Tuesday 5 May 2015

जीवन में सर्वाधिक कठिन, सब से ज्यादा दुरूह अगर कोई भाव—दशा है, तो शरणागति की है।
मन अहंकार के आस—पास निर्मित है। मन को मानना आसान है कि मैं ही केंद्र हूं सारे जगत का। जैसे पृथ्वी और सूर्य, तारे, सब मेरे आस—पास घूमते हों, मेरे लिए घूमते हों, पूरा जीवन साधन है और साध्य मैं हूं।
अहंकार की भाव—दशा का अर्थ है कि मैं साध्य हूं और सभी कुछ साधन है। सब कुछ मेरे लिए है और मैं किसी के लिए नहीं हूं। मैं ही लक्ष्य हूं; मेरे लिए ही सब घटित हो रहा है। सभी कुछ मेरी सेवा का आयोजन है। यह अहंकार भाव है।
शरणागति का भाव ठीक इससे विपरीत है; कि मैं कुछ भी नहीं हूं। मेरा होना शून्यवत है और केंद्र मुझसे बाहर है। वह केंद्र आप कहां रखते हैं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। कोई उसे बुद्ध में रखे, कोई उसे क्राइस्ट में रखे, कोई उसे राम में, कृष्ण में, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे होने का केंद्र मैं नहीं हूं मुझसे बाहर है, और मैं उसके लिए जी रहा हूं। मैं साधन हूं वह साध्य है।
अति कठिन बात है। क्योंकि अहंकार बिलकुल स्वाभाविक मालूम होता है। लेकिन इस क्रांति के बिना घटे कोई भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि सत्य यही है कि आपका केंद्र आपके भीतर नहीं है।

इस सारे जगत का केंद्र एक ही है। सभी का केंद्र एक है। इसलिए प्रत्येक के भीतर अलग— अलग केंद्र होने का कोई उपाय नहीं है। हम संयुक्त जीते हैं, वियुक्त नहीं। व्यक्ति होना भ्रांति है। सारा अस्तित्व जुड़ा हुआ इकट्ठा है। यह विश्व एक इकाई है, एक यूनिट है। यहां खंड—खंड अलग—अलग नहीं हैं। यहां कोई एक पत्ता भी अलग नहीं है।

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