Monday 1 June 2015

कोई नहीं कहता आपसे कि आप धार्मिक हों। कम से कम लाओत्से तो नहीं कहेगा। क्योंकि धार्मिक लोगों ने इतने उपद्रव किए हैं कि आप न हों, तो अच्छा है। लाओत्से नहीं कहता कि धार्मिक हों। लाओत्से तो इतना ही कहता है कि जो आप हैं, वही हों।
आप पूछ सकते हैं कि वही हम क्यों हों?
क्योंकि वही आप हो सकते हैं। और कुछ होने का उपाय नहीं है। हां, और कुछ होने की आप कोशिश कर सकते हैं। उस कोशिश में जीवन व्यर्थ हो सकता है।
लेकिन आप कह सकते हैं कि हम जीवन को व्यर्थ क्यों न करें?
कोई आपको रोक नहीं सकता। और इसीलिए बुद्ध पुरुष भी हार जाते हैं और आपको सत्य का ज्ञान नहीं करवा पाते। क्योंकि आप कहते हैं, हम सत्य का ज्ञान क्यों करें? बुद्ध पुरुष भी क्या कर सकते हैं! कह सकते हैं। जो आनंद उन्हें उपलब्ध हुआ है, जो शांति उन्होंने पाई है, जो प्रकाश उन्हें मिला है, उसकी प्यास जगाने की चेष्टा कर सकते हैं। वे प्रकाश तो नहीं दे सकते, लेकिन प्यास जगाने की चेष्टा कर सकते हैं।
लेकिन आप यह भी कह सकते हैं कि क्यों हमारी प्यास जगाने की चेष्टा कर रहे हैं?
लेकिन आप थोड़ा समझने की कोशिश करें। अगर आप धार्मिक नहीं होना चाहते हैं, आप यहां पहुंच कैसे गए? आपको यह प्रश्न पूछने का खयाल क्यों आया? कोई बेचैनी है भीतर, जो आपको यहां तक ले आई, और आपने इतनी कृपा की और प्रश्न लिखा। इतना कष्ट उठाया। कोई बेचैनी है भीतर। एक बात तय है कि आप कुछ खोज रहे हैं। नहीं तो आने का कोई कारण नहीं है, प्रश्न पूछने का कोई कारण नहीं है। कोई खोज है।
आप क्या खोज रहे हैं? बुद्ध उसी को धर्म कहते हैं, लाओत्से उसी को ताओ कहते हैं। आपको पता हो या न पता हो, आप धर्म खोज रहे हैं। आपको यह भी पता नहीं है कि आप क्या खोज रहे हैं।
थोड़ा अपने भीतर जांच-पड़ताल करें: क्या है आकांक्षा? क्या है तलाश? हमें यह भी तो पता नहीं कि हम कौन हैं, क्यों हैं, किस वजह से हैं? हमारा होना बिलकुल अकारण मालूम होता है। इस पृथ्वी पर जैसे अचानक फेंक दिए गए हैं। क्यों हैं? बेचैनी है भीतर। और वह बेचैनी तब तक समाप्त न होगी, जब तक इस अस्तित्व के भीतर अपनी जड़ों का हमें अनुभव न हो जाए। जब तक हम इस अस्तित्व और अपने बीच एक संबंध को न जान लें, तब तक हमें बेचैनी जारी रहेगी।
धार्मिक होने का और क्या अर्थ है? शब्दों में जाने की कोई जरूरत नहीं है। धार्मिक होने का इतना ही अर्थ है: वह आदमी जिसने अस्तित्व और अपने बीच संबंध खोज लिया, जिसने विराट और अपने बीच नाता खोज लिया, जो अब इस जगत में एक परदेशी, अजनबी, स्ट्रैंजर नहीं है। यह जगत उसका परिवार हो गया। ये चांदत्तारे और सूरज उसका परिवार हो गए। अब वह अपने घर में है। धार्मिक होने का क्या मतलब है? धार्मिक होने का मतलब है कि हम कहीं परदेश में नहीं भटक रहे हैं, हम किन्हीं अजनबी लोगों के बीच में नहीं हैं; यह जगत हमारा घर है।
लेकिन मकान घर नहीं होता। मकान तो सभी हैं। कौन सा मकान घर होता है आपका? जिसके बीच और आपके बीच एक आत्मैक्य स्थापित हो जाता है, जिसके बीच और आपके बीच एक आंतरिक मिलन हो जाता है, तब मकान घर हो जाता है। अधार्मिक आदमी संसार में रहता है और धार्मिक आदमी परमात्मा में। संसार और उसके बीच एक संबंध, गहन संबंध हो जाता है। उसके भीतर के हृदय की वीणा पर जगत की सब चीजें संगीत उठाने लगती हैं। सूरज फिर पराया नहीं है। और चांदत्तारे फिर दूर नहीं हैं। सभी कुछ अपना है। और यह सारा विराट ब्रह्मांड अपना घर है। ऐसी जो प्रतीति है, वह धार्मिकता है।
अगर आप इस जगत में एक परिवार को खोज रहे हैं, एक प्रेम को, तो आप धर्म को खोज रहे हैं। अगर आप एक व्यक्ति के भी प्रेम में पड़ते हैं, तो आपने जगत के एक हिस्से को धार्मिक बना लिया। फिर जितना जिसका बड़ा है परिवार, उतना है उसका गहन आनंद।
कुछ लोग ऐसे हैं कि वे ही उनका अकेला परिवार हैं। कहीं उनका कोई नाता-रिश्ता नहीं है। फिर अगर ऐसे लोगों को लगने लगता है कि हम आउटसाइडर हैं…।
कोलिन विल्सन ने एक किताब लिखी है–दि आउटसाइडर। इस युग के लिए प्रतीक-किताब है। इस युग में हर आदमी को लगता है कि मैं एक अजनबी हूं। क्यों हूं? किससे मेरा क्या संबंध है? कौन मेरा, मैं किसका? कहीं कोई दिखाई नहीं पड़ता जोड़। उखड़े-उखड़े लोग, जैसे वृक्ष को जमीन से उखाड़ दिया हो और हवा में लटका दिया हो, वैसे हम हैं।
धार्मिक होने का अर्थ है, जड़ों की खोज। सिमोन वेल ने एक किताब लिखी है–दि नीड फॉर दि रूट्स। इस सदी में थोड़े से धार्मिक व्यक्तियों में वह महिला भी एक थी। उसने लिखा है कि धर्म जो है, वह जड़ों की तलाश है। यह जो लटका हुआ आकाश में, अधर में लटका हुआ वृक्ष है–सूखता हुआ, कुम्हलाता हुआ, तड़पता हुआ–इसको वापस जगह देनी है जमीन में। इसको फिर इसकी जड़ें मिल जाएं, यह फिर हरा हो जाए, इसमें फिर फूल आने लगें। धार्मिक होने का अर्थ है: अपनी ही खोज, अपने और जगत के बीच किसी संबंध की खोज। अपने और जगत के बीच किसी गहन प्रेम की खोज।
मैं नहीं कहता कि आप धार्मिक हो जाएं। लेकिन इस जमीन पर एक भी ऐसा आदमी नहीं है, जो धार्मिक नहीं होना चाह रहा है, भला वह इनकार ही क्यों न कर रहा हो। एक आदमी ऐसा खोजना मुश्किल है, जो धार्मिक न होना चाह रहा हो। धर्म को वह शब्द क्या देता हो, यह उसकी मर्जी। वह अपनी आकांक्षा को क्या रूप-आकृति देता हो, यह भी उसकी मर्जी। लेकिन मुझे अब तक ऐसा एक आदमी नहीं मिला, जो धार्मिक होने की तलाश में नहीं है। जिसको हम नास्तिक कहते हैं, वह भी तलाश में है।
असल में, आदमी की तलाश ही यही है कि वह इस जगत में कोई असंगत और व्यर्थता तो नहीं है? इस जगत में कोई उखड़ी हुई चीज, व्यर्थ की चीज तो नहीं है? इस जगत में उसके होने की कोई अर्थवत्ता है या नहीं, कोई सिग्नीफिकेंस? वह है, तो इस विराट में उसका कोई मूल्य है? इस जगत में मूल्य की खोज धर्म है। आप हैं, आपका कोई मूल्य है इस जगत में? कीमत हो सकती है; मूल्य कोई है आपका इस जगत में?
अगर आपका कोई मूल्य है, तो उसका अर्थ हुआ कि यह जगत आपके भीतर से विकसित हो रहा है; यह विराट चेतना की धारा आपके भीतर से विकासमान हो रही है। यह पूरा जगत आपको चाहता है; आपके हुए बिना अधूरा होता। आप न होते, तो यह जगत अधूरा होता, कुछ कमी होती, कुछ खाली जगह होती। आपने इस जगत को भरा है। इस जगत और आपके बीच कोई गहरा लेन-देन है। प्रतिपल यह जगत आपको दे रहा है और आपसे ले रहा है। आप और जगत के बीच एक गहरा अंतर्मिलन है। इस अंतर्मिलन की खोज ही धर्म है।
पर मैं नहीं कहता कि आप धार्मिक हो जाएं। दुनिया में कोई किसी के कहने से कभी धार्मिक नहीं हुआ है। बल्कि इतने लोग जो अधार्मिक दिखाई पड़ते हैं, यह बहुत चेष्टा करने का फल है।

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