Wednesday 28 October 2015

‘सर्वदा विमलरूप मुझको कहां प्रमाता है और कहां प्रमाण है? कहां प्रमेय है और कहां प्रमा है? कहां किंचित है और कहां अकिचित है?’
प्रमाता का अर्थ होता है—ज्ञाता; प्रमाण का अर्थ होता है —ज्ञान के साधन, जिनसे ज्ञान उत्पन्न होता, प्रमेय का अर्थ होता है—जो जाना जाए, ज्ञेय, प्रमा का अर्थ होता है —ज्ञान। जनक कह रहे हैं कि अब न तो मुझे कुछ ज्ञान जैसा है, न मेरे भीतर ज्ञाता जैसा कुछ बचा, न कुछ ज्ञेय शेष रहा, न ज्ञान के कुछ साधन बचे। ये सारे भेद तो अज्ञान के हैं।
अब तुम समझना, यह बड़ी क्रांतिकारी बात है।
अगर तुम पंडितों से पूछो तो वे कहेंगे, ये भेद ज्ञान के हैं। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमा। प्रमा का अर्थ होता है—ज्ञान। प्रामाणिक ज्ञान का नाम प्रमा। जिससे प्रमा सिद्ध हो, वह प्रमाण। जिसके ऊपर सिद्ध हो, वह प्रमाता। जिसके संबंध में सिद्ध हो, वह प्रमेय। यह तो ज्ञान का विभाजन है, इसको तो पूरा—पूरा इपेस्टोमोलाजी, ज्ञानमीमांसा कहते हैं। और जनक कह रहे हैं, अब यह कुछ भी नहीं बचे। न कोई जानने वाला है, न कुछ जाना जानेवाला। दो तो गये, तो अब कैसा सब्जेक्ट, कैसा आब्जेक्ट! अब कैसा ज्ञाता और कैसा ज्ञेय। अब कौन द्रष्टा और कैसा दर्शन! दो तो रहे नहीं। यह तो दो हों तो ये बातें घट सकती हैं। जब एक ही बचा तो कौन जाने, किसको जाने, कैसे जाने, क्या जाने। ज्ञान की अंतिम घडी में ज्ञान भी समाप्त हो जाता है, यह इस सूत्र का मूल है।
इसलिए तो सुकरात ने अंतिम क्षणों में कहा, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। उपनिषद कहते हैं जो कहे मैं जानता हूं, जान लेना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता हूं पकड़ लेना उसका पीछा, वहां कुछ है। उसे कुछ मिला है। लाओत्सु ने कहा है, सत्य को मैं न कहूंगा, क्योंकि कहा कि चूक हो जाएगी। सत्य कहते ही झूठ हो जाता है। क्यौंकि कहने में दावा हो जाता है, कहने वाला आ जाता है। तो मैं सत्य को न कहूंगा, मैं चुप ही रहूंगा। मैं मौन ही रहूंगा। तुम मेरे मौन से ही समझ लो तो ठीक।
परम सदगुरु हुआ, रिंझाई। उससे एक सम्राट ने पूछा है कि मुझे कुछ मार्ग बता दें। कैसे पहुंचूं सत्य तक? तो रिंझाई चुप बैठा रहा, देखता रहा, देखता रहा सम्राट को, सम्राट जरा बेचैन हो गया। उसने कहा, महानुभाव, क्या आपने सुना नहीं मैंने क्या पूछा रम मैंने पूछा कि सत्य को पाने का कोई मार्ग बता दें। फिर भी रिंझाई चुप रहा। सम्राट ने अपने वजीर से कहा कि यह सज्जन सुनते हैं कि नहीं? कान वगैरह खराब तो नहीं हैं। वजीर ने कहा कि नहीं, कोई कान खराब नहीं है, वह बराबर सुन रहे हैं, उत्तर भी दे रहे हैं। सम्राट ने कहा, यह कैसा उत्तर हुआ? रिंझाई ने कहा कि तुमने बात ही ऐसी पूछी है कि उसका उत्तर चुप रहकर ही हो सकता है। सम्राट ने कहा, मैं न समझूंगा, यह बात मैं न समझूंगा। चुप रही सूचना मेरे पकड़ में न आएगी, तुम कुछ बोलो।
तो रिंझाई ने, रेत पर बैठा था, सामने ही लकड़ी उठाकर लिख दिया, ध्यान। सम्राट ने कहा कि कुछ और थोड़ा विस्तार करो। ध्यान, बस इतना कह दिया काम हो जाएगा? तो रिंझाई ने दुबारा लिख दिया और बडे अक्षरों में— ध्यान। सम्राट ने कहा कि आपका दिमाग ठीक है? मैं पूछता हूं, थोड़ा विस्तार करो। तो रिंझाई ने बहुत बड़े —बड़े अक्षरों में लिख दिया—ध्यान। और जब सम्राट ने कहा कि नहीं, मेरी समझ में इतने से न आएगा। तो रिंझाई ने कहा—तुम क्या मेरी बदनामी करवाकर रहोगे? अब मैं ज्यादा बोला तो फंस जाऊंगा। इतना ही काफी हो गया फंसने के लिए। चुप था, तब तक सत्य के बिलकुल निकट था, जो कह रहा था चुप से, वह बिलकुल सत्य था। फिर जब ध्यान लिखा तो कुछ तो असत्य हो गया। जब और बड़ा लिखा तो और असत्य हो गया। जब और बड़े में लिखना पड़ा तो और असत्य हो गया। अब अगर मैं बोला, और विस्तार किया, तो मुश्किल हो जाएगी।
बुद्ध बोले हैं, अष्टावक्र बोले हैं, लेकिन ध्यान रखना—उनके बोलने की सारी चेष्टा ऐसे ही है जैसे पैर में एक काटा लगा हो तो दूसरे काटे से निकाल देना। दूसरे काटे का कोई मूल्य नहीं है, बस पहला काटा निकल गया कि दूसरा भी पहले ही जैसा व्यर्थ है। दोनों कौ फेंक देना है। ऐसा नहीं है कि दूसरे को संभालकर रख लेंगे छाती में, मंदिर बनाएंगे दूसरे के लिए, पूजा करेंगे कि यह काटा बडा अदभुत है, इसने कांटे से बचाया। दूसरा भी काटा है।
शब्द से शब्द को निकाल लेना है, ताकि पीछे निःशब्द रह जाए।
जनक कहते हैं, अब न कोई जाननेवाला, न कुछ जाना जानेवाला, न कोई प्रमाण, न कोई प्रमा। ज्ञान गया। जब ज्ञान चला जाए, तभी ज्ञान है।
अब समझो।
साधारण हालत तो ऐसी है कि ज्ञान तो बिलकुल नहीं, लेकिन दावा हर एक को है कि हम जानते हैं। तुम्हें ऐसा आदमी मिलेगा जो कहे कि मैं नहीं जानता? मूढ़ से मूढ़ भी यही कहेगा, मैं जानता हूं। जानने का दावा कौन छोड़ता है! तुम जब नहीं भी जानते तब भी तुम जानने का दावा करते हो। कोई तुमसे पूछता है, ईश्वर है? तुम्हें जरा—सा भी पता नहीं है, तुम्हें जरा भी खबर नहीं है, तुम कहते हो—हा, है। तुम मरने—मारने को तैयार हो जाते हो, उस पर जिसका तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। तुमने कभी सोचा तुम क्या कह रहे हो?
मेरे गांव में एक वैद्यराज थे। उनका मेरे घर से लगांव था बहुत, और अक्सर मैं उनके वहां जाता। उनको रस था उपनिषद, वेद पढ़ने में। और वे सदा शिक्षा देते रहते कि सच बोलो, सच बोलो। मैंने उनसे पूछा एक दिन, ईश्वर है? मैं उनसे दादा कहता, मैंने कहा—दादा, ईश्वर है? उन्होंने कहा, है। मैंने कहा, सच बोल रहे हैं? वे थोड़े घबडाए। ईमानदार आदमी थे। छोटे बच्चे को भी धोखा नहीं दे सके। उन्होंने कहा, तो फिर मैं जरा सोचूंगा। मैंने कहा, सोचना क्या है? या तो आपको पता है, या आपको पता नहीं है। इसमें सोचना क्या है? पता हो तो कह दें कि पता है, मैं मान लूंगा। पता न हो तो कह दें कि पता नहीं है। तो उन्होंने कहा, झूठ तुझसे नहीं बोल सकूंगा, मुझे पता तो नहीं है। तो फिर मैंने कहा, अब दो में से कुछ एक तय कर लें, या तो यह सच बोलना चाहिए यह बात आप बंद कर दें। आप निरंतर उपदेश दे रहे हैं कि सच बोलना चाहिए। और या फिर सच बोलना शुरू करें।
जब मैं चलने लगा, उन्होंने कहा, सुन! जो मैंने तुझसे कहा, किसी और को मत बताना। क्योंकि उनकी सारी प्रतिष्ठा इस पर थी। गांव भर उनको मानता, आदर देता कि वे जानी हैं। किसी और से मत कहना! मैंने कहा, यह किस प्रकार का सच हुआ? अगर आपको पता नहीं, तो कह दें, कम—से—कम सच ही के तो पीछे चलें। सच के पीछे चलनेवाला शायद कभी परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन झूठ परमात्मा के संबंध में जो बोल रहा है, वह तो कैसे कहीं पहुंचेगा! कम—से —कम इतनी सचाई तो हो।
लेकिन बहुत कठिन है। अगर तुमसे कोई पूछे, तो उत्तर दिये बिना नहीं रहा जाता। एक बड़ी उत्तेजना उठती है कि उत्तर देना ही है, क्योंकि नहीं तो लोग समझेंगे कि तुम जानते ही नहीं हो। और ध्यान रखना, अज्ञानी दावा करता है ज्ञान का और ज्ञानी कोई दावा नहीं करता। अज्ञानी ही दावा करता है। ज्ञानी का दावा नहीं है, ज्ञानी दावेदार नहीं है।
इसलिए बुद्ध चुप रह गये। जब लोगों ने पूछा, ईश्वर है? तो बुद्ध चुप रह गये। हिंदुस्तान के पंडितों ने यह घोषणा की कि बुद्ध को पता नहीं है, इसलिए चुप हैं। हिंदुस्तान के पंडितों ने बुद्ध के धर्म को उखाड़कर फेंक दिया, ब्राह्मणों ने टिकने न दिया। क्योंकि उनके लिए एक बड़ी सहूलियत की बात मिल गयी। लेकिन उनको पढ़ना चाहिए अष्टावक्र को, सुनना चाहिए जनक के वचन। उन्हें अपने उपनिषदों में ही खोज करनी चाहिए। बुद्ध जो व्यवहार कर रहे थे चुप रहकर, वह शुद्धतम उपनिषद का व्यवहार है। उन्होंने नहीं उत्तर दिया, क्योंकि बुद्ध ने जाना, जो भी उत्तर दिया जाएगा, गलत होगा। उत्तर मात्र में यह दावा आ जाएगा कि मैं जानता हूं —ही कहूं, या न कहूं। मैं कहां? जानना कहां? जानने को शेष क्या? ऐसी परम शून्यता की जो दशा है। और तब जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित! अब ऐसा भी नहीं है कि थोडा जानता हूं और थोड़ा नहीं जानता—कहां किंचित, कहां अकिचित?
इस बात को भी समझना।
तुम कई दफा किसी से कहते हो कि मुझे तुमसे बहुत प्रेम है। तुमने शायद कभी विचार नहीं किया। प्रेम भी बहुत और थोड़ा हो सकता है? प्रेम होता है या नहीं होता, यह बात समझ में आती है, लेकिन थोड़ा और ज्यादा कैसे होता है ? प्रेम थोड़ा और ज्यादा कैसे हो सकता है? शायद तुमने बहुत सोच—विचार कर नहीं बात कही। शायद तुमने बहुत होशपूर्वक नहीं कही। यह तो ऐसे ही हुआ कि कोई आदमी एक लकीर खींच दे और कहे कि यह आधा वर्तुल है। आधा वर्तुल नहीं होता, वर्तुल तो तब होता है, तब पूरा ही होता है। अगर आधा है वर्तुल तो वर्तुल नहीं है, लकीर ही है। कुछ और होगा, वर्तुल नहीं है। शून्य आधा थोड़े ही होता है। कम—ज्यादा थोड़े ही होता है। पूर्ण भी कम —ज्यादा थोड़े ही होता है, पूर्ण ही होता है। जीवन में जो परम मूल्य हैं, उनके खंड़ नहीं होते।
इसलिए जनक कहते हैं, कहां किंचित और कहां अकिचित? अब न तो मैं यह कह सकता हूं कि मैंने थोड़ा पाया, न मैं यह कह सकता हूं कि मैंने ज्यादा पाया। तुलना, सापेक्षताएं, मात्राएं, सब खो गयीं। एक गुणात्मक रूपातरण हुआ, एक क्रांति हुई। पुराना सब गया, उससे जरा भी संबंध नहीं रहा। और जो नया हुआ है, वह इतना नया है कि उसको पुरानी भाषा में ढाला नहीं जा सकता। पुराने और नये में सारे संबंध विच्छिन्न हो गये हैं। सातत्य टूट गया है।
एक ही बच रहता है। इसलिए ज्ञान के, द्वैत के सब संबंध विलीन हो जाते हैं।

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