Friday 22 May 2015

जिंदगी ही जब बिना पूछे बीत जाती हो तो आश्चर्य नहीं होगा कि आपमें से बहुत लोग बिना पूछे यहां आ गए हों कि क्यों जा रहे हैं। शायद कुछ लोग जानकर आए हों, संभावना बहुत कम है। हम सब ऐसी मूर्च्छा में चलते हैं, ऐसी मूर्च्छा में सुनते हैं, ऐसी मूर्च्छा में देखते हैं कि न तो हमें वह दिखाई पड़ता जो है, न वह सुनाई पड़ता जो कहा जाता है, और न उसका स्पर्श अनुभव हो पाता जो सब ओर से बाहर और भीतर हमें घेरे हुए है।
मूर्च्छा में ही यहां भी आ गए होंगे। शात भी नहीं है; हमारे कदमों का भी हमें कुछ पता नहीं है; हमारी श्वासों का भी हमें कुछ पता नहीं है। लेकिन मैं क्यों आया हूं यह मुझे जरूर पता है; वह मैं आपसे कहना चाहूंगा।
बहुत जन्मों से खोज चलती है आदमी की। न मालूम कितने जन्मों की खोज के बाद उसकी झलक मिलती है— जिसे हम आनंद कहें, शांति कहें, सत्य कहें, परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें—जो भी शब्द ठीक मालूम पड़े, कहें। ऐसे कोई भी शब्द उसे कहने में ठीक नहीं हैं, समर्थ नहीं हैं। जन्मों—जन्मों के बाद उसका मिलना होता है।
और जो लोग भी उसे खोजते हैं, वे सोचते हैं, पाकर विश्राम मिल जाएगा। लेकिन जिन्हें भी वह मिलता है, मिलकर पता चलता है कि एक नये श्रम की शुरुआत है, विश्राम नहीं। कल तक पाने के लिए दौड़ थी और फिर बांटने के लिए दौड़ शुरू हो जाती है। अन्यथा बुद्ध हमारे द्वार पर आकर खड़े न हों, और न महावीर हमारी सांकल को खटखटाए, और न जीसस हमें पुकारें। उसे पा लेने के बाद एक नया श्रम।
सच यह है कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे पाने में जितना आनंद है, उससे अनंत गुना आनंद उसे बांटने में है। जो उसे पा लेता है, फिर वह उसे बांटने को वैसे ही व्याकुल हो जाता है, जैसे कोई फूल खिलता है और सुगंध लुटती है, कोई बादल आता है और बरसता है, या सागर की कोई लहर आती है और तटों से टकराती है। ठीक ऐसे ही, जब कुछ मिलता है तो बंटने के लिए, बिखरने के लिए, फैलने के लिए प्राण आतुर हो जाते हैं।
मेरा मुझे पता है कि मैं यहां क्यों आया हूं। और अगर मेरा और आपका कहीं मिलन हो जाए, और जिस लिए मैं आया हूं अगर उस लिए ही आपका भी आना हुआ हो, तो हमारी यह मौजूदगी सार्थक हो सकती है। अन्यथा अक्सर ऐसा होता है, हम पास से गुजरते हैं, लेकिन मिल नहीं पाते। अब मैं जिस लिए आया हूं अगर उसी लिए आप नहीं आए हैं, तो हम पास होंगे, निकट रहेंगे, लेकिन मिल नहीं पाएंगे।

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