Monday 4 May 2015

बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

बुद्ध के साथ मनुष्य-जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक मालूम पड़ेगा, और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया, कभी किसी ने न किया था, और फिर दुबारा कोई न कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए।

उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम- भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं।
हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की तरफ चले जाते हैं। लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहां हैं न और हृदय से भरने का कोई उपाय भी तो नहीं है। हो तो हो, न हो तो न हो। ऐसी आकस्मिक, नैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है-विचार से भरे लोग, बुद्धिवादी, चिंतन-मननशील।

प्रेम और भाव से भरे लोग तो परमात्मा की तरफ सरलता से झुक जाते हैं; उन्हें झुकाना नहीं पड़ता। उनसे कोई न भी कहे, तो भी वे पहुंच जाते हैं; उन्हें पहुंचाना नहीं पड़ता। लेकिन वे तो बहुत थोड़े हैं और उनकी संख्या रोज थोड़ी होती गयी है। उंगलियों पर गिने जा सकें, ऐसे लोग हैं।

मनुष्य का विकास मस्तिष्क की तरफ हुआ है। मनुष्य मस्तिष्क से भरा है। इसलिए जहां जीसस हार जाएं, जहां कृष्ण की पकड़ न बैठे, वहां भी बुद्ध नहीं हारते हैं; वहां भी बुद्ध प्राणों के अंतरतम में पहुंच जाते हैं।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म कहा गया है। बुद्धि पर उसका आदि तो है, अंत नहीं। शुरुआत बुद्धि से है। प्रारंभ बुद्धि से है। क्योंकि मनुष्य वहा खड़ा है। लेकिन अंत, अंत उसका बुद्धि में नहीं है। अंत तो परम अतिक्रमण है, जहां सब विचार खो जाते हैं, सब बुद्धिमत्ता विसर्जित हो जाती है; जहां केवल साक्षी, मात्र साक्षी शेष रह जाता है। लेकिन बुद्ध का प्रभाव उन लोगों में तत्‍क्षण अनुभव होता है जो सोच-विचार में कुशल हैं।

बुद्ध के साथ मनुष्य-जाति का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पच्चीस सौ वर्ष पहले बुद्ध ने वह कहा जो आज भी सार्थक’ मालूम पड़ेगा, और जो आने वाली सदियों तक सार्थक रहेगा। बुद्ध ने विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया, कभी किसी ने न किया था, और फिर दुबारा कोई न कर पाया। उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए।

बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने को राजी हो, तो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगी, तो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है। बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूं, भरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैं, सोचो, विचारों, विश्लेषण करो, खोजो, पाओ अपने अनुभव से, तो भरोसा कर लेना।

दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा है, सिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है, फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुसांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी।

इसलिए बुद्ध कहते हैं, आस्था की कोई जरूरत नहीं है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तुम्हें लानी नहीं
है। और तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे तुम्हारे संदेह।

तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास को, तो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम कितनी ही दृढता से भरोसा करना चाहो, लेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा है, उसे तुम चाहो भी तो भी कैसे मान सकते हो? मान भी लो, तो भी कैसे मान सकते हो? तुम्हारा ईश्वर कोरा शब्दजाल होगा, जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगी, जब तक मुक्ति का थोड़ा स्वाद तुम्हें न लगा हो।
बुद्ध ने कहा : मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। सोचना, विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाए, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा!

बुद्ध के अंतिम वचन हैं : अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनना। और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखायी पड़ेगा, फिर तुम करोगे भी क्या-आस्था न करोगे तो करोगे क्या? आस्था सहज होगी। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।

बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन विश्लेषण से शुरू होता है, समाप्त नहीं होता वहा। समाप्त तो परम संश्लेषण पर होता है 1 बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म हैं। लेकिन संदेह से यात्रा शुरू होती है, समाप्त नहीं होती। समाप्त तो परम श्रद्धा पर होती है।

इसलिए बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई। क्योंकि बुद्ध संदेह की भाषा बोलते
हैं। तो लोगों ने समझा, यह संदेहवादी है। हिंदू तक न समझ पाए, जो जमीन पर सबसे ज्यादा पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगे, तभी तो हिंदू तक समझने से चूक गए। हिंदुओं तक को यह आदमी खतरनाक लगा, घबड़ाने वाला लगा।

हिंदुओं को भी लगा कि यह तो सारे आधार गिरा देगा धर्म के। और यही आदमी है, जिसने धर्म के आधार पहली दफा ढंग से रखे।

श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है! अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के पास आख न हों, उससे तुम सत्य तक पहुंच पाओगे?

बुद्ध ने बड़ा दुस्साहस किया। बुद्ध जैसे व्यक्ति पर भरोसा करना एकदम सुगम होता है। उसके उठने-बैठने में प्रामाणिकता होती है। उसके शब्द-शब्द में वजन होता है। उसके होने का पूरा ढंग स्वयंसिद्ध होता है। उस पर श्रद्धा आसान हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाना। तुम अगर लंगड़े हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल लिए-कितनी दूर चलोगे? मंजिल तक न पहुंच पाओगे। आज मैं साथ हूं कल मैं साथ न रहूंगा, फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना है। मेरी रोशनी से मत चलना, क्योंकि थोड़ी देर को संग-साथ हो गया है अंधेरे जंगल में। तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे, फिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव!


यह बुद्ध का धम्मपद, कैसे वह रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव की, उसका विश्लेषण है। श्रद्धा की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए बुद्ध को लोगों ने नास्तिक कहा। क्योंकि बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि तुम परमात्मा पर श्रद्धा करो।

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