Monday 11 May 2015

इसलिए शरणागति के दो उपाय हैं। और दुनिया में दो ही तरह के धर्म हैं। क्योंकि शरणागति के दो ही उपाय हैं।
एक तो उपाय यह है कि आप शून्य हो जाएं। बुद्ध, महावीर जो कहते हैं, अशरण हो जाओ, वह आपको शून्य होने के लिए कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, बिलकुल शांत हो जाएं, शून्य हो जाएं। शून्य होते से वही घटना घट जाती है, केंद्र आपके भीतर नहीं रह जाता। दूसरा मार्ग है कि आप अपने को विचार ही मत करें, राम के चरणों में रख दें सिर, कि कृष्ण के चरणों में रख दें। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज—स्ब छोड़, सब धर्म; मेरी शरण आ जा। आप किसी के चरण में सिर रखते हैं। या तो आप शून्य हो जाएं, तो केंद्र मिट गया भीतर से। और या आप किसी को पूर्ण मान लें, तो भीतर से केंद्र मिट गया। दोनों ही अवस्था में आप मिट जाते हैं।
जैन—बौद्ध पहली धारणा को मानकर चलते हैं। परिणाम वही है। शून्य हो जाना है, शांत हो जाना है, मौन हो जाना है। अहंकार को भूल जाना है, विसर्जित कर देना है। इसलिए वे अशरण की बात बोल सकते हैं। अशरण की इसलिए—थोड़ा समझ लेना जरूरी है—क्योंकि महावीर कहते हैं कि अहंकार इतना सूक्ष्म है कि तुम जब शरणागति करोगे, तो उसमें भी बच सकता है।
उनकी बात में सचाई है। महावीर कहते हैं कि जब तुम किसी की शरण में जाओगे, तो तुम ही जाओगे। यह तुम्हारा ही निर्णय होगा। तुम ही सोचोगे, तय करोगे, कि मैं शरण जाता हूं। तो यह तुम्हारे मैं का ही निर्णय है। इसमें डर है कि मैं छिप जाएगा, मिटेगा नहीं। क्योंकि तुम सदा मालिक रहोगे। जब चाहो, अपनी शरण वापस ले सकते हो।
अर्जुन कृष्ण से कह सकता है कि बस, बहुत हो गया। अब मैंने आपके चरणों में जो सिर रखा था, वापस लेता हूं। तो कृष्ण क्या करेंगे?
आप किसी व्यक्ति को गुरु चुनते हैं, वह आपका ही चुनाव है। कल आप गुरु को छोड़ देते हैं, तो गुरु क्या कर सकता है! अगर आप शरण जाने के बाद भी छोड़ने में समर्थ हैं, तो यह शरण झूठी हुई और धोखा हुआ; और आपने सिर्फ अपने को भुलाया, विस्मृत किया, लेकिन मिटे नहीं।
यह डर है। इस डर के कारण महावीर ने कहा, यह बात ही उपयोगी नहीं है। दूसरे की शरण मत जाओ, अपने को ही सीधा मिटाओ। दूसरे के बहाने नहीं, सीधा। यह सीधा आक्रमण है।
कृष्ण, राम, मोहम्मद, क्राइस्ट, जरथुस्त्र, वे सब शरण को मानते हैं कि शरण जाओ। उनकी बात में भी बड़ा बल है। क्योंकि वे कहते हैं कि जब तुम शरण जाकर भी नहीं मिटते हो और अपने को धोखा दे सकते हो, तो जो व्यक्ति दूसरे के बहाने अपने को धोखा दे सकता है, वह अकेले में तो धोखा दे ही लेगा। जो दूसरे की मौजूदगी में भी धोखा देने से नहीं बचता, जहां कि एक गवाह भी था, जहां कि कोई देख भी रहा था, वह अकेले में तो धोखा दे ही लेगा।
आप ताश खेलते हैं, तो आप दूसरों को धोखा देते हैं। लेकिन लोग हैं, जो कि पेशेंस खेलते हैं, अकेले ही खेलते हैं, अपने को ही धोखा दे देते हैं। अगर आपने अकेले ही ताश के पत्ते दोनों तरफ से चले हैं, तो आपको पता होगा कि आपने कई दफा धोखा दिया। किसको धोखा दे रहे हैं! लेकिन अकेले ताश खेलने में भी लोग धोखा देते हैं
अड़चन है। अड़चन आदमी के साथ है। कोई भी विधि हो, अड़चन रहेगी। तो कृष्ण और जरथुस्त्र और क्राइस्ट की मान्यता है कि जो आदमी गुरु के सामने भी धोखा दे लेता है और अपने अहंकार को बचा लेता है, उसको अकेला छोड़ना खतरनाक है। कम से कम दूसरे की आंखें, दूसरे की मौजूदगी सम्हलने का मौका बनेगी। और इसमें सचाई है।

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