Thursday 14 May 2015

नारी और पुरूष में शारीरिक संरचना में जो भेद है। वह जितना बहारी है उससे कहीं ज्‍यादा उसके अंतस की भिन्‍नता है। नारी को क्‍या सौन्‍दर्य की वाक्‍य में कोई जरूरत नहीं है? क्‍या उस के पास कुछ ऐसा है जो उसे पूर्ण बनाए है, या कुदरत ने उसे कुछ ऐसा दिया है जिस पूंजी के सामने पुरूष फिका पड़ जाता है। क्‍या सच ही उसके पास कोई आंतरिक पूंजी है। जो पूरी प्रकृति में नर को अपनी और आकृष्ट कर रही है। फिर क्‍या आज की नारी अपने उस स्वभाव से अपनी लय वदिता से कहीं भटक गई हे। जो उसे पुरूष को अपनी और अकृषित करने के लिए इतना बनाव सिंगार करना पड़ रहा है।
पूरी प्रकृति पर हम एक नजर डाले तो हमें पता चलेगा की केवल नर ही का ऊपरी आवरण कुदरत रंग-रूप, शरीर विशेष बनावट देखी जा सकती है। मोर, चिडिया, तोता कबूतर…या पशुओं में बेल, बकरा, हाथी, शेर….अधिकतर प्राणीयों में नर का बहारी आवरण एक ही नजर में आपको अपनी और खींच लेगा। लेकिन मादा उतनी सुंदर या सुडौल नहीं होगी। फिर भी नर अपनी और खींचने या रिझा ने के लिए क्‍या–क्‍या जतन प्रयत्‍न नहीं करते दिखाई देते, कोई सुंदर गीत गा कर, कोई नाच कर, कोई सुंदर घोसला बना कर, कोई चपला दिखा कर… अनेक-अनेक जाती के पशु पक्षी अपने-अपने तरीके से मादा को लुभाने की कोशिश करते है।
वैसे भी वैज्ञानिकों कि मानें तो नारी 24-24 गुण सुत्रों से भर पूर होती है। जबकि पुरूष के पास मात्र 24-23 गुण सूत्र होते है। वहीं एक गुण सूत्र उसे बेचैन किय रहता है। वो कुछ न कुछ करता ही रहेगा। परन्‍तु उसका अनुपात कभी सम नहीं हो सकता। वह अधूरा ही रहता हे। नानक न जिस पूर्ण पुरख की बात कहीं है। वो अध्‍यात्‍म की उस चरम की बात कर रहे है जहां द्वत का विभाजन खत्‍म हो जाता है। न नारी न पुरूष। लेकिन वो अवस्था तो मनुष्‍य की चेतना की उच्‍च से उच्‍चतम है। लेकिन आम जीवन में तो पुरूष ज्‍यादा बेचैन और परेशान है। नारी के बनिस्बत।
क्‍या मनुष्‍य पूरी प्रकृति से भिन्‍न है। क्‍या वो उसी चेतना के विकास क्रम का एक हिस्‍सा नहीं है। जो भिन्‍न-भिन्‍न रूप और बहु मार्ग जिसे वो पीछे छोड़ कर आया है। वो उसी जीवन रूपी नदी के तट । जिसे चेतना का प्रवाह केवल आकर रंग रूप बदलता चाल गया। ये केवल समय और काल का भेद है। मुसाफिर तो वह उसी मार्ग का है।
कहते है द्रोपदी के शरीर से ऐसी सुगंध निकलती थी वो आस पास के वातावरण को सुगंध से भर देती थी । सीता, अनसूया, सावित्री…. जिन्‍हें हिन्दूओ ने सती कहा है। उन के अंदर की चेतना इतनी पूर्ण थी। वो इतनी समस्‍वरता में जी रही थी कि उन के पास जाने की रावण ने हिम्‍मत नहीं की। सती कि परिभाषा में हिन्दूओ ने उसी नारी को जोड़ा है। स्वप्न में भी पराये पुरूष का विचार ने करे। फिर देखिए मीरा को समय और स्‍थान उन के और कृष्‍ण के लिए कुछ भी मायने नहीं रख सका है। चार हजार साल से भी ज्‍यादा समय की दुरी है कृष्‍ण और मीरी में पर वह प्रेम के आगे कोई महत्‍व नहीं रख सका। जब हम अपनी समस्‍वरता में होते है हमारी उर्जा बहार नहीं बह रही होती है मनस शरीर में कोई छिद्र नहीं होता है। उस समय हम पूर्णता घनी भूत हो जाते है। मीरा कहां गली-गली नहीं भटकती थी, पर उस की तरफ कोई आँख उठा कर देखने कि हिम्‍मत नहीं कर सका। क्‍या कारण हो सकता है। कहते है एक बार मीरा वृंदावन के कृष्‍ण मंदिर में आई वहां पर नारी के लिए प्रवेश वर्जित था। वहां का जो प्रधान पुजारी था वो बह्रचारी था। जब उस ने मीरा को अंदर आते देखा तो उसे द्वारपाल को रोकने के लिए कहां यहां पर नारी का प्रवेश नहीं है। यहां केवल पुरूष ही प्रवेश कर सकते है। कहते है मीरा ने उस द्वार पाल को कहां क्‍या और भी पुरूष है दुनियां में, मैं तो सोचती थी एक ही पुरूष है केवल ‘’कृष्‍णा’’ अब उस पुजारी की हिम्‍मत नहीं हुई मीरी का सामना करने की और वो उसके चरणों में झुक गया। वो मीरा की पूर्णता उस की तरंगों के बेबस हो गया शायद उस ने आज जिसे उसने पहली बार किसी पूर्ण नारी को देखा वही थी किसी नारी पूर्णता । कुल मिला कर जब हमारी ऊर्जा अंदर सम हो जाती है। वही से नारी या पुरूष की पूर्णता का आरम्‍भ होता है। अभी तो हम खंडों में बटे है। टुकडों में।

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