Sunday 31 May 2015

गीता में सुना, तो मन को खुशी हुई होगी; क्योंकि गीता पहले से ही माने बैठे थे। तो लगा होगा कि ठीक वही कह रहे हैं, जो मैं मानता हूं। चित्त को बड़ी शांति मिलती है। मेरे अहंकार में एक और ईंट जुड़ गई। मकान और थोड़ा बड़ा हुआ। अगर कोई ऐसी बात पता चले कि मकान की एक ईंट खिसक गई और नींव हिलने लगी, तो बेचैनी होती है। हम सत्य की तलाश में थोड़े ही हैं; हम अपने ही मन की तलाश में हैं। हमारा मन सिद्ध हो जाए; और सब बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर हमारे गवाही हो जाएं। गवाही, अदालत में जैसे आदमी गवाहियां खड़ी कर देता है कि ये बारह गवाह खड़े हैं मेरे; ऐसा हमारा भी मन है कि महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, हमारे गवाह की तरह खड़े हो जाएं और कहें कि तुम बिलकुल ठीक हो। तुम ठीक हो, यह सारे लोग कह दें, तो चित्त बड़ा प्रसन्न होता है।
लेकिन ये लोग बड़े गड़बड़ हैं। यह आपको ठीक करने की इन्हें जरा भी चिंता नहीं है। जो ठीक है, वही ठीक है; चाहे उसमें आपको मिटना ही क्यों न पड़े। लेकिन ध्यान रखें, उनकी दया बड़ी है। अगर आपको ठीक कह दें, तो आप बीमार ही बने रहोगे। आपकी बीमारी और बढ़ेगी। समर्थित हो जाएगी, तो और बढ़ेगी। आप कोई भी धारणा जब तय ही कर लेते हैं, तो फिर सत्य की खोज उसी क्षण बंद हो गई। सत्य की तरफ जाने का अर्थ ही है कि मैं निष्पक्ष जा रहा हूं।
लेकिन उन मित्र ने पूछा है कि अगर हम इसको मान ही न लें कि आत्मा भीतर है, तो आत्मा को जानने की प्रवृत्ति ही क्यों पैदा होगी?
उनका खयाल है कि जिज्ञासा तभी पैदा होती है, जब हमें पता हो कि कुछ है। लेकिन जिज्ञासा यह भी तो हो सकती है कि हमारे मन में खयाल उठे कि कुछ है या कुछ नहीं है? आप इस कमरे के बाहर से निकले; इस कमरे के भीतर क्या है, इसके जानने की जिज्ञासा हो सकती है बिना यह जाने कि क्या है। सच तो यह है कि अगर आपको पक्का ही पहले से भरोसा हो गया है कि कमरे के भीतर क्या है, तो जिज्ञासा की कोई जरूरत न रह गई। जितना बड़ा भरोसा, उतनी कम जिज्ञासा। और अगर श्रद्धा पूर्ण है बिना जाने, तो जिज्ञासा की कोई आवश्यकता ही न रही।
क्या जरूरत है? अगर आपको पता ही है कि भीतर आत्मा है और महावीर, बुद्ध और सब खोज-खोज कर कह गए, अब हम और किसलिए मेहनत करें? और एक दफा पता चल गया, बात खतम हो गई कि है भीतर, हम दूसरा काम करें। इसी में क्यों समय लगाएं? अगर आपको पक्का ही पता चल गया, तो जिज्ञासा मर जाएगी।
नहीं, आपको कुछ भी पता नहीं कि भीतर क्या है। एक घुप्प अंधकार है। ओर-छोर पता नहीं चलते। कोई पहचान नहीं मालूम होती। क्या है भीतर? है भी कुछ या नहीं है? मृत्यु है या अमृत? वहां कोई है भी या सिर्फ एक शून्य है? तब जिज्ञासा पैदा होती है।
जिज्ञासा का अर्थ है: जहां आप अवाक खड़े हैं और आपको कुछ भी पता नहीं है। जहां धारणा है, वहां आप अवाक नहीं हैं; आपको पता है ही। इसलिए धारणा वाले लोग जिज्ञासु नहीं होते। जिज्ञासा की तो परिपूर्णता तभी है, जब धारणा की परम शून्यता हो। जिस मात्रा में धारणा, उस मात्रा में जिज्ञासा कम हो जाएगी।
इसलिए बच्चे जिज्ञासु होते हैं, देखा है; बूढ़े जिज्ञासु नहीं होते। क्या कारण है? बच्चे ऐसे प्रश्न पूछते हैं कि बड़े-बड़े बूढ़े भी उनका जवाब नहीं दे पाते। बच्चे जिज्ञासु होते हैं, क्योंकि धारणा उनकी कोई भी नहीं है। बूढ़े की जिज्ञासा समाप्त हो जाती है, धारणा ही धारणाओं का ढेर लग गया होता है, जिज्ञासा बिलकुल नहीं रह जाती। बूढ़े भी उसी जगत में खड़े होते हैं, बच्चे भी उसी जगत में खड़े हैं; लेकिन बूढ़ों को कोई जिज्ञासा पैदा नहीं होती। सुबह सूरज निकलता है; बूढ़ा भी देखता है, बच्चा भी देखता है। बच्चे को तत्काल जिज्ञासा पैदा होती है–क्या है? पक्षी गीत गाता है। बच्चे को जिज्ञासा होती है–क्या है? बूढ़े को कोई जिज्ञासा नहीं होती। अगर बच्चा पूछता भी है, तो वह कहता है, चुप रहो! जब बड़े हो जाओगे, जान लोगे।
इसको खुद भी बड़े होकर पता नहीं चला है। मगर एक बात इसको पता चल गई है कि बड़े होते-होते जिज्ञासा मर जाती है। पूछेगा ही नहीं, जानने का कोई सवाल नहीं है। यह बेटा भी कल बूढ़ा होकर अपने बेटे से कहेगा कि घबड़ाओ मत, अभी तुम्हारी उम्र कम है, जब उम्र बड़ी हो जाएगी, सब जान लोगे। लेकिन जिनकी उम्र बड़ी है, उनको क्या पता है? कुछ पता नहीं है। सिर्फ उनकी जिज्ञासा मर गई। उनकी जो ताजगी थी पूछने की, वह खो गई। जो खोजने की आकांक्षा थी, वह मर गई। ढेर सिद्धांतों के उनके पास हो गए। हर चीज का उत्तर उनके पास है। प्रश्न उनके पास एक भी नहीं है, उत्तर उनके पास सब हैं। प्रश्न उनके बिलकुल खो गए हैं। जानकारी बहुत उनके पास हो गई है।
इसलिए बूढ़े के भीतर शरीर ही बूढ़ा हो जाए, यह तो स्वाभाविक है। लेकिन यह आत्मा का बूढ़ा हो जाना है। शरीर तो बूढ़ा हो, यह स्वाभाविक है। लेकिन अगर किसी बूढ़े के भीतर शरीर बूढ़ा हो और बच्चे जैसी जिज्ञासा जारी रहे, तो बुढ़ापे से ज्यादा सुंदर और घटना जगत में दूसरी नहीं है। क्योंकि तब बच्चे जैसी ताजी ओस सुबह की भीतर होती है। और जिंदगी के अनुभव कचरे की तरह दबा नहीं पाते और जिंदगी की धारणाएं राख नहीं बन पातीं, तो वैसे बूढ़े की आंखों में बच्चा झांकता है। और जिस दिन अनुभव हो बूढ़े का और जिज्ञासा हो बच्चे की, उस दिन व्यक्ति सत्य के निकटतम होता है।
लेकिन हमारी तकलीफ यह है कि हम सोचते हैं कि अगर हमें पहले से पता ही नहीं है, तो हम खोजने ही क्यों जाएंगे?
खोजने जाने का मतलब ही यह होता है कि पता नहीं है, इसलिए हम खोजने जाते हैं। धारणा हत्या है स्वयं की और सत्य से बचने का उपाय है।
कहा है उन्होंने, “क्या जिज्ञासा का मूल कारण वस्तुत्तत्व का पूर्व-ज्ञान नहीं है?’
अगर पूर्व-ज्ञान ही है, तो जिज्ञासा तो फिर मूढ़ता होगी। ज्ञान के भी पूर्व ज्ञान कैसे हो सकता है? ज्ञान होगा, तभी! और जब ज्ञान होगा, तो जिज्ञासा खो जाएगी।
खतरा यही है कि बिना ज्ञान हुए भी जिज्ञासा खो सकती है, अगर हम दूसरों के ज्ञान को अपना ज्ञान मान लें। उसे हम पूर्व-ज्ञान कहते हैं। महावीर कहते हैं कि आत्मा है अनंत वीर्य, अनंत आनंद, अनंत ज्ञान; ऐसी है, ऐसी है, ऐसी है। यह उनका ज्ञान है। हमारे लिए यह पूर्व-ज्ञान बन सकता है। इस पूर्व-ज्ञान का मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ, यह महावीर का ज्ञान है; हमें तो कुछ पता नहीं इस आत्मा का। लेकिन महावीर के शब्दों को हम स्वीकार कर लेते हैं।
महावीर के शब्दों को कितने लोग स्वीकार किए हुए हैं; उनमें से कौन महावीर की खोज पर जाता है? बुद्ध को कितने करोड़ों लोग मानते हैं; लेकिन कौन बुद्ध जैसा खोजता है? वह तो भला हो कि बुद्ध को कोई और बुद्ध नहीं मिला पूर्व-ज्ञान देने वाला। खुद ही खोजा, तो पाया। सत्य स्वयं की खोज से मिलता है। इतना सस्ता नहीं है कि दूसरे से मिल जाए।
हां, दूसरे से ज्ञान मिल सकता है। लाओत्से उस ज्ञान को ही कहता है, छोड़ो! यह बुद्धिमत्ता छोड़ो, जो उधार है।
पूछा है, “क्या स्व-बोध आनंद-रूप नहीं है? यदि है, तो स्व-बोध को आनंद-रूप मानने में आपको संकोच क्यों है? श्रुतियां तो आत्मा को स्पष्ट रूप से आनंद-स्वरूप मानती हैं।’
श्रुतियां मानती होंगी। जिन्होंने कहा होगा, उन्होंने जाना होगा। जिन्होंने जाना है, उन सभी ने कहा है कि वह आनंद-रूप है। लेकिन खतरा तो वहां शुरू होता है कि जिन्होंने नहीं जाना वे भी मान लेते हैं कि वह आनंद-रूप है। खतरा जानने वालों का नहीं है, खतरा सुनने वालों के साथ है। आप भी मान कर बैठ जाते हैं कि आनंद-रूप है। आपको न आनंद का पता है कि आनंद क्या है, आनंद-रूप का क्या अर्थ होगा! न आत्मा का पता है कि आत्मा क्या है! न आनंद का पता है कि आनंद क्या है! लेकिन यह वाक्य बड़ा सुरुचिकर लगता है कि आत्मा आनंद-रूप है। इसका अर्थ क्या होगा?
दुख आपने जाना है। सुख की कभी कोई झलक पाई होगी। आनंद की तो कोई झलक आपको नहीं है। तो जब भी आप समझते हैं कि आत्मा आनंद-रूप है, आप सोचते हैं, खूब सुख, सदा सुख रहेगा, ऐसी कुछ होगी। आपके लिए आनंद का अर्थ सुख का ही विस्तार हो सकता है। सघन सुख होगा, कभी समाप्त न होने वाला सुख होगा–यही आपकी धारणा हो सकती है।
आनंद का सुख से उतना ही संबंध है, जितना दुख से। दोनों से कोई संबंध नहीं है। आत्मा का भी पता नहीं, आनंद का भी पता नहीं; लेकिन शब्द सुनते-सुनते लगता है कि पता हो गया–आत्मा आनंद है। इसको दोहराते रहें बैठ कर: आत्मा आनंद है, आत्मा आनंद है। उससे कुछ भी नहीं होगा।
लाओत्से की दृष्टि यह नहीं है कि आत्मा आनंद नहीं है। लाओत्से यह कह रहा है कि हम कुछ न कहेंगे कि आत्मा क्या है। तुम्हीं जाओ और जानो। हम इतना ही कहेंगे कि तुम कैसे जा सकते हो। हम यह न कहेंगे कि जाने पर तुम्हें क्या मिलेगा। क्योंकि तुम इतने धोखेबाज हो कि बिना जाए यहीं बैठ कर रटने लगोगे कि आत्मा आनंद है, आत्मा आनंद है। और बार-बार पुनरुक्त करके अपने को ही सम्मोहित कर लोगे और यह भूल ही जाओगे कि तुम पहुंचे नहीं हो, तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
सत्य क्या है, इसे कहने से आपको शब्द सुनाई पड़ते हैं, सत्य सुनाई नहीं पड़ता। शब्द सुनाई पड़ते हैं, और बार-बार सुनने से शब्द परिचित हो जाते हैं। और परिचित शब्द खतरनाक हैं।
यहूदियों में एक प्रथा है और कीमती प्रथा है कि परमात्मा का नाम न लिया जाए। तो यहूदियों ने परमात्मा का जो नाम रखा है: वह है याहवेह। उस शब्द का इतना ही मतलब होता है कि जिसका कोई नाम नहीं है। क्योंकि नाम बार-बार दोहराने से कहीं ऐसा भ्रम न पैदा हो जाए कि तुम जानते हो। और याहवेह, जिस शब्द का अर्थ इतना ही होता है कि जिसका कोई नाम नहीं, इसका भी उपयोग नहीं करना है। नहीं तो यही नाम बन जाएगा।
आदमी के लिए तकलीफें हैं। और उन तकलीफों को जो समझते हैं, वे नहीं कहेंगे कि क्या है आत्मा; वे इतना ही कहेंगे कि कैसे तुम जा सकते हो, जाओ। अंधे से क्या फायदा है कहने का कि प्रकाश क्या है। इतना ही काफी है कि क्या है इलाज, क्या है औषधि कि आंखें खुल जाएं। और खतरा है यह कि अंधे को आप बता दें कि प्रकाश यह है और अंधा भी सुन ले। क्योंकि अंधा बहरा तो नहीं है, सुनता है। बल्कि सच यह है कि आंख वालों से अंधे ज्यादा सुनते हैं।
खयाल किया आपने, अंधों के कान तेज हो जाते हैं। आंख की ताकत भी कान को ही मिल जाती है। तो अंधे सुनने में बड़े कुशल हो जाते हैं। अंधों की स्मृति भी ज्यादा होती है आंख वालों से। क्योंकि आंख से बनती हैं हमारी कोई नब्बे प्रतिशत स्मृतियां। वह काम बंद हो जाता है। तो सारी स्मृति की शक्ति कान को मिल जाती है। तो अंधे की स्मृति भी बड़ी तीव्र होती है।
तो अंधे को अगर कोई बता दे कि प्रकाश क्या है, तो वह सुन भी लेगा, समझ भी लेगा, समझेगा कि समझ लिया, कंठस्थ कर लेगा, स्मृति मजबूत हो जाएगी। वह भूल ही जाएगा कि मैं अंधा हूं और प्रकाश से मेरा कोई संबंध नहीं है, और न मेरी प्रकाश से कोई पहचान है, आंख वाले कहते हैं कि प्रकाश ऐसा है। इन मित्र ने लिखा है, श्रुतियां कहती हैं…। आंख वाले कहते हैं कि प्रकाश ऐसा है। आंख वालों के कहने से क्या संबंध है? आंख चाहिए। और खतरा यही है कि अंधे भी कंठस्थ कर लेते हैं।
इसलिए लाओत्से नहीं चर्चा करता कि आत्मा क्या है, क्या नहीं है। वह इतना ही कहता है, कैसे आंख की चिकित्सा हो सकती है। बस वह चिकित्सा हो जाए, तो काफी है।

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