Monday 18 May 2015

निश्चित ही असंगत है। इससे ज्यादा बड़ी भूल की कोई और बात नहीं कि कोई भगवान को खोजे। क्योंकि खोजा केवल उसी को जा सकता है, जिसे हमने खो दिया हो। जिसे हमने खोया ही नहीं है, उसे खोजने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब यह पता चल जाए कि मैं भगवान हूं तभी खोज असंगत है, उसके पहले असंगत नहीं है। उसके पहले तो खोज करनी ही पड़ेगी।
खोज से भगवान न मिलेगा, खोज से सिर्फ यही पता चल जाएगा कि जिसे मैं खोज रहा हूं वह कहीं भी नहीं है, बल्कि जो खोज रहा है वहीं है। खोज की व्यर्थता भगवान पर ले आती है, खोज की सार्थकता नहीं।
इसे थोड़ा समझना कठिन होगा, लेकिन समझने की कोशिश करें। यहां खोजने वाला ही वह है जिसकी खोज चल रही है। जिसे आप खोज रहे हैं वह भीतर छिपा है। इसलिए जब तक आप खोज करते रहेंगे, तब तक उसे न पा सकेने। लेकिन कोई सोचे कि बिना खोज किए, ऐसे जैसे हैं ऐसे ही रह जाएं, तो उसे पा लेंगे, वह भी न पा सकेगा। क्योंकि अगर बिना खोज किए आप पा सकते होते तो आपने पा ही लिया होता। बिना खोज किए मिलता नहीं, खोजने से भी नहीं मिलता। जब सारी खोज समाप्त हो जाती है और खोजने वाला चुक जाता है, कुछ खोजने को नहीं बचता, उस क्षण यह घटना घटती है।
कबीर ने कहा है, खोजत—खोजत हे सखी रह्या कबीर हिराइ। खोजते—खोजते वह तो नहीं मिला, लेकिन खोजने वाला धीरे— धीरे खो गया। और जब खोजने वाला खो गया, तो पता चला कि जिसे हम खोजते थे वही भीतर मौजूद है।
हम जब परमात्मा को भी खोजते हैं, तो ऐसे ही जैसे हम दूसरी चीजों को खोजते हैं। कोई धन को खोजता है, कोई यश को खोजता है, कोई पद को खोजता है। आंखें बाहर खोजती हैं— धन को, पद को, यश को, ठीक। हम भगवान को भी बाहर खोजना शुरू कर देते हैं। हमारी खोज की आदत बाहर खोजने की है। उसे भी हम बाहर खोजते हैं। बस वहीं भूल हो जाती है। वह भीतर है। वह खोजने वाले की अंतरात्मा है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं आपसे कह रहा हूं कि खोजें मत। आप खोज ही कहां रहे हैं जो आपसे कहूं कि खोजें मत। जो खोज रहा हो, खोजकर थक गया हो, उससे कहा जा सकता है रुक जाओ। जो खोजने ही न निकला हो, जो थका ही न हो, जिसने खोज की कोई चेष्टा ही न की हो, उससे यह कहना कि चेष्टा छोड़ दो, नासमझी है। चेष्टा छोड़ने के लिए भी चेष्टा तो होनी ही चाहिए।
एक मजे की बात इससे मुझे स्मरण आती है। एक मित्र ने पूछी भी है, उपयोगी होगी। कृष्‍ण भी कहते हैं कि वेद में मैं नहीं मिलूंगा, शास्त्र में नहीं मिलूंगा, यश में नहीं मिलूंगा, योग में, तप में नहीं मिलूंगा। लेकिन आपको पता है यह किन लोगों से कहा है उन्होंने? जो वेद में खोज रहे थे, यश में खोज रहे थे, तप में खोज रहे थे, योग में खोज रहे थे, उनसे कहा है। आपसे नहीं कहा है। आप तो खोज ही नहीं रहे हैं।
बुद्ध ने कहा है, शास्त्रों को छोड़ दो, तो ही सत्य मिलेगा। लेकिन यह उनसे कहा है जिनके पास शास्त्र थे। कृष्णमूर्ति भी लोगों से कह रहे हैं, शास्त्रों को छोड़ दो, सत्य मिलेगा। लेकिन वे उनसे कह रहे हैं जो शास्त्र को पकड़े ही नहीं हैं। आप छोडिएगा खाक? जिसको पकड़ा ही नहीं उसको छोडिएगा कैसे?
कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग सोचते हैं कि तब तो ठीक। सत्य ‘ तो हमें मिला ही हुआ है, क्योंकि हमने शास्त्र को कभी पकड़ा ही नहीं। जिसने पकड़ा नहीं है वह छोड़ेगा कैसे? और सत्य मिलेगा छोड़ने से। पकड़ना उसका अनिवार्य हिस्सा है।
आपके पास जो है वही आप छोड़ सकते हैं। जो आपके पास नहीं है उसे कैसे छोडिएगा? आपकी खोज होनी चाहिए। और जब आप खोज से थक जाएंगे; ऊब जाएंगे; परेशान हो जाएंगे; जब न खोजने को कोई रास्ता बचेगा, न खोजने की हिम्मत बचेगी; जब सब तरफ फ्रस्ट्रेटेड, सब तरफ उदास टूटे हुए आप गिर पड़ेंगे, उस गिर पड़ने में उसका मिलना होगा। क्योंकि जब बाहर खोजने को कुछ भी नहीं बचता, तभी आंखें भीतर की तरफ मुड़ती हैं। और जब बाहर चेतना को जाने के लिए कोई मार्ग नहीं रह जाता, तभी चेतना अंतर्गामी होती है।

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