नहीं। तो माया है।
माया बड़ा अदभुत शब्द है। माया का अर्थ यह नहीं होता कि जो नहीं है, माया का अर्थ होता है, जो नहीं है और फिर भी है जैसा भासता है। जो है और फिर भी नहीं है। दोनों के मध्य में है माया—होने और न होने के। परमात्मा है और माया
उसका प्रतिबिंब है। सिर्फ छाया है।
इसलिए जब तुम भीड़— भाड़ में भागकर, धन—पद—प्रतिष्ठा की दौड़ को दौड़कर पाक जाओगे और अपने भीतर उतरने लगोगे, अपने स्यात में उतरोगे, उलटे चलोगे —
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
तब तुम निश्चित विस्मय से भर जाओगे, अपूर्व आनंद से।
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
जैसे दीया लिए हाथों में.
उतर रहा तहखाने में
जैसे कोई दीया लेकर अपने ही भीतर के तहखाने में उतर रहा! उस दीण्र का नाम, बोध, उस दीए का नाम, ध्यान। उस ध्यान के दीए को लेकर जब कोई अपने ही भीतर के तहखाने में उतरता है, तब मिलन होता है उससे, जो है। तब शरद पूर्णिमा , ते चंद्रमा से मिलन होता है।
कभी भाव पर
कभी बिंब पर
अटका हूं मैं कहां —कहां
बुझा —बुझा मन
थका— थका तन
भटकन हूं मैं कहा—कहा
यात्रा को उलटाओ। संन्यास और संसार विपरीत यात्राएं। संसार का अर्थ होता ओ?ए?, धन पर पकड; संन्यास का अर्थ होता है—छोड़ना, पकड़ छोड़ना। संसार का —भर्थ होता है, मेरा —तेरा, बहुत आग्रह से। संन्यास का अर्थ होता है, कौन मेरा, कौन तैरा! न कोई मेरा, न कोई तेरा। संसार का अर्थ होता है, क्षुद्र को इकट्ठा करते रही, घर को बना लो कबाड़खाना, उसी कबाड़खाने में डूबो और मर जाओ। संन्यास का अर्थ होता है, सार को गहो, असार को छोड़ो। आम—आम चूस लो, गुठली—गुठली फेंक दो। संसार का अर्थ होता है, गुठलियां इकट्ठी करते रहो, आम चूसने की तो फुर्सत कहां है! गुठर्लियां इकट्ठी करते रहो और फिर सिर मारो और तडूफो और कहो कि —
थका— थका तन
बुझा—बुझा मन
भटका हूं मैं कहा —कहां
और गुठलियां इकट्ठी कर ली हैं। और हर गुठली के साथ रस भी था। क्योंकि हर माया के साथ ब्रह्म जुड़ा है। और हर प्रतिबिंब का मूल है। मगर तुम उलटे चले गए
जीने की प्रतिक्रिया में
मिट रहे हैं
जुड़ने की प्रतिक्रिया में
कट रहे हैं
क्यों न अब उलटे चलें हम
मिटें,
ताकि जी सकें हम
कटे,
ताकि जुड़ सकें हम
इस उलटी यात्रा को ही जिसने समझ लिया, वह सत्य से ज्यादा दूर न रह सकेगा। आंख तुमने हटा ली झील में बनते हुए प्रतिबिंब से, तो तत्‍क्षण तुम्हारी आंख आकाश में दौड़ते चांद को पकड़ लेगी। देर नहीं लगेगी। और आकाश का चांद कितना ही दूर हो, झील के चांद से पास है।
देखते नहीं, आदमी आकाश के चांद पर पहुंच गया। आदमी चल लिया आकाश के चांद पर। झील के चांद पर आदमी कभी नहीं पहुंच सकेगा। क्योंकि जो है ही नहीं 1 भासता मात्र है, उस पर कैसे चलोगे?


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