Saturday 2 May 2015

 नुष्‍य है एक बीज—अनन्त सम्भावनाओं से भरा हुआ। बहुत फूल खिल सकते हैं मनुष्य में, अलग—अलग प्रकार के। बुद्धि विकसित हो मनुष्य की तो विज्ञान का फूल खिल सकता है और हृदय विकसित हो तो काव्य का और पूरा मनुष्य ही विकसित हो जाए तो संन्यास का।
संन्यास है, समग्र मनुष्य का विकास। और पूरब की प्रतिभा ने पूरी मनुष्यता को जो सबसे बड़ा दान दिया—वह है संन्यास।

संन्यास का अर्थ है, जीवन को एक काम की भांति नहीं वरन एक खेल की भांति जीना। जीवन नाटक से ज्यादा न रह जाए, बन जाए एक अभिनय। जीवन में कुछ भी इतना महत्वपूर्ण न रह जाए कि चिन्ता को जन्म दे सके। दुख हो या सुख, पीड़ा हो या संताप, जन्म हो या मृत्यु संन्यास का अर्थ है इतनी समता में जीना—हर स्थिति में—ताकि भीतर कोई चोट न पहुंचे। अन्तरतम में कोई झंकार भी पैदा न हो। अंतरतम ऐसा अछूता रह जाए जीवन की सारी यात्रा में, जैसे कमल के पत्ते पानी में रहकर भी पानी से अछूते रह जाते हैं। ऐसे अस्पर्शित, ऐसे असंग, ऐसे जीवन से गुजरते हुए भी जीवन से बाहर रहने की कला का नाम संन्यास है।


यह कला विकृत भी हुई। जो भी इस जगत में विकसित होता है, उसकी सम्भावना विकृत होने की भी होती है। संन्यास विकृत हुआ, संसार के विरुद्ध खड़े हो जाने के कारण—संसार की निंदा, संसार की शत्रुता के कारण। संन्यास खिल सकता है वापस, फिर मनुष्य के लिए आनन्द का मार्ग बन सकता है, संसार के साथ संयुक्त होकर, संसार को स्वीकृत करके। संसार का विरोध करनेवाला, संसार की निन्दा और संसार को शत्रुता के भाव से देखनेवाला संन्यास अब आगे सम्भव नहीं होगा। अब उसका कोई भविष्य नहीं है। है भी रुग्ण वैसी दृष्टि।

यदि परमात्मा है तो यह संसार उसकी ही अभिव्यक्ति है। इसे छोड़कर, इसे त्यागकर परमात्मा को पाने की बात ही ना—समझी है। इस संसार में रहकर ही इस संसार से अछूते रह जाने की जो सामर्थ्य विकसित होती है, वही इस संसार का पाठ है, वही इस संसार की सिखावन है। और तब संसार एक शत्रु नहीं वरन एक विद्यालय हो जाता है और तब कुछ भी त्याग करके—सचेष्ट रूप से त्याग करके, छोड़कर भागने की पलायन—वृत्ति को
प्रोत्साहन नहीं मिलता वरन जीवन को उसकी समग्रता में, स्वीकार में, आनन्दपूर्वक, प्रभु का अनुग्रह मानकर जीने की दृष्टि विकसित होती है।

भविष्य के लिए मैं ऐसे ही संन्यास की सम्भावना देखता हूं जो परमात्मा और संसार के बीच विरोध नहीं मानता, कोई खाई नहीं मानता वरन संसार को परमात्मा का प्रगट रूप मानता है। परमात्मा को संसार का अप्रगट छिपा हुआ प्राण मानता है। संन्यास को ऐसा देखेंगे तो वह जीवन को दीन—हीन करने की बात नहीं, जीवन को और समृद्धि और सम्पदा से भर देने की बात है।


वास्तव में जब भी कोई व्यक्ति जीवन को बहुत जोर से पकड़ लेता है तब ही जीवन कुरूप हो जाता है। इस जगत में जो भी हम जोर से पकड़ेंगे, वही कुरूप हो जाएगा। और जिसे भी हम मुक्त रख सकते हैं, स्वतंत्र रख सकते हैं, मुट्ठी बांधे बिना रख सकते हैं, वही इस जगत में सौंदर्य को, श्रेष्ठता को शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है।

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