Saturday 16 May 2015

हली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि मृत्यु है और हम उसे जीत लेंगे। मृत्यु पर विजय मिल सकती है, इसका इतना ही अर्थ है कि मृत्यु नहीं है, ऐसा हम जान लेंगे। मृत्यु का न होना जान लेना ही मृत्यु पर विजय है। मृत्यु कोई है नहीं जिसे जीत लेना है। मृत्यु नहीं है, ऐसा जानते ही वह जो मृत्यु से हमारी हार चल रही है, बंद हो जाती है। कुछ तो ऐसे शत्रु हैं, जो हैं। और कुछ ऐसे शत्रु हैं, जो नहीं हैं, सिर्फ प्रतीत होते हैं। मृत्यु उन शत्रुओं में से है, जो नहीं है और प्रतीत होता है।
इसलिए विजय का अर्थ ऐसा नहीं ले लेना कि कोई मृत्यु कहीं है और उसे हम जीत लेंगे। जैसे कोई आदमी अपनी छाया से लड़ने लगे और पागल हो जाए। और फिर हम उसे कहें कि गौर से देखो, छाया है ही नहीं! और वह छाया को देखे और हंसने लगे और जाने कि मैंने छाया को अब जीत लिया। छाया को जीतने का केवल इतना ही अर्थ है कि छाया इतनी भी न थी कि उससे लड़ा जाए। जो लड़ेगा, वह पागल हो जाएगा। जो मृत्यु से लड़ेगा, वह हार जाएगा। और जो मृत्यु को जान लेगा, वह जीत जाएगा।
इसका दूसरा मतलब यह भी हुआ कि अगर मृत्यु नहीं है, तो वस्तुत: हम कभी मरते ही नहीं हैं। चाहे हम जानते हों और चाहे न जानते हों। ऐसा नहीं है कि दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वे जो मरते हैं और एक वे जो नहीं मरते हैं, ऐसा नहीं है। दुनिया में कोई भी कभी नहीं मरता है। लेकिन दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक वे जो जानते हैं कि नहीं मरते हैं, और एक वे जो नहीं जानते हैं। इतना ही फर्क है।
निद्रा में भी हम वहीं पहुंचते हैं, जहां ध्यान में पहुंचते हैं। लेकिन फर्क इतना ही है कि निद्रा में हम बेहोश होते हैं और ध्यान में हम जाग्रत होते हैं। अगर कोई निद्रा में भी जाग्रत होकर पहुंच जाए, तो वही हो जाएगा जो ध्यान में होता है। जैसे किसी बगीचे में किसी आदमी को हम क्लोरोफार्म देकर ले जाएं, स्ट्रेचर पर रखकर—बेहोश। स्ट्रेचर पर बेहोश पडा आदमी है, उसको हम बगीचे में ले जाएं। बगीचे में फूल होंगे, कोई बेहोश आदमी की वजह से फूल मिट नहीं जाएंगे, हवाएं होंगी, सुगंध होगी, सूरज निकला होगा, पक्षी गीत गाते होंगे, लेकिन उस आदमी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। फिर हम उस बेहोश आदमी को बगीचे में घुमाकर वापस लौट आएं। वह आदमी जब होश में आए और हम उससे कहें कि देखा बगीचा? जाना बगीचा? वह कहेगा, कैसा बगीचा? फिर उस आदमी को हम कहें कि तब तुम होश में चलो। तो वह आदमी कहे कि होश में बगीचे में ही पहुंचूंगा न! तो फिर बेहोशी में पहुंचने में और होश में पहुंचने में फर्क क्या है? तब हम उससे कहेंगे कि फर्क इतना है कि होश में तुम जान सकोगे कि कहां पहुंचे, क्या देखा—फूल, सुगंध, पक्षियों के गीत, सुबह का सूरज। बेहोशी में तुम नहीं देख सकोगे। पहुंचोगे तो बेहोशी में भी उतना ही, जितना कि होश में पहुंचे थे। लेकिन बेहोशी में पहुंचा हुआ आदमी ऐसे ही रहता है, जैसे न पहुंचा हो। बेहोशी में पहुंचने का मतलब न पहुंचना ही है।
हम नींद में भी वहीं पहुंचते हैं जहां ध्यान में कोई पहुंचता है। नींद में भी उसी बगीचे: में प्रवेश कर जाते हैं, उसी जीवन के बगीचे में, जहां ध्यान में कोई प्रवेश करता है। लेकिन नींद में हम होते हैं बेहोश। रोज पहुंचते हैं और वापस लौट आते हैं।
हां, इतनी बात पक्की है कि चाहे कोई आदमी बेहोश बगीचे में गया हो, सुबह की ताजी हवाओं ने उसके शरीर को तो छुआ ही होगा, सुगंध उसके नासापुटों तक तो गई ही होगी, पक्षियों के गीत उसके कान तक तो गंजे ही होंगे। वह नहीं जान सका, लेकिन बगीचे से बेहोश लौट आने पर भी शायद जगने पर वह कहे कि आज बड़ा अच्छा लग रहा है, बड़ी शाति मालूम हो रही है। नींद के बाद सुबह आप रोज कहते हैं कि नींद आ गई तो बड़ा अच्छा लग रहा है। क्या लग रहा है अच्छा? नींद आने से क्या अच्छा हो गया? जरूर नींद में आप कहीं गए हैं, जहां कुछ हुआ है, लेकिन उसका कोई पता नहीं। सिर्फ छोटी—सी खबर रह गई है पीछे कि अच्छा लग रहा है, सुबह जागकर अच्छा लग रहा है। तो जो आदमी रात गहरी नींद में पहुंच जाता है, वह सुबह ताजा होकर लौट आता है। वह किसी ताजगी के स्रोत तक गया है, लेकिन बेहोश। और जो आदमी रात नहीं सो पाता, वह सुबह और भी थका—मादा होता है, जितना सांझ को थका—मादा नहीं था। और अगर एक आदमी कुछ दिन तक न सो पाए, तो जीवन दूभर हो जाता है, क्योंकि जीवन के स्रोत से उसके संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं। वह वहां तक नहीं पहुंच पाता है, जहां तक पहुंचना अत्यंत जरूरी है।
दुनिया में कठिन से कठिन अगर कोई सजा हो सकती है, तो वह मौत की नहीं है। मौत की सजा तो सरल है, क्षण भर में हो जाती है। सबसे बड़ी सजाएं जिन लोगों ने ईजाद की थीं, वह सजाएं थीं नींद न आने देने की। किसी व्यक्ति को नींद न आने देना सबसे बड़ी सजा है। तो आज भी चीन में या रूस में या हिटलर के जर्मनी में निरंतर कैदियों को जगाए रखने का उपाय किया जाता है। पंद्रह दिन किसी कैदी को न सोने दिया जाए, तो उसकी जो पीड़ादायक स्थिति हो जाती है, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। वह करीब—करीब विक्षिप्त हो जाता है और वह वे सब बातें बोलने लगता है जिन्हें उसने रोकने की कोशिश की थी, जिन्हें कि उसके दुश्मन जानना चाहते हैं। वह अपने — आप बोलने लगता है, अनर्गल उसके मुंह से सब निकलने लगता है। उसे होश ही नहीं रह जाता है कि अब क्या हो रहा है।

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