Tuesday 19 May 2015

हां तक मांग है, वहां तक प्रभु से कोई संबंध स्थापित नहीं होता। प्रार्थना मांग नहीं है। ज्यादा उचित हो कि कहें, प्रार्थना धन्यवाद है, मांग नहीं। जो नहीं मिला है, उसकी मांग नहीं है प्रार्थना; जो मिला है, उसके अनुग्रह का धन्यवाद है, थैंक्स गिविंग है।
कुछ मांगें मत। आपकी मांग ही आपके और परमात्मा के बीच में बाधा बन जाएगी। क्योंकि जब भी हम कुछ मांगते हैं तो उसका अर्थ क्या होता है? उसका अर्थ होता है, जो हम मांग रहे हैं, वह परमात्मा से भी बड़ा है।
एक आदमी परमात्मा से धन मांग रहा है। उसका अर्थ हुआ कि लक्ष्य धन है; परमात्मा तो केवल साधन है। एक आदमी सुख मांग रहा है। उसका अर्थ हुआ कि सुख बड़ा है। परमात्मा से मिल सकता है, इसलिए परमात्मा से मांग रहे हैं। लेकिन परमात्मा केवल माध्यम हो गया; परमात्मा केवल साधन हो गया। हम परमात्मा से भी सेवा ले रहे हैं!
जब भी हम कुछ मांगते हैं, तो जो मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण है। जिससे हम मांगते हैं, वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह अगर महत्वपूर्ण मालूम होता है, तो सिर्फ इसीलिए कि जो हम चाहते हैं, वह उससे मिल सकता है। लेकिन उसका महत्व द्वितीय है, दोयम है, नंबर दो है।
तो परमात्मा से कुछ भी मांगा नहीं जा सकता। और जो मांगते हैं, उनका परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। परमात्मा को तो, जो मिला है, उसके लिए धन्यवाद दिया जा सकता है। और जो मिला है, वह बहुत है, असीम है।
लेकिन जो मिला है, उसके लिए हम धन्यवाद नहीं देते। जो नहीं मिला है, उसके लिए हम मांग करते हैं, शिकायत करते हैं। अभाव ही हमारा मन देखता है। जो हमारे पास है, जो हमें मिला है, अकारण! जीवन, अस्तित्व, जो खिलावट हमें मिली है, उसके लिए कोई अनुग्रह नहीं है।
प्रार्थना अनुग्रह का भाव है।
ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनके घर की हालत बड़ी बुरी थी। पिता मर गए थे। और पिता मौजी आदमी थे, तो कोई संपत्ति तो छोड़ नहीं गए थे, उलटा कर्ज छोड गए थे। और विवेकानंद को कुछ भी न सूझता था कि कर्ज कैसे चुके। घर में खाने को रोटी भी नहीं थी। और ऐसा अक्सर हो जाता था कि घर में इतना थोड़ा—बहुत अन्न जुट पाता, कि मां और बेटे दोनों थे, तो एक का ही भोजन हो सकता था।
तो विवेकानंद मां को कहकर कि मैं आज घर भोजन नहीं लूंगा, किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मां भोजन कर ले, इसलिए घर से बाहर चले जाते। कहीं भी गली—कूचों में चक्कर लगाकर—कोई मित्र का निमंत्रण नहीं होता—वापस खुशी लौट आते कि बहुत अच्छा भोजन मिला, ताकि मां भोजन कर ले।
रामकृष्ण को पता लगा तो उन्होंने कहा, तू भी पागल है। तू जाकर मां से क्यों नहीं मांग लेता! तू रोज यहां आता है। जा मंदिर में और मां से मांग ले, क्या तुझे चाहिए। रामकृष्ण ने कहा तो विवेकानंद को जाना पड़ा। रामकृष्ण बाहर बैठे रहे। आधी घड़ी बीती। एक घड़ी बीती। घंटा बीतने लगा। तब उन्होंने भीतर झांककर देखा। विवेकानंद आंख बंद किए खड़े हैं। आंख से आनंद के आंसू बह रहे हैं। सारे शरीर में रोमांच है।
फिर जब विवेकानंद बाहर आए, तो रामकृष्ण ने कहा, मांग लिया मां से? विवेकानंद ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया। जो मिला है, वह इतना ज्यादा है कि मैं तो सिर्फ अनुग्रह के आनंद में डूब गया। अब दोबारा जब जाऊंगा, तब मांग लूंगा।
दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन भी यही हुआ। रामकृष्ण ने कहा, पागल, तू मांगता क्यों नहीं है? तो विवेकानंद ने कहा कि आप नाहक ही मेरी परीक्षा ले रहे हैं। भीतर जाता हूं तो यह भूल ही जाता हुं कि वे क्षुद्र जरूरतें, जो मुझे घेरे हैं, वे भी हैं, उनका कोई अस्तित्व है। जब मां के सामने होता हूं तो विराट के सामने होता हूं तो क्षुद्र की सारी बात भूल जाती है। यह मुझसे नहीं हो सकेगा। रामकृष्ण ने अपने शिष्यों को कहा कि इसीलिए इसे भेजता था, कि अगर इसकी प्रार्थना अभी भी मांग बन सकती है, तो इसे प्रार्थना की कला नहीं आई। अगर यह अब भी मांग सकता है प्रार्थना के क्षण में, तो इसका मन संसार में ही उलझा है, परमात्मा की तरफ उठा नहीं है।
आप पूछते हैं कि क्या मांगें?
मांगें मत। मांग संसार है। और जो मांगना छोड़ देता है, वही केवल परमात्मा में प्रवेश करता है। तो कुछ भी न मांगें। सुख नहीं, कुछ भी मत मांगें। मोक्ष भी मत मांगें, मुक्ति भी मत मांगें। क्योंकि मांग ही उपद्रव है। मांग ही बाधा है। वह जो मांगने वाला मन है, वह प्रार्थना में हो ही नहीं पाता।
साधारणत: हमने सारी प्रार्थना को मांग बना लिया है। मांगना चाहते हैं, तभी हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थी का मतलब ही हो गया मांगने वाला। अन्यथा हम प्रार्थना ही नहीं करते। जब मांगना होता है, तभी प्रार्थना करते हैं। जब नहीं मांगना होता, तो प्रार्थना भी खो जाती है। हमारी सारी प्रार्थना भिक्षु की, मांगने वाले की प्रार्थना है। हम भिक्षा—पात्र लेकर ही परमात्मा के सामने खड़े होते हैं। यह ढंग उचित नहीं है। यह प्रार्थना का ढंग ही नहीं है। फिर प्रार्थना क्या है? साधारणत: लोग समझते हैं कि प्रार्थना कुछ करने की चीज है—कि आपने जाकर स्तुति की, कि गुणगान किया, कि भगवान की बड़ी प्रशंसा की—कुछ करने की चीज है। प्रार्थना न तो मांग है और न कुछ करने की चीज है। प्रार्थना एक मनोदशा है।
उचित होगा कहना कि प्रार्थना की नहीं जाती, आप प्रार्थना में हो सकते हैं। यू कैन नाट डू प्रेयर, यू कैन बी इन इट। प्रार्थना में हो सकते हैं, प्रार्थना की नहीं जा सकती। वह कोई कृत्य नहीं है कि आपने कुछ किया—घंटा बजाया, नाम लिया। वे सब बाह्य उपकरण हैं। प्रार्थना भीतर की एक मनोदशा है; ए स्टेट ऑफ माइंड।
दो तरह की मनोदशाएं हैं। मांग, डिजायर, वासना। वासना कहती है, यह चाहिए। मन की एक दशा है कि यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। चौबीस घंटे हम वासना में हैं, यह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए। एक क्षण ऐसा नहीं है, जब वासना न हो। कुछ न कुछ चाहिए। चाह धुएं की तरह चारों तरफ घेरे रहती है।

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