Monday 19 October 2015

सुना है कि आप विदेश जा रहे हैं। सच न हो! और हुआ, तो सदियों पुरानी गोपियों और उनके कृष्ण की कहानी फिर दोहर जाएगी। आपकी मीरा भी उसी तरह रोएगी। क्या आपने इसी में हमारा भला सोचा है?
पहली बात तो मेरे लिए देश और विदेश नहीं है। विदेश शब्‍द ही मेरी भाषा में नहीं है। मेरे लिए कोई विदेशी नहीं है। वह शब्‍द अपमानजनक है। किसी को भूलकर विदेशी मत कहना।
हम सब एक देश के वासी हैं, विदेश कहां है? तो मैं यहां रहूं कि इंग्लैंड में, कि अमरीका में, कि जापान में, इससे विदेश जा रहा हूं यह बात तो छोड़ ही देना। जो मुझे समझते हैं, वह विदेश शब्द को तो छोड़ ही दें। विदेश तो कुछ भी नहीं है, यह जमीन तो एक है। यह पृथ्वी तो एक है। सबै भूमि गोपाल की। यह तो सारी भूमि एक ही प्रभु की है। इसमें विदेश कहा!
सोचो, अगर उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले मैं लाहौर चला जाता तो देश जाता, और अब चला जाऊं तो विदेश चला गया। लाहौर वहीं का वहीं है। लेकिन पागल राजनीतिज्ञों ने बीच में एक रेखा खींच दी, तो आज विदेश हो गया।
मैंने सुना है एक पागलखाने के संबंध में। जब उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत बंटा, तो सआदत हसन मंटो ने एक कहानी लिखी। कहानी थी कि एक पागलखाना था जो दोनों देशों की सीमा पर पड़ता था। अब पागलखाने में कोई बहुत उत्सुक भी नहीं था कि भारत में रहे कि पाकिस्तान में जाए। किसको फिकर थी पागलखाने की! लेकिन कहीं तो जाना ही चाहिए। आखिर पागलखाने को बांटना तो पड़ेगा, कहां जाए? और कोई उत्सुक नहीं दिखायी पड़ रहा था।
तो पागलखाने के प्रधान ने पागलों ही से पूछा कि तुम्हीं तय कर लो, कहां जाना है! तो पागलों ने कहा, हमें तो कहीं नहीं जाना है, हमें तो यहीं रहना है। अरे, उन्होंने कहा, तुम यहीं रहोगे, जाओगे कहीं भी नहीं। पागल बड़े बेबूझ पड़े। पागल कहने लगे कि हम तो सोचते थे कि हम पागल हैं, तुम पागल हो गए! अगर यहीं रहेंगे, तो तुम यह पूछते ही क्यों हो कि कहां जाना है? जब यहीं रहेंगे, तो ठीक, बात खतम हो गयी। लेकिन उस प्रधान ने समझाया कि समझने की कोशिश करो, पागलो! तुम्हें हिंदुस्तान में जाना है कि पाकिस्तान में जाना है? रहोगे तो यहीं। पागलों ने सिर पीट लिया, उन्होंने कहा कि आपका दिमाग भी हमारे साथ खराब हो गया! जब रहेंगे यहीं, तो कैसा हिंदुस्तान कैसा पाकिस्तान!
बड़ा मुश्किल में पड़ा वह प्रधान, उनको समझा न पाए। कैसे समझाए! वह उनकी जिद्द यह कि जब जाने की बात उठ रही है, तो फिर रहने की बात में बड़ा विरोध है। दोनों बातें साथ—साथ कैसे हो सकती हैं!
आखिर कोई उपाय न देखकर ऐसा किया कि उस पागलखाने के बीच में से दीवाल उठा दी। आधे पागल, उस तरफ जो पड़ गए, जिनकी कोठरियां उस तरफ थीं, वे उस तरफ हो गए। आधे पागल इस तरफ पड़ गए, जिनकी कोठरियां इस तरफ थीं, वे इस तरफ हो गए। उधर पाकिस्तान हो गया, इधर हिंदुस्तान हो गया। मैंने सुना है कि उस पागलखाने की दीवाल पर पागल अभी भी चढ़ आते हैं दोनों तरफ से, बैठ जाते हैं दीवाल पर उचककर, कहते हैं, बड़ा गजब हो गया, तुम भी वहीं हो, हम भी वहीं हैं, तुम पाकिस्तान चले गए, हम हिंदुस्तान चले गए! बड़ा गजब हो गया! अभी तक उनको भरोसा नहीं आता कि यह हुआ क्या मामला!
राजनीति का पागलपन है—देश की सीमाएं, राष्ट्र की सीमाएं! इसलिए पहली बात तो यह तुम भूल ही जाओ कि मैं विदेश जा रहा हूं या जा सकता हूं। क्योंकि मेरे लिए विदेश कोई नहीं। जहां भी हू एक ही पृथ्वी है, एक जैसे लोग हैं, एक जैसी पीडाएं हैं, एक जैसा संताप है, एक जैसी समस्याएं हैं और एक जैसा समाधान है, एक जैसा ध्यान है, एक जैसी समाधि है। एक ही परमात्मा है, एक ही पृथ्वी है।
दूसरी बात, अगर विदेश शब्द से बहुत प्रेम हो तो फिर ऐसा करो कि समझो कि हम सभी विदेशी हैं। अगर शब्द से बहुत लगाव हो गया है और बचाना ही है, तो फिर ऐसा समझो कि हम सभी विदेशी हैं। क्योंकि यहां हमारा घर तो है नहीं, जाना तो पड़ेगा ही किसी और घर की तलाश में, तो यह विदेश ही हो सकता है।
लेकिन तब देश कोई नहीं है। तब सब विदेश है। चाहे भारत में रहो, चाहे पाकिस्तान में, चाहे चीन में, चाहे तिब्बत में, सब विदेश है। क्योंकि घर, देश तो कहीं और है। कबीर कहते हैं, चल हंसा वा देस। उस देश चलें हंस, जो अपना है। सच में अपना है। जहां से हम आए और जहां हमें जाना है।
तो अगर तुम्हें देश शब्द से प्रेम हो, तो सारी पृथ्वी देश है। अगर तुम्हें विदेश शब्द से प्रेम हो, तो सारी पृथ्वी विदेश है। मगर किसी को विदेशी मत कहना और किसी को देशी मत कहना। ये सीमाएं गलत हैं। ये सीमाएं तोड़ देने का यहां उपाय चल रहा है। यहां मैं हिंदू—मुसलमान के बीच की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। गोरे और काले के बीच की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। पूरब और पश्चिम की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। उत्तर और दक्षिण की दीवाल गिरा देना चाहता हूं। यहां दीवालें गिराने का ही काम चल रहा है। जिस दिन तुम्हारे आसपास कोई दीवाल न रहेगी, उस दिन तुम मुक्त हुए।
अब तुम चकित होओगे, तुमने मान लिया है कि मैं हिंदू हूं? मुसलमान हूं? सिख हूं, जैन हूं तुमने कारागृह बना लिया। तुमने मान लिया—हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, अफगानिस्तानी, तुमने फिर कारागृह बना लिया। और फिर कारागृह के भीतर और छोटे कारागृह। और उनके भीतर और छोटे कारागृह—कि महाराष्ट्रियन, कि गुजराती। फिर महाराष्ट्रियन में और छोटे कारागृह—कि देशस्थ, कि कोकणस्थ। चले, बनाते जाते कोठरियों में कोठरियां, कोठरियों में कोठरियां। आखिर में तुम्हीं बचते हो, चारों तरफ दीवाल हो जाती है। फिर तडूफते। फिर चिल्लाते।
एक घर में मैं मेहमान था। सामने एक बड़ा मकान बन रहा था और एक छोटा बच्‍चा, रेत के ढेर लगे थे, ईंटें लगी थीं, उनसे खेल रहा था। उसने अपने चारों तरफ धीरे— धीरे ईंटें रखकर—बैठा—बैठा खेलता रहा, ईंटें जमाता गया चारों तरफ, फिर धीरे — धीरे ईंटें उससे ऊंची हो गयीं, तब वह चिल्लाया। क्योंकि अब निकले कैसे! तब वह चिल्लाया कि मुझे बचाओ! खुद ही रख रहा है ईंटें। अपने चारों तरफ ईंटें जमा लीं, अब ईंटें बड़ी हो गयीं, अब उनके बाहर निकल नहीं सकता, अब घबड़ाया कि यह तो मौत हो गयी।
ये ईंटें तुमने ही रखी हैं। अब चिल्ला रहे हो, बचाओ। अब कहते हो, मोक्ष कैसे हो? और तुम जो भी कर रहे हो उससे जंजीरें निर्मित हो रही हैं।
यहां तो जंजीरें तोड़ने का काम है। इसलिए यह भाषा तो छोड़ दो।
रही इस जगह से किसी और जगह जाने की बात। तो हालात इस देश के कुछ ऐसे होते जा रहे थे कि जैसे देश एक बड़ा कारागृह बन गया। यहां कोई स्वतंत्रता न रही। एक शिकंजा, एक तानाशाही शिकंजा मुल्क को छाती पर कसा जाने लगा। अब मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, मुझे राजनीति से कुछ लेना—देना नहीं है। कौन हुकूमत में रहे, कौन न रहे, इससे मुझे प्रयोजन नहीं। मैंने अपने जीवन में कभी वोट नहीं दिया। क्योंकि दो पागलों के बीच किसको वोट दो! तो मुझे कोई राजनीति में तो जरा भी रस नहीं है। कौन हुकूमत करे? कोई भी पागल करे—कोई न कोई पागल करेगा। मेरी गिनती में वे सब पागल हैं। राजनीति में पागल ही उत्सुक होते हैं।
लेकिन हालात बिगड़ते चले गए और ऐसा लगा कि लोकतंत्र की कोई स्थिति न रह जाएगी। और, और तो और, राजनीतिज्ञों की तो छोड़ दो, जिनको लोग संत कहते हैं, राष्ट्र—संत कहते हैं—विनोबा भावे को राष्ट्र —संत कहते हैं, कहना चाहिए सरकारी—संत—औरों की तो बात छोड़ दो, विनोबा जैसे व्यक्ति को भी चमचागीरी सूझी। वे भी कहने लगे कि यह अनुशासन का महापर्व है। यह जो डिक्टेटरशिप आ रही, यह जो तानाशाही, अधिनायकशाही आ रही, इसको उन्होंने नयी व्याख्या दे दी। उन्होंने कहा, यह अनुशासन पर्व है।
झूठी बातें हैं। परतंत्रता को अनुशासन पर्व कह दिया।
तो ऐसा लगा कि यहां काम करना मुश्किल हो गया। छोटी—छोटी बात पर इतना उपद्रव कि कोई काम करना संभव नहीं। और मेरा तो सारा काम आदमी को स्वतंत्र बनाने का। सब तरह से स्वतंत्र बनाने का। सब सीमाएं तोड़ने का। और अगर काम असंभव ही हो जाए—तो तुम्हारे लिए ही मैं यहां हूं अगर काम ही न कर सकूं तुम्हारे लिए तो फिर कहीं और से करूंगा। काम तो तुम्हारे लिए ही करूंगा, लेकिन कहीं —गौर से करूंगा। ऐसी मजबूरी के कारण सोचा था। शायद अब जाने की जरूरत न पड़े। लेकिन कहीं भी रहूं —यहां रहूं? वहां रहूं, कहीं भी रहूं —इससे कोई फर्क नहीं पडता। जो काम मैंने चुना है, वह हो जाए। किसी तरह आदमी को स्वतंत्रता का थोड़ा स्वाद आ जाए। थोडे से लोगों को आ जाए, तो उनके द्वारा तरंगें फैलती रहेंगी। वे थोड़े से लोग उदघोषणाए बन जाएंगे। उन थोड़े से लोगों के द्वारा, शुरू—शुरू में चाहे कानाफूसी हो चलेगी, लेकिन खबरें फैलती जाएंगी।
यह बात कुछ ऐसी बात नहीं है कि इसके लिए बहुत प्रचार करना पड़े। यह बात कुछ ऐसी बात है कि इसका प्रचार अपने से हो जाएगा। सत्य का प्रचार करना नहीं होता, सत्य का प्रचार अपने से हो जाता है। झूठ का प्रचार करना होता है। और प्रचार करना बंद किया कि झूठ गिर जाता है।
तो यह बात तो फैलती रहेगी। इतना ही है कि थोड़ी सुविधा हो, तो अनुकूलता से फैल जाए।

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