Friday 29 May 2015

 पैदा होता है, आप मानते तो हैं अपने को गौरीशंकर और सिद्ध नहीं कर पाते। आप मानते तो हैं कि जगत के केंद्र हैं, लेकिन सिद्ध नहीं कर पाते। फिर हीनता पैदा होती है। हीनता पैदा ही उन्हें होती है, जिनके मन में श्रेष्ठ होने का भाव है। उलटा लगेगा; लेकिन हमने जीवन को ऐसा ही उलटा कर लिया है कि उसमें सीधी-साफ बातें कहनी हों, तो उलटी मालूम होती हैं। जिस आदमी को भी श्रेष्ठ होने का भाव है, उसे हीनता का बोध पैदा हो जाएगा। उसे लगेगा मैं कुछ भी नहीं हूं, क्योंकि मानता है वह इतना अपने को और उतना सिद्ध नहीं कर पाता है। फिर पीड़ा पकड़ती है मन को कि मैं कुछ भी न कर पाया।
एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?
पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता है? मैं कुछ हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है, तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो। उसका भरोसा अपने पर पक्का है।
आत्म-विश्वास की जरूरत क्या है? क्यों परेशानी होती है कि आत्म-विश्वास नहीं है? क्योंकि तुलना है मन में कि दूसरा आदमी अपने पर ज्यादा विश्वास करता है, वह सफल हो रहा है; मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पाता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूं। वह इतना कमा रहा है; मैं इतना कम कमा रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है, राजधानी निकट आती जा रही है; मैं बिलकुल पीछे पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया हूं। आत्म-विश्वास कैसे पैदा हो? कैसे अपने को बलवान बनाऊं? क्या मतलब हुआ? आत्म-विश्वास का मतलब हुआ कि आप दूसरे से अपनी तुलना कर रहे हैं और इसलिए परेशान हो रहे हैं।
आप आप हैं, दूसरा दूसरा है। अगर आप जमीन पर अकेले होते, तो क्या कभी आपको पता चलता कि आत्म-विश्वास की कमी है? अगर आप अकेले होते पृथ्वी पर, तो क्या आपको पता चलता कि मुझमें हीनता का भाव है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है? कुछ भी पता न चलता। तब आप साधारण होते। साधारण का मतलब, आपको यह भी पता न चलता कि आप साधारण हैं। सिर्फ होते। जिसको यह भी पता चलता है कि मैं साधारण हूं, उसने असाधारण होना शुरू कर दिया। आप हैं, इतना काफी है। आत्म-विश्वास की जरूरत नहीं है, आत्मा पर्याप्त है। आप हैं। क्यों तौलते हैं दूसरे से?
फिर दिक्कतें खड़ी होंगी। किसी की नाक आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी की आंख आपसे बेहतर है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी की लंबाई ज्यादा है, दीनता पैदा हो जाएगी। किसी ने मकान बड़ा बना लिया, दीनता पैदा हो जाएगी। फिर हजार दीनताएं पैदा हो जाएंगी। फिर जितने लोग आपको दिखाई पड़ेंगे, उतनी दीनताएं आपके भीतर पैदा हो जाएंगी। उनका जोड़ इकट्ठा हो जाएगा। और आपकी मान्यता है कि आप हैं गौरीशंकर! अब बड़ी कठिनाई खड़ी होगी। आप हैं जगत के सबसे बड़े शिखर; और हर आदमी जो मिलता है, वह बता जाता है कि आप एक खाई हैं, एक खड्ड हैं। तो आपकी यह स्थिति कि खड्ड-खाई चारों तरफ और आपका यह भाव कि मैं हूं गौरीशंकर का शिखर, इन दोनों के बीच जो खिंचाव पैदा होगा, वही आदमी की बीमारी है। वही रोग है, जिसमें हर आदमी सड़ जाता है, मर जाता है, मिट जाता है। दूसरे से तौलते क्यों हैं?
बोकोजू से किसी ने आकर पूछा है कि मैं शांत नहीं हूं, आप शांत हैं। मैं अशांत हूं, आप शांत हैं; मैं कैसे आप जैसा हो जाऊं? बोकोजू ने कहा, अगर मैं भी किसी से पूछता कि मैं कैसे आप जैसा हो जाऊं, तो कभी का अशांत हो गया होता। एक ही तरकीब है मेरी कि मैंने किसी से कभी पूछा नहीं कि मैं तुम जैसा कैसे हो जाऊं। मैं जैसा हूं, हूं। तुम जैसे हो, तुम हो। इनमें मैंने कभी कुछ और बदलाहट न चाही।
उस आदमी ने कहा कि मुझे ऊंची बातों की जरूरत नहीं; मुझे सीधा रास्ता बता दें। आप हैं शांत, मैं हूं अशांत; मैं शांत कैसे हो जाऊं? बोकोजू ने कहा, तू रुक; जरा लोग चले जाएं, तो तुझे बताऊं। फिर लोग आए, गए; दिन बीत गया, सांझ होने लगी। उस आदमी ने कहा, अब तो बहुत देर भी हो गई; अब जल्दी मुझे बता दें। बोकोजू उसे लेकर बाहर आया और उसने कहा कि देख, मेरे मकान के पीछे एक छोटा वृक्ष है और एक बड़ा वृक्ष है। वर्षों हो गए मुझे इस मकान में रहते, मैंने कभी छोटे वृक्ष को बड़े वृक्ष से पूछते नहीं देखा कि तू बड़ा है, मैं छोटा हूं; मैं बड़ा कैसे हो जाऊं? इसलिए बड़ी शांति है। बड़ा बड़ा है, होगा बड़ा; छोटा छोटा है। और यह भी हम आदमी सोचते हैं कि यह छोटा है और यह बड़ा है। छोटे को छोटे होने का पता नहीं है; बड़े को बड़े होने का पता नहीं है। इसलिए बड़ा सन्नाटा है; कभी कोई विवाद नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कोई उपद्रव नहीं। मैं मैं हूं, तू तू है। और यह तू छोड़ दे खयाल कि तू दूसरे जैसा कैसे हो जाए।
वह आदमी बोला कि कैसे छोड़ दूं? मैं बहुत अशांत हूं! बोकोजू ने कहा कि तेरी अशांति का कारण मैं तुझे बता रहा हूं। दूसरे से जो अपने को तौलेगा, वह अशांत रहेगा ही।
लाओत्से कहता है, अपने को स्वीकार कर लो। अस्वीकृति में ही सारा उपद्रव है। और हममें से कोई अपने को स्वीकार नहीं करता, कोई नहीं। और जो जितना अपने को अस्वीकार करता है, उतना बड़ा महात्मा मालूम होता है। हममें से कोई अपने को स्वीकार नहीं करता। हम सब अपने दुश्मन हैं। हमारा बस चले, तो हम सब काट-पीट कर अलग कर दें अपने में से।
हम सबको दूसरे स्वीकार हैं, स्वयं की कोई स्वीकृति नहीं है। और जिनको हम स्वीकार कर रहे हैं, जरा उनकी तरफ झांक कर देखो। वे भी अपने को स्वीकार नहीं किए हुए हैं; वे दूसरों को स्वीकार कर रहे हैं। अगर एक-एक आदमी का मन खोल कर सामने रखा जा सके, तो एक ही बीमारी मिलेगी कि कोई अपने को स्वीकार नहीं करता है–कोई! और जो अपने को स्वीकार करता है, उसकी फिर कोई बीमारी नहीं है। क्योंकि जहां तुलना नहीं है, वहां दीनता कैसी, हीनता कैसी, श्रेष्ठता कैसी? असाधारण कौन, साधारण कौन?
वह तो अच्छा है कि हम आदमियों से ही तुलना करते हैं। नहीं तो गुलाब में गुलाब का फूल खिला है, हम छाती पीटें कि हममें अब तक एक फूल भी नहीं खिला! बड़े हीन हो गए! आकाश में चांद निकला है; हम आंसू बहा रहे हैं कि ऐसी रोशनी कभी हमारे चेहरे से न निकली! वह तो अच्छा है कि हमने अपनी बीमारी आदमी तक ही सीमित रखी है। अगर हम फैला लें, तो हमें कोई भी दीन-हीन कर जाएगा। एक छोटी सी तितली उड़ रही होगी, और उसके पंखों का रंग हमें हीन कर जाएगा। एक हिरण दौड़ रहा होगा, और उसकी गति और उसकी चमक हमें दीन कर जाएगी। सड़क के किनारे एक छोटा सा पत्थर चमक रहा होगा वर्षा में, और उसकी चमक हमें फीका कर जाएगी। तो अच्छा है कि हम आदमियों से ही तौलते हैं।
तौलेंगे, तो दीन हो जाएंगे। दोहरी बीमारी है। खुद को माने बैठे हैं शिखर; और फिर तौलते हैं, तो दीनता पैदा होती है। तो दो स्थितियां तनाव की बन जाती हैं। गङ्ढ दिखाई पड़ता है वस्तुतः और कल्पना में दिखाई पड़ता है शिखर। दोनों के बीच कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। जीवन इसी में टूट जाता है।
लाओत्से कहेगा कि साधारण हो, इससे शुभ और कुछ भी नहीं। स्वीकार कर लो अपनी साधारणता।
लेकिन हर कोई हमें समझा रहा है, कुछ बन कर दिखाओ! यह बन जाओ, वह बन जाओ; ऐसे बन जाओ, वैसे बन जाओ। बचपन से मां-बाप पीछे पड़े हैं, कुछ बन कर दिखाओ। शिक्षक पीछे पड़े हैं, कुछ बन कर दिखाओ। क्या साधारण ही रह जाओगे? संसार में आए हो, कुछ करके दिखाओ।
बड़े आश्चर्य की बात है, जिन्होंने करके दिखाया है, वे कब्रों में पड़े हैं वैसे ही। जिन्होंने नहीं करके दिखाया, वे भी विश्राम कर रहे हैं कब्रों में। और कब्रें कोई फर्क नहीं करतीं कि तुमने कुछ करके दिखाया था कि कुछ करके नहीं दिखाया था। और करके जिन्होंने दिखाया है, क्या है उसका परिणाम? सपने में जैसे हम कुछ कर लें, ऐसा ही जीवन में कुछ करना है। सुबह जाग कर सब मिट जाता है। पानी पर खींची गई रेखाओं सा सब खो जाता है। लेकिन हर एक पीछे पड़ा है, कुछ करके दिखाओ। क्योंकि करने को हम मानते हैं कोई गुण है।
लाओत्से कहता है, न करना गुण है।
इसका यह मतलब नहीं कि लाओत्से कहता है, कुछ करो मत। इसका यह मतलब नहीं है कि रोटी कमाने मत जाओ। इसका यह मतलब नहीं है कि नौकरी मत करो। इसका यह मतलब नहीं है कि हाथ-पैर मत हिलाओ। लाओत्से कहता है कि न करने में ठहरे रहो। न करना तुम्हारा केंद्र रहे। और तुम्हारा जो करना निकले, वह करने की दौड़ से नहीं, न करने की स्वीकृति से निकले। तो तुम्हारी वासनाएं अपने आप कम होंगी। आवश्यकताएं रह जाएंगी, वासनाएं खो जाएंगी। जरूरतें रह जाएंगी। और आदमी की जरूरत इतनी कम है कि जिसका कोई हिसाब नहीं; और आदमी की वासना इतनी ज्यादा है कि जिसका कोई अंत नहीं।
लाओत्से कहता है, अगर तुम साधारण अपने स्वभाव में जीओ, तो तुम उतना कर लोगे जितनी तुम्हारी जरूरत है। पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। आदमी कुछ ऐसा कमजोर नहीं है। वे भी अपने लिए जुटा लेते हैं। लेकिन पशु करने से पीड़ित नहीं हैं। करते जरूर हैं, करने से पीड़ित नहीं हैं। कोई पशु कुछ होने की कोशिश में नहीं लगा है। सभी मोर एक जैसे मोर हैं। सभी तोते एक जैसे तोते हैं। अपना खा लेते हैं, पी लेते हैं, सो लेते हैं, गीत गा लेते हैं, नाच लेते हैं, आकाश में उड़ लेते हैं। कोई साधारण नहीं है, कोई असाधारण नहीं है। कोई छोटा नहीं है, कोई बड़ा नहीं है। करते तो वे भी हैं; लेकिन करने में कोई दौड़ नहीं है। और करने के पीछे सब कुछ लगा देने का कोई पागलपन भी नहीं है।
आदमी भर पागल है। आदमी का करना महत्वपूर्ण हो गया है उसके विश्राम से भी ज्यादा। हम करते ही किसलिए हैं? आदमी करता इसलिए है कि कभी विश्राम कर सके। और अंत यह होता है कि विश्राम का मौका ही नहीं आता और करते-करते ही समाप्त हो जाता है। लक्ष्य क्या है?

No comments:

Post a Comment