Thursday 21 May 2015

रमात्मा के साक्षात्कार में, उसकी पूर्ण स्वीकृति में, स्वयं को पूरा खोने की तैयारी चाहिए। परमात्मा का अनुभव अपनी पूर्ण मृत्यु का अनुभव है। जो मिटने को राजी है, वही उसे पूरी तरह स्वीकार कर पाता है। अगर मिटने में जरा—सा भी संकोच है, तो अस्वीकार शुरू हो जाता है और भय भी।
भय एक ही है कि कहीं मैं मिट न जाऊं। और यह भय अंतिम बाधा है। इसलिए जो जानते रहे हैं, उन्होंने कहा है, जैसे जीसस ने, कि जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खोने को तैयार है, वह प्रभु को पा लेगा। अपने को बचाना ही धर्म के मार्ग पर पाप है। अपने को बचाने की चेष्टा ही एकमात्र रुकावट है।
तो अर्जुन सामने खड़ा है; विराट के द्वार खुल गए हैं। लेकिन कहीं मैं मिट न जाऊं— इसकी वह बात कर नहीं रहा है, यह भी समझ लेने जैसा है। वह कह रहा है कि आपके दांतों में दबे हुए, पिसते हुए द्रोण को देखता हूं भीष्म को देखता हूं कर्ण को देखता हूं। आपका मुंह मृत्यु, महाकाल बन गया है। आपके मुंह से लपटें निकल रही हैं और विनाश की लीला हो रही है। और मैं बड़े—बड़े योद्धाओं को भी इस विनाश के मुंह की तरफ भागते हुए देखता हूं जैसे पतंगे दीप—शिखा की तरफ भागते हों, अपनी ही मौत की तरफ। कहीं भी वह अपनी बात नहीं कह रहा है।
लेकिन ध्यान रहे, जब भी कोई दूसरा मरता है, तो हमें अपने मरने की खबर मिलती है। और जब भी कहीं मृत्यु घटित होती है, तो किसी एक अर्थ में तत्काल हमें चोट भी लगती है कि मैं भी मरूंगा।
जब अर्जुन यह देख रहा होगा सबको मिटते हुए कृष्‍ण के मुंह में, तो यह असंभव है कि यह छाया की तरह चारों तरफ यह बात उसको न घेर ली हो कि मैं भी मिटूगा, मैं भी ऐसे ही मरूंगा। और मैं भी पतंगे की तरह किसी ज्योति में जलने को इसी तरह भागा जा रहा हूं जैसे यह सारा लोक। मैं भी इस लोक से अलग नहीं हूं। वह कह तो दूसरों की बात रहा है, लेकिन उसमें खुद स्वयं की बात भी गहरे में सम्मिलित है। वह भय पकड़ता है।
बुद्ध अपने साधकों को कहते थे, इसके पहले कि तुम परम सत्य को जानने जाओ, तुम ऐसे हो जाओ जैसे मर गए हो, जीते जी मृत। अगर तुम जीते जी मृत नहीं हो गए हो, तो उस परम सत्य को तुम न झेल पाओगे। जो जीते जी मृत हो गया है, उसे फिर कोई भी भय नहीं है। फिर परमात्मा के सामने खड़े होकर मिटने की उसकी पहले से ही तैयारी है। यह तैयारी न हो, तो अड़चन होगी।
और जो लोग भी परमात्मा की खोज में जाते हैं, वे जीवन की खोज में जाते हैं, मृत्यु की खोज में नहीं। जो जीवन के पिपासु हैं अभी, वे उसे न पा सकेंगे। जो मिटने को राजी हैं, वे उसे पा लेंगे, परम जीवन भी उन्हें मिलेगा। लेकिन परम जीवन मिलता है पूर्ण मृत्यु की स्वीकृति से।
अपने को मिटाने को जो तैयार है, उसे इस जगत में फिर कोई भी नहीं मिटा सकता। और अपने को बचाने को जो पागल है, वह मिटेगा ही। क्योंकि जो हमारे भीतर भयभीत है कि मिट न जाऊं, वह है अहंकार। वह मिटेगा ही, वह बनाई हुई चीज है। जो बनाई हुई चीज है, वह मिटती ही है।
हमारे भीतर जो मृत्यु से भी नहीं मिटती, वह है आत्मा। और जब तक हमें मृत्यु का भय है, उसका अर्थ हुआ कि हमें आत्मा का कोई भी पता नहीं। हमें सिर्फ अपने अहंकार का, अस्मिता का, मैं भाव का पता है। हमारे भीतर मरणधर्मा है अहंकार, और अमृत है आत्मा। हम सबको अपने मैं का पता है, आत्मा का कोई पता नहीं है।
इस मैं को ही हम लिए जाते हैं परमात्मा के द्वार पर भी। यह भीतर प्रवेश न कर सकेगा। इसे मिटना होगा, इसे बाहर दरवाजे पर ही छोड़ना होगा।
अर्जुन का भय भी उन सभी साधकों का भय है, जो आखिरी किनारे पर खड़े हो जाते हैं और जहां सवाल उठता है कि क्या अब मैं अपने को खोने को राजी हूं?
हम परमात्मा को भी पाना चाहते हैं अपने में जोड्ने को, ध्यान रखना। वह भी हमारी संपत्ति हो। वह भी हमारी मुट्ठी में हो। वह भी हमारे बैंक बैलेंस में लिखा हो, कि इस आदमी को भगवान मिल गया! वह भी हमारे हाथ में हो। हमारा अहंकार उसके होने से और प्रगाढ़ होता हो, कि मैंने परमात्मा को पा लिया। इसलिए हम उसकी भी खोज करते हैं।
और धर्म बड़ी उलटी व्यवस्था है। धर्म कहता है, जब तक तुम हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
कबीर ने कहा है, जब तक मैं था, खोज—खोज कर, परेशान हो— हो कर मिट गया, उसे न पाया। और जब मैं मिट गया, तो मैंने देखा कि वह सामने खड़ा हुआ है! वह दूर नहीं था। मैं था, इसीलिए दूर था। मेरा होना ही एकमात्र अड़चन, बाधा, अवरोध है।
अर्जुन भी उसी अंतिम, आखिरी…। शानियों ने कहा है, अहंकार अंतिम बाधा है। सब छूट जाता है। धन छोड़ना आसान है। परिवार छोड़ना आसान है। शरीर छोड़ना आसान है। अहंकार छोड़ना सबसे कठिन है कि मैं हूं। और जब तक मैं हूं, तब तक मैं हूं केंद्र। और अगर परमात्मा भी सामने खड़ा हो, तो वह भी नंबर दो है। जब तक मैं हूं, तब तक वह भी नंबर दो है, नंबर एक तो मैं ही हूं! और जब तक परमात्मा को नंबर एक पर रखने की तैयारी न हो, तब तक बाधा रहेगी। जिस क्षण मैं कह सकता हूं कि अब तू ही है, अब मैं नहीं हूं —..।

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