Saturday 3 October 2015

कहते है कि पारस लोहे के गुण— अवगुण का विचार किए बिना उसे शुद्ध सोना बना देता है। फिर ऐसा क्यों है कि आपके पास पहुंचकर भी मैं अतृप्त ही बना हूं? क्या आपकी कृपा के लिए पात्रता प्राप्त करनी होगी?
पहली बात, पारस लोहे को सोना बना देता है, मिट्टी के ढेले को रखकर देखा पास के पास? लाख सिर पटके तो मिट्टी का ढेला सोना नहीं बनता। लोहा तो होना चाहिए न।
और लोहे में क्या गुण—दोष होते हैं, जरा मुझे बताओ! लोहा लोहा होता है। तुमने नरसी मेहता का भजन सुना है? —इक लोहा पूजा में राखत, इक रहत बधिक घर परी। तो नरसी मेहता सोचते हैं कि जो हत्यारे के घर पड़ा हुआ लोहा है, जिससे वह जानवरों की गर्दन काटता है, वह बुरा। और जो लोहा पूजा में रखते हैं, वह भला। क्योंकि पूजा में रखा है।
यह बात जंचती नहीं। क्योंकि बुराई अगर होगी तो बधिक में होगी, लोहे में क्या होगी? लोहा तो लोहा है। चाहे तुम हत्या करो लोहे से, तो लोहा हत्या नहीं कर रहा है, ध्यान रखना। इसलिए बुराई लोहे की हो नहीं सकती। यह दुर्गुण लोहे का नहीं है। यह तो जिसके हाथ में लोहा पड़ गया था, उसका दुर्गुण है। एक ही तलवार है, उससे तुम किसी की गर्दन काट सकते हो और किसी की कटती गर्दन को कटने से रोक भी सकते हो। कोई गुंडे हमला किए हुए हैं एक स्त्री पर और बलात्कार करने जा रहे हों और तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो तुम रोक दे सकते हो। तो तलवार उस कारण सज्जन न हो जाएगी। और किसी की हत्या कर दो तलवार से तो तलवार उस कारण दुर्जन न हो जाएगी। तलवार तो बस तलवार है। तलवार को क्या लेना—देना!
तो चाहे पूजा—घर में रखा हुआ लोहा हो और चाहे हत्यारे के घर रखा हुआ लोहा हो, लोहे में कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए पारस के पास दोनों लोहे ले आओ तो दोनों ही सोना हो जाते हैं। लेकिन संत के पास हत्यारे को लाओ और पूजा करने वाले को लाओ तो फर्क पड़ेगा। दोनों लोहों में तो कोई फर्क था ही नहीं, दोनों लोहे थे। तुमने लोहे पर झूठे गुण आरोपित कर लिए। हत्यारे का गुण तुमने लोहे पर आरोपित कर लिया। वह हत्यारे की बात थी।
तो पहली तो बात तुम ठीक से समझना कि पारस लोहे को सोना कर सकता है, मिट्टी के ढेले को नहीं। और अगर तुम सोना न बन पा रहे हो तो थोड़ा विचार करना—लोहा हो? लोहा अगर हो, तो पात्र हो। तो बन जाओगे। अगर लोहा ही नहीं हो, तब बड़ी मुश्किल है।
तुम्हारा मन यह होता है कि किसी पर टाल दो जिम्मेवारी। तुम्हारा मन यह कहेगा कि अभी तक नहीं बने सोना, मतलब साफ है कि जिसको पारस समझा वह पारस नहीं है। यही तो आदमी का मन है, जो जिम्मेवारियां टालता है। तुम कुछ करना नहीं चाहते, अब तुम प्रतीक्षा करते हो कि अगर हो जाए तो ठीक, न हो तो पारस की जिम्मेवारी।
इसी को तो मैं मिट्टी का लोंदा होना कहता हूं। मिट्टी के लोंदे होने का मतलब है, कुछ भी करने को नहीं, पड़े हैं मिट्टी के लोंदे की तरह—गोबर—गणेश! लगते हैं गणेश जी जैसे, बिलकुल गणेश जी जैसे लगते, मगर हैं गोबर के। मिट्टी के लोंदे का अर्थ है कि तुमने अपने जीवन को अपने हाथ में लेना नहीं सीखा। तुम थपेड़ों पर जी रहे हो। कोई कर दे, तुम बस बैठे हो। तुम भिखारी हो। कोई दे दे तो ठीक, कोई न दे तो गाली—गलौज। लेकिन तुम उठकर कुछ भी करने की तैयारी में नहीं हो। यह तुम मिट्टी के लोंदे हो। पारस भी तुम्हें कुछ न कर पाएगा।
थोड़ा उठो। थोड़ा करने में लगो। थोड़ा जीवन को बदलने के लिए श्रम, थोड़ा ध्यान, थोड़ी प्रार्थना, थोड़ी पूजा।
बुद्ध ने कल कहा, कि गलत जो मालूम पडे, उस आदत को तोड़ना। जो ठीक मालूम पड़े, उसके अभ्यास को गहरा करना। और चित्त को रोज—रोज निखारते जाना ताकि और— और साफ—साफ दिखायी पड़ने लगे कि क्या गलत है, क्या ठीक है।
अक्सर लोग सोचते हैं कि जैसे यह कोई मेरी जिम्मेवारी है। अगर तुम भटक गए, तो तुम भगवान के सामने यह न कह सकोगे कि हम क्या करें, कोई पारस मिला ही नहीं। तुम यह न कह सकोगे। अगर तुम ठीक से समझो, तो पारस भी तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम उसे खोजो। बिना खोजे न मिलेगा। पारस कहीं बाहर नहीं रखा है। पारस भी तुम्हारे भीतर पड़ा है। उस पारस का नाम ही ध्यान है, सुरति। या जो भी नाम तुम देना चाहो, समाधि, संबोधि। उस पारस का नाम ही ये सब शब्द उपयोग किए गए हैं। उस पारस को खोजो, वह तुम्हारी चेतना में पडा है। तुम्हारी चेतना ही जैसे—जैसे निखार पर आती, शिखर बनता चेतना का, वैसे—वैसे पारस निर्मित हो जाता है। और चेतना का पारस निर्मित हो जाए तो जीवन का लोहा तत्‍क्षण सोना बन जाता है।
मेरे आधार पर तुम सोना नहीं बन सकते, मेरे आधार पर तुम अपने भीतर का पारस खोज सकते हो। गुरु तुम्हें, पारस नहीं बन सकता गुरु, लेकिन गुरु ने अपना पारस पा लिया है तो वह जानता है, कैसे पारस को पाया जाता है। वह तुम्हें बता सकता है कि तुम अपने पारस को कैसे पा सकते हो।
और अच्छा भी यही है कि गुरु पारस नहीं बनता, नहीं तो तुम तो नपुंसक के नपुंसक रह जाते। तुम्हारा क्या मूल्य? पारस ने तुम्हें सोना बना दिया और फिर कहीं कोई एंटी—पारस मिल जाता, तो फिर लोहा का लोहा कर देता। तुम वही के वही रहे। तुम कहते, अब हम क्या करें, हमारे हाथ में तो कुछ है नहीं। पारस मिल गया तो सोना बन गए, एंटी—पारस मिल गए! और ध्यान रखना, दुनिया में दोनों चीजें होती हैं। एंटी—पारस की बात शास्त्रों में नहीं है, क्योंकि शास्त्रों में बहुत सी बातें तुम्हारे लोभ के कारण लिखी गयी हैं। क्योंकि तुमने ही लिखी हैं। या तुम जैसों ने ही लिखी हैं। या तुम जैसों ने ही लिखवा ली हैं। तो एंटी—पारस की कोई बात नहीं है। लेकिन इस जगत में हर चीज का विरोधी होता है।
अगर ऐसा है कि पारस से लोहा सोना हो जाता है, तो जरूर कहीं कोई ऐसी कीमिया होगी जिससे सोना लोहा हो जाए। फिर तो तुम बिलकुल ही नपुंसक हो गए, तुम्हारे हाथ में कुछ भी न रहा।
नहीं, इस तरह पारस से सोना बनना भी मत! अगर मैं कहूं भी कि मैं बनाने को तैयार हूं, तो कहना, रुको, मुझे खोजने दो खुद। क्योंकि अपने से बनूंगा तो फिर मुझे कोई मिटा न सकेगा। ऐसे किसी और से बन गया, तो मिट जाऊंगा। फिर कोई मिटा देगा। तो ऐसे बनने का कोई मूल्य नहीं है। यह बड़ा सस्ता बनना हुआ। और सत्य इतना सस्ता नहीं मिलता है।
पात्रता का इतना ही अर्थ होता है कि तुम उठो, आंख खोलो, थोड़ा चलो, मेरा हाथ तुम्हारा साथ देने को तैयार है, मैं तुम्हें दूर तक ले चलने को राजी हूं, लेकिन उठो, चलो। तुम सो रहे हो चांदर ताने और तुम कहते हो, मंजिल नहीं मिलती! तुम यहां से हटना भी नहीं चाहते। तुम चाहते हो कोई स्ट्रेचर में डालकर और तुम्हें मंजिल पहुंचा दे। तो फिर मंजिल न हुई, अस्पताल होगा। फिर मंदिर नहीं होगा, अस्पताल होगा। अस्पताल जाना हो, तुम्हारी मर्जी! तो कोई स्ट्रेचर में डालकर और एंबुलेंस गाड़ी को बुलाकर ले जाएगा। तुम मुर्दा हो। तुम अर्थी बनकर जाना चाहते हो। चार आदमियों के कंधे पर सवार हो गए, अर्थी बन गए और चले!
एक सूफी फकीर मर रहा था। ठीक मरने के पहले वह उठ खड़ा हुआ अपनी शथ्या से और उसने कहा, मेरे जूते कहां हैं? तो उसके शिष्यों ने कहा, क्या करते हैं आप? चिकित्सक कह रहे हैं कि अब आप बचेंगे नहीं। वे कहते हैं, वह तो मैं भी जानता हूं चिकित्सक के कहने से क्या लेना—देना है! घड़ी मेरी करीब आ रही है, सूरज डूबने को हो रहा है, उसी के साथ मैं डूब जाऊंगा, जूते लाओ जल्दी! पर उन्होंने कहा, अब जूते लाकर करना क्या है, आप विश्राम करें। उसने कहा, अब विश्राम करके क्या करना है? मौत तो आ रही है। और मैं किसी के कंधे पर सवार होकर मरघट नहीं जाना चाहता। जूते ले आओ, मैं मरघट चलता हूं। अपनी कब्र खुद खोदूंगा। अपना जीवन खुद जीया, अपनी मौत भी खुद मरूंगा। उधार नहीं।
अजीब आदमी रहा होगा! वह गया। लोग तो चौंककर देखते रहे, ऐसी घटना तो कभी घटी न थी कि कोई आदमी खुद ही मरघट जा रहा है। मरघट तो लोग दूसरे के सिर पर चढ़कर जाते हैं। सदा से पुरानी आदत है। जीए भी दूसरों के सिर पर चढ़कर, मरते भी दूसरों के सिर पर चढ़कर चले जाते।
वह गया, उसने कुदाली हाथ में ले ली, उसने अपनी कब्र खोदी। और लोगों ने कहा, हम साथ दे दें! उसने कहा कि रुको, मेरे काम में बाधा मत डालो, मैं यह न चाहूंगा कि परमात्मा मुझसे कह सके कि मैंने किसी के कंधे पर किसी तरह की सवारी की। मैं जीवन अपने ढंग से जीया हूं मरूंगा भी अपने ढंग से। उसने अपनी कब्र खोद ली, वह कब्र में लेट गया और उसने कहा कि नमस्कार, मित्रो! आंख बंद कर ली और मर गया। अगर उसका वश होता तो वह कब्र पर मिट्टी भी खुद फेंक लेता।
ऐसा व्यक्ति ही वस्तुत: प्राणवान है। जीयो अपने ढंग से और मरो भी अपने ढंग से। तो तुम्हारे जीवन में बडी सुगंध आएगी। यह भी क्या बात कि पारस छू दे और हम सोना बन जाएं! मिट्टी के लोंदे हो फिर तुम। फिर पारस भी काम न आएगा। बुद्ध ने कहा है, बुद्धपुरुष केवल मार्ग दिखाते हैं, चलना तो तुम्हीं को पड़ेगा। पहुंचना भी तुमको पड़ेगा। उनके इशारों को समझ लो और चल पड़ो।
पूछते हो कि ‘मैं अब भी अतृप्त ही बना हूं। ‘
शायद यही कारण होगा कि तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो। शायद यही कारण होगा कि तुमने मान लिया है कि अब पहुंच गए भगवान के सान्निध्य में, बात खतम हो गयी। अब और क्या करने को है! अब करो तुम। अब हम देखेंगे, क्या करते हो! और बाधा डालेंगे सब तरह की—करने भी न देंगे—करो तुम! सहयोग भी न दे गे, असहयोग भी करेंगे, फिर देखें क्या करते हो? ऐसे भाव से तो यात्रा नहीं होगी, अतृप्ति रहेगी।
तृप्ति चाहते हो—उठो, जागो, चलो।

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