Tuesday 26 May 2015

कृष्ण के भक्तों ने भी चुनाव किया है । अगर सूर कृष्ण की बहुत चर्चा करते हैं तो बालपन की बहुत चर्चा करते हैं। बाद का हिस्सा छोड़ देते हैं। सूर की हिम्मत के बाहर है। सूर तो बहुत कमजोर हिम्मत के आदमी हैं। आंखें फोड़ ली हैं एक स्त्री को देखने के डर से। अब जरा सोचने जैसा है कि सूरदास ने, कहीं ये आंखें किसी स्त्री के प्रेम में न डाल दें और कहीं ये आंखें किसी वासना में न ले जाएं, आंखें फोड़ ली हैं; यह आदमी, यह आदमी कृष्ण को पूरा स्वीकार कर सकेगा? बड़ा प्रेम है सूर का कृष्ण से, शायद कम ही लोगों का ऐसा प्रेम रहा है, तो फिर क्या करे यह? कृष्ण को इसे दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा। बालपन के कृष्ण को यह पकड़ लेगा, युवा कृष्ण को यह छोड़ देगा। क्योंकि युवा कृष्ण समझ के बाहर है। क्योंकि युवा कृष्ण समझ में आ सकता था अगर आंखें फोड़ लेता। सूरदास से संगत बैठ जाती। लेकिन युवा कृष्ण की आंखें–ऐसी आंखें ही कम लोगों के पास रही होंगी। इतनी स्त्रियां आकर्षित हो जाएं ऐसी आंखें पाना बहुत मुश्किल है। बड़ा मुश्किल है। बड़ा सवाल यह नहीं है कि इतनी स्त्रियां आकर्षित हुईं, बड़ा सवाल यह है कि एक ही आदमी की आंखों पर। यह आकर्षण असाधारण रहा होगा। ये आंखें “मेग्नेटिक’ रही होंगी, ये आंखें बड़ा चुंबक रही होंगी। सूरदास के पास इतनी कीमती आंखें नहीं थीं। क्योंकि सूरदास ही उत्सुक थे, कोई स्त्री उत्सुक थी इसका मुझे पता नहीं है।
सूरदास कैसे चुनाव करेंगे, क्या करेंगे? तो बच्चे को पकड़ लेंगे, स्वीकार कर लेंगे कि बाल-कृष्ण। इसलिए कृष्णों पर रचे गए शास्त्र भी चुनाव के शास्त्र हैं। सूरदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं, केशवदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं। केशव बाल-कृष्ण में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। केशव का मन राग और रंग का मन है। केशव का मन युवा का मन है। वह आंख फोड़ने वाला मन नहीं है। रात भी आंख बंद करनी न पड़े ऐसा मन है। तो केशव क्या करेंगे? केशव बाल-कृष्ण की बात ही भूल जाएंगे, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह उस कृष्ण को चुन लेंगे जो नाच रहा है। इसलिए नहीं कि कृष्ण के नाच को समझ रहे हैं वह, बल्कि इसलिए कि नाचनेवाला उनका मन है। इसलिए कृष्ण पर नाचना थोप देंगे। उस कृष्ण को पकड़ लेंगे जो स्त्रियों के वस्त्र लेकर वृक्ष पर चढ़ गया है नग्न छोड़कर। इसलिए नहीं कि कृष्ण जिस तरह उन स्त्रियों को नग्न छोड़ गया था, उसे केशव समझ सकते हैं, बल्कि इसलिए कि स्त्रियों को नग्न करना चाहते हैं। तो केशव का अपना चुनाव है, सूर का अपना चुनाव है। भागवत अलग कृष्ण की बात करती है, गीता अलग कृष्ण की बात करती है। ये सब चुनाव बंट गए हैं। क्योंकि यह आदमी पूरा है और इसे पूरा पचा लेने का साहस पूरे आदमी में ही हो सकता है। अधूरा आदमी इसमें से बांट लेगा, छांट लेगा, कहेगा इतने तक ठीक, इसके आगे आंख बंद कर लेते हैं, इसके आगे तुम नहीं हो। या इसके आगे होओगे भी तो वह कहानी है। या इसके आगे होओगे भी तो नर्क में फल पाओगे। और इसके आगे भी तुम थे तो हमारे काम के नहीं हो। हमारे काम के यहां तक। इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व पर मील के पत्थर लगा दिए गए हैं। सबने अपना-अपना हिस्सा बांट लिया है। जिसको जो प्रीतिकर लगता है वह चुन लेता है। लेकिन कृष्ण एक सागर की तरह हैं, जिसमें हम अपने घाट भला बना लें, वह घाट पूरे सागर पर नहीं बनता, वह हमारे घाट की ही जमीन पर बनता है, हम पर ही बनता है। वह सागर का बंधन नहीं है। वह हमारी समझ की सूचना है।
इसलिए मैं तो पूरे कृष्ण की बात करूंगा। इसलिए बात बहुत जगह अबूझ हो जाएगी। और बात बहुत मुश्किल में डाल देगी। और बात बहुत जगह आपकी समझ के बाहर जाने लगेगी। वहां आप समझ के बाहर चलने की भी हिम्मत करना। नहीं तो आप अपनी समझ की जगह रह जाएंगे और मील का पत्थर आ जाएगा और उसके आगे का कृष्ण आपके काम का न रह गया। और कृष्ण अगर हैं काम के तो पूरे-के-पूरे हैं। कोई भी व्यक्ति पूरा ही काम का होता है। काट-काटकर मुर्दा अंग हाथ में आते हैं, जिंदा आदमी समाप्त हो जाता है। इसलिए जिन्होंने भी कृष्ण को काटा है, किसी के हाथ में हाथ कृष्ण का, किसी का पैर है, किसी की आंख है, किसी का गला है। लेकिन पूरे कृष्ण हाथ में नहीं हो सकते। पूरे कृष्ण को हाथ में होने की तो एक ही संभावना है कि आप पूरे को बिना चुने समझने को राजी हो जाएं, और यह समझना बड़े आनंद की यात्रा होगी, क्योंकि इस समझने में आप भी पूरे हो सकते हैं। इस समझने में आप का भी पूरा होना यह शुरू हो जाएगा। अगर इस समझने के लिए आप राजी हुए और चुनाव न किया, तो आप अचानक भीतर पाएंगे कि आप के भी विरोधी छोर घुलने-मिलने लगे, आप में भी धूप-छांव एक होने लगी। आपके भीतर भी वह जो कटा-कटा व्यक्तित्व है, वह अखंड होने लगा। आप भी योग को उपलब्ध होने लगे। कृष्ण के योग का एक ही अर्थ है, अखंड, एक हो जाना।
योग की दृष्टि अखंड ही हो सकती है। योग का मतलब है, “दि टोटल’, जोड़। इसलिए कृष्ण को महायोगी कहा जा सकता। योगी तो बहुत हैं, लेकिन वे भी योगी नहीं हैं, क्योंकि जोड़ वहां नहीं है, सब चुनाव है। “च्वाइसलेसनेस’ वहां नहीं है।
इस अखंड कृष्ण की चर्चा कठिन तो पड़ेगी, बहुत कठिन पड़ेगी, क्योंकि बुद्धि की जो “कटेग्रीज़’ हैं, बुद्धि के सोचने के जो मापदंड हैं, वे बंटे हुए हैं। बटखरे हैं बुद्धि के, बांट हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि किसी के पास पुराने बांट हैं और किसी के पास नए बांट हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मीट्रिक प्रणाली के बांट हैं कि पुराना सेर और पुराना पाव और छटांक है, इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चाहे पुरानी हो, चाहे नई; बुद्धि चाहे अतीत की हो, चाहे आज की; चाहे “अल्ट्रा माडर्न’ हो, चाहे “अल्ट्रा एनशिएंट’ हो; चाहे कितनी ही प्राचीन बुद्धि हो–शास्त्रों की हो–और चाहे कितनी ही नई हो–विज्ञान की हो–इससे फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि का एक धर्म है। वह बांटकर चलती है, तोड़कर चलती है। निर्णय करती है, यह ठीक और यह गलत।
अगर आपको कृष्ण को समझना हो, तो इन दस दिनों में निर्णय ही मत करना। इन दस दिनों में सुनना, समझना, निर्णय मत करना। और जहां-जहां नासमझी की जगह आ जाए कि अब समझ में नहीं आता, वहां-वहां फिकिर मत करना और नासमझी में भी जाने की हिम्मत करना। “इर्रेशनल’ बहुत जगह आ जाएगा, क्योंकि कृष्ण को “रेशनल’ नहीं बनाया जा सकता। कृष्ण को बुद्धिगत नहीं बनाया जा सकता। और वह जो अबुद्धि है, या बुद्धि-अतीत जो है, वह भी वहां है। वह जो बुद्धि-अतीत है, वह जो “ट्रांसेंड’ करता है, बुद्धि के पार चला जाता है, वह भी वहां है।
इसलिए कृष्ण को तर्कयुक्त ढांचों में बिठाना असंभव है। वह तर्क मानते नहीं, वह खंड मानते नहीं। वह सब खंडों में बहते चले जाते हैं। वह हमारे घाट मानते नहीं, सब घाटों को छूते हैं। इसलिए कठिनाई तो पड़ेगी। बड़ी कठिनाई यही पड़ेगी कि आपका घाट चुकने लगेगा और कृष्ण न चुकेंगे। वह कहेंगे, मैं आगे भी हूं। तुम्हारा घाट भी मैं छूता हूं, लेकिन और घाट भी मैं छूता हूं। मैं बुरे के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं, भले के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं। शांति का मेरा छोर नहीं, और युद्ध में मैं चक्र लेकर भी खड़ा हो जाता हूं। प्रेम का मेरा अंत नहीं, लेकिन तलवार से गर्दन भी काट सकता हूं। संन्यासी मैं पूरा हूं, लेकिन गृहस्थी होने में मुझे कोई पीड़ा नहीं है। परमात्मा से मेरा बड़ा लगाव है, लेकिन संसार से रत्ती भर कम नहीं है, संसार से भी उतना ही है। न मैं संसार के लिए परमात्मा को छोड़ सकता, न मैं परमात्मा के लिए संसार को छोड़ सकता हूं। मैंने तो पूरे के लिए राजी होने की कसम ले ली है। मैं हर रंग में रहूंगा।
इसलिए कृष्ण को अभी तक पूरा भक्त नहीं मिला। अर्जुन भी नहीं था। नहीं तो इतनी मेहनत न करनी पड़ती। युद्ध के मैदान पर गीता जैसा लंबा वक्तव्य देना पड़ा हो, तो हम सोच सकते हैं अर्जुन कैसा शंकाशील, कैसा संदेही, कैसा तर्क उठाने वाला–सब तरह की कोशिश की होगी; युद्ध के क्षण में, रणभेरी बज चुकी हो, सेनाएं आमने-सामने खड़ी हो गई हों, युद्ध का घंटानाद शुरू हो गया हो और वहां इतनी लंबी गीता समझानी पड़े। तो अर्जुन राजी नहीं हो गया होगा। उसकी बुद्धि बार-बार जोर मारती रही है कि आप ऐसा भी कहते हो और आप ऐसा भी कहते हो। वह बार-बार सवाल जो उठाता है, वह “कंट्राडिक्शन’ के हैं। वह कृष्ण से कहता है कि आपमें विरोधाभास है। आप एक तरफ ऐसा भी कहते हो और दूसरी तरफ ऐसा भी कहते हो! यह आप दोनों बातें कहते हो! उसके सारे सवाल गीता में बड़े तर्कसंगत हैं। वह यही कह रहा है कि तुम यह भी कहते हो और यह भी कहते हो? दोनों बातें एक साथ! तो फिर मेरी समझ में नहीं आता। अब तुम मुझे फिर से समझाओ। समझा नहीं पाते। समझा नहीं पाएंगे–कृष्ण जैसा पूरा व्यक्ति भी समझा नहीं पाता। समझाने से थक जाते हैं तो फिर दूसरा उपाय करना पड़ता है। अपने को पूरा दिखा देते हैं। यह समझाने का कोई उपाय नहीं। यह आदमी मानता ही नहीं, और यह तर्क जो उठाता है ठीक ही उठाता है। कृष्ण भी समझते हैं कि यह तर्क ठीक ही है, क्योंकि एक बात इससे उलटी पड़ती है, एक बात इससे उलटी पड़ती है–दोनों “इनकंसिस्टेंट’ हैं। तो इसको समझाओ कैसे! अर्जुन यही कहता है कि “कंसिस्टेंसी’ चाहता हूं, संगति चाहता हूं; हे कृष्ण! संगति बताओ! तुम जो कहते हो उससे मुझे भ्रमजाल में मत डालो, उससे तुम मुझे “कन्फ्यूज्ड’ मत करो। लेकिन कृष्ण उसका “कन्फ्यूज’ किए चले जाते हैं। वह दोनों बातें, एक वक्तव्य देते नहीं कि तत्काल दूसरा देते हैं जो इसका खंडन कर जाता है। करुणा, ममता भी समझाए चले जाते हैं, हिंसा भी करवाने की बात कहे चले जाते हैं।
ऐसा जो आदमी है, उसके पास फिर एक उपाय ही रह गया। थक गया सब। थक गए बुरी तरह। वह अर्जुन मानता नहीं, और युद्ध की घड़ी बढ़ी जाती है, और युद्ध पर सब सारथी और सब योद्धा, सब तैयार हैं, लगामें खिंच गई हैं और यह आदमी मानता नहीं। और इसी आदमी पर सब निर्भर है। यह भाग जाए तो सब गड़बड़ हो जाए। यह सारा खेल, यह सारा नाटक, यह बड़ा इतना इंतजाम, यह सब व्यर्थ हो जाए। वह उसको समझाए जाते हैं, आखिर थक जाते हैं, फिर वह उसको अपना पूरा रूप ही दिखा देते हैं। पूरे रूप को देखकर वह घबड़ा जाता है। कोई भी घबड़ा जाएगा। पूरे रूप का मतलब ही यह है, पूरे रूप का मतलब ही यह है कि वह सारे विरोधाभासों के साथ इकट्ठे मौजूद हो जाते हैं। उनके भीतर सब दिखाई देने लगता है–जन्म भी और मरण भी, एक साथ। हमें सुविधा पड़ती है, सत्तर साल पहले जन्म होता है, सत्तर साल बाद मरना होता है। दोनों में इतना फासला होता है, कि हम व्यवस्था बिठा लेते हैं कि जन्म अलग चीज, मृत्यु अलग चीज। एक साथ जन्म और मृत्यु दिखने लगते हैं उनके भीतर। एक साथ जगत बनता है और विसर्जित होता दिखाई पड़ने लगता है। एक साथ बीज और वृक्ष दिखाई पड़ने लगते हैं। एक साथ प्रलय आती है और सृजन होने लगता है। तो वह घबड़ा जाता है। वह कहता है कि अब बंद करो अपना यह रूप। मैं मर जाऊंगा! मैं इसे और नहीं देख सकता, इसे बंद करो! लेकिन इसके बाद वह सवाल नहीं उठाता। इसके बाद एक बार उसे दिखाई पड़ जाता है कि जिन्हें हम असंगतियां कहते हैं, विरोध कहते हैं, वे एक ही सत्य के हिस्से हैं, तो अब वह सवाल नहीं उठाता है, वह युद्ध में चला जाता है। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि वह राजी होकर गया है। राजी होकर नहीं जा पाता है। दिखाई पड़ गया उसे, लेकिन उसकी बुद्धि सवाल उठाती है। बुद्धि का काम ही सवाल उठाना है।
तो जितने सवाल आपको मुझसे उठाने हों, उठाना, लेकिन कृष्ण को समझने में सवाल मत उठाना। सवाल आप उठाना, आपकी सारी बुद्धि मुझ पर लगाना, लेकिन कृष्ण बहुत जगह बुद्धि को छोड़कर निर्बुद्धि में प्रवेश करने लगेंगे, वहां बहुत धैर्य की, बहुत साहस की–उससे बड़ा कोई साहस नहीं–वहां जरूरत पड़ेगी, वहां चलने को राजी होना। आपका प्रकाशित क्षेत्र खो जाएगा। अंधेरा शुरू होगा। आपके द्वार-दरवाजे वहां दिखाई नहीं पड़ेंगे, वहां साफ-सुथरे रास्ते नहीं होंगे, वहां सब “मिस्टीरियस’ और रहस्यपूर्ण हो जाएगा। वहां चीजें पुरानी शक्ल और पुरानी रूपरेखा और पुराने आकार में नहीं होंगी।

No comments:

Post a Comment