Friday 8 May 2015

कितने लोग, कितने यात्री इस मुकाम से गुजर चुके -हैं; और खो गए। उनका कोई चिह्न भी खोजे नहीं मिलता। ऐसे ही तुम भी खो जाओगे। यह बोध सभी को कभी न कभी पकड़ लेता है।
लेकिन तुम इसे झुठला देते हो; तुम अपने को सम्हाल लेते हो। तुम्हारा सम्हालने का मतलब क्या है? तुम अपने को सम्हलने नहीं देते। जब कभी सम्हलने का क्षण आता है, तुम फिर अपने पुराने ढांचे में लग जाते हो; दौड़कर दुकान पर पहुंच जाते हो, या रेडियो खोल लेते हो, या अखबार पढ़ने लगते हो, या किसी से बातचीत करने में लग जाते हो। घबड़ाहट होती है कि ये क्षण खतरनाक हो सकते हैं। क्योंकि इन्हीं क्षणों में वैराग्य जन्मता है, इन्हीं क्षणों में संन्यास का जन्म होता है। तुम यहां-वहां उलझा लेते हो ताकि ये खतरनाक बातें तुम्हें दिखायी न पड़े। तुम किसी झूठ में तल्लीन हो जाते हो। सत्य अगर जगाने को तुम्हारे पास भी आता है, तो तुम करवट ले लेते हो, फिर नया नींद में खो जाते हो।
ऐसा आदमी तो खोजना ही मुश्किल है जिसको कभी न कभी यह दिखायी न पड़ता हो कि यह सब व्यर्थ है जो मैं कर रहा हूं। लेकिन फिर भी आदमी वही किए चला जाता है जो व्यर्थ दिखायी पड़ता है। प्रकाश के किन्हीं क्षणों में, ज्योतिर्मय चैतन्य की किसी अवस्था में, जब सब व्यर्थ दिखायी पड़ता है, तब फिर तुम कैसे अंधेरे में उतर आते हो बार-बार ‘
इसे बुद्ध प्रमाद कहते हैं। प्रमाद का अर्थ है जानते हो, फिर भी जो जानते हो उसके विपरीत जीते हो। जानते हो आग में हाथ डालने से हाथ जलेगा, फिर-फिर डालते हो। पुराने घाव भी नहीं मिट पाते और फिर हाथ डाल देते हो। निश्चित ही तुम होश में नहीं हो सकते, बेहोश हो; कोई बड़ी गहरी तंद्रा में जी रहे हो।
‘प्रमाद में मत लगे रहो।
ये जो कभी-कभी प्रकाश के क्षण तुम्हारे जीवन में आते हैं, इनको सहारा दो, सहयोग दो। इनको घना करो। इनको पुकारों। इनकी प्रार्थना करो। इनका स्वागत करो। इनको सम्हालो अपने भीतर। इनको संजोओ। क्योंकि इनसे बड़ी कोई संपदा नहीं है। और अगर तुम इनके साथ सहयोग करो, स्वागत करो, इन्हें स्वीकार करो, अंगीकार करो, तो ये क्षण बढ़ते जाएंगे। इन क्षणों के बढ़ते जाने का नाम ही ध्यान है।
ध्यान का अर्थ है, जागा हुआ चित्त। प्रमाद का अर्थ है, सोया हुआ चित्त। इसलिए बुद्ध और महावीर ध्यान के लिए अप्रमाद शब्द का प्रयोग करते हैं।
‘प्रमाद में मत लगे रहो।’
काफी लगे रहे हो। और तुम हजार बहाने खोज लेते हो लगे रहने के। तुम कहते हो अभी… अभी बच्चे बड़े हो रहे हैं। तुम कहते हो, अभी तो महत्वाकांक्षा के दिन हैं, थोड़ा और कमा लूं। तुम कहते हो, अभी तो जवान हूं ये धर्म और वैराग्य, ये तो बुढ़ापे की बातें हैं।
एक युवक को मैंने संन्यास दिया। उसका का बाप आ गया। के बाप की उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर। उसने कहा, आप भी क्या अन्याय कर रहे हैं? जवान आदमी को संन्यास देते हैं? शास्त्रों में तो कहा है कि संन्यास तो अंत में लेने की बात है। मैंने कहा, छोड़ो, तुम्हारे लड़के का संन्यास वापस ले लेंगे। तुम संन्यास
यात्री, यात्रा गंतव्य तुम्हीं लेने को तैयार हो? तुम तो पचहत्तर वर्ष के हुए। कब आखिर आएगा? वह आदमी मुस्कुराने लगा। उसने कहा, आपकी बात ठीक है; लेकिन अभी बहुत दूसरे काम भी हैं, अभी दूसरी उलझनें भी हैं। तो मैंने कहा कि इस लड़के का मैं संन्यास वापस ले सकता हूं अगर तुम संन्यास लेने को तैयार हो। तुमने ही कहा।
मगर वह आदमी सिर्फ तर्क दे रहा था, लड़के को संन्यास से बचाने को। खुद संन्यास लेने के -लिए वह तर्क काम का नहीं था। लोग जवान रहते हैं, तब कहते हैं, अभी तो जवान हैं। और जब के हो जाते हैं, तब वे कहते हैं, अब तो के हो गए।
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर साहिल की तमन्ना कौन करे

जब नाव जवान थी-जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किसको थी-तब कौन फिक्र करता था किनारे की, कौन आकांक्षा करता था किनारे की? तब तो तूफानों से जूझ लेने का मन था।

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