Friday 1 May 2015

जिंदगी एक उतार है हमारी। रोज हम नीचे उतरते जाते हैं। कल जिसने चोरी की थी, वह आज और भी ज्यादा चोरी करेगा। कल जो झूठ बोला था, आज वह और भी ज्यादा झूठ बोलेगा। कल जो क्रोधी था, वह आज और क्रोधी हो जाएगा। और रोज यह क्रोध, यह हिंसा, यह घृणा, यह काम, यह वासना, रोज बढ़ते चले जाएंगे। फिर मन एक निश्चित आदत बना लेता है। फिर अपनी आदतों को दोहराए जाता है, बढ़ाए चला जाता है।
हम उतार पर हैं। बच्चे श्रद्धा से भरे होते हैं, बूढ़े चालाकी से भर जाते हैं। बच्चे सरल होते, बूढ़े जटिल हो जाते हैं। जिंदगी के सारे अनुभव उन्हें और गङ्ढों में पहुंचा देते हैं।

तो हम उतार पर हैं, एक तो यह बात खयाल में ले लें। और अनंत जन्मों का हमारे कर्मों का मोमेंटम है, गति है। अगर मैं आज सारे काम बंद भी कर दूं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता; मेरा मन फिर भी उतरता चला जाएगा।

इसलिए कृष्ण ने इसमें एक बहुत अदभुत बात कही। उन्होंने कहा है कि ऐसे पुरुष, जो निष्काम कर्म में जीते हैं, वे अपने पिछले कर्मों की जो गति है, उसे काटने के लिए कर्म में रत होते हैं। वह जो उन्होंने गति दी है पिछले जन्मों में अपने कर्मों की, वह जो किया है, उसे अनडन करने के लिए, उसे पोंछ डालने के लिए, कर्म में रत होते हैं।

अगर उन्होंने क्रोध किया है अतीत जन्मों में, तो वे क्षमा के कर्म में लग जाते हैं। अगर उन्होंने कठोरता और क्रूरता की है, तो वे करुणा के कृत्य में लीन हो जाते हैं। अगर उन्होंने वासना और कामना में ही जीवन को बिताया है अनंत-अनंत बार, तो अब वे सेवा में जीवन को लगा देते हैं। ठीक जो उन्होंने किया है अब तक, उससे बिलकुल विपरीत, उतार की तरफ जाने वाला नहीं, चढ़ाव की तरफ जाने वाला कर्म वे शुरू कर देते हैं।

लेकिन उसमें भी एक शर्त कृष्ण की है। और वह जिसे खयाल में न रहेगी, वह भूल में पड़ सकता है। वह शर्त यह है कि ममत्व को छोड़कर! क्योंकि कोई आदमी ममत्व के साथ, और ऊपर की यात्रा करना चाहे, तो गलती में है, यह असंभव है।

ममत्व नीचे की यात्रा पर सहयोगी है, ममत्व ऊपर की यात्रा पर बाधा है। कर्म निर्मित करने हों, तो ममत्व कीमिया है, केमिस्ट्री है। उसके बिना कर्म निर्मित नहीं होते। और कर्म काटने हों, तो ममत्व तत्काल ही अलग कर देना जरूरी है, अन्यथा कर्म कटते नहीं।


ममत्व से अर्थ क्या है? ममत्व से अर्थ है, एक तो हूं मैं, जैसे मैं खड़ा हो जाऊं धूप में, तो एक तो मैं हूं जो खड़ा हूं, और धूप में मेरी एक छाया बनेगी। वह छाया मेरे चारों तरफ, जहां मैं जाऊंगा, घूमती रहेगी। मैं तो ईगो है और ममत्व ईगो की छाया है, अहंकार की छाया है। मैं तो मेरा खयाल है कि मैं हूं; और मैं अकेला नहीं हो सकता, इसलिए मैं मेरे के एक जाल को फैलाता हूं अपने चारों तरफ।

मेरे के बिना मैं के खड़े होने में बड़ी कठिनाई है। इसलिए मेरे की छाया जितनी बड़ी हो, उतना ही लगता है कि मैं बड़ा हूं। मेरा धन, मेरे मित्र, मेरा परिवार, मेरा मकान, मेरा महल, मेरे पद जितने बड़े हों…।

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