Tuesday 16 June 2015

कुछ जो मुझे दिखाई पडता है, चाहता हूं आपको भी दिखाई पड़े। और मजा यह है कि वह इतने निकट है कि आश्चर्य ही होता है कि वह आपको दिखाई क्यों नहीं पड़ता! और कई बार तो संदेह होता है कि जैसे जानकर ही आप आंख बंद किए बैठे हैं; देखना ही नहीं चाहते हैं, अन्यथा इतने जो निकट है वह आपके देखने से कैसे चूक जाता! जीसस ने बहुत बार कहा है कि लोगों के पास आंखें हैं, लेकिन वे देखते नहीं; कान हैं, लेकिन वे सुनते नहीं। बहरे ही बहरे नहीं हैं और अंधे ही अंधे नहीं हैं। जिनके पास आंख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं। इतने निकट है, दिखाई नहीं पड़ता! इतने पास है, सुनाई नहीं पड़ता! चारों तरफ घेरे हुए है, स्पर्श नहीं होता! क्या बात है? कहीं कुछ कोई छोटा सा अटकाव होगा, बड़ा अटकाव नहीं है।
ऐसा ही है, जैसे आंख में एक तिनका पड़ जाए और पहाड़ दिखाई न पड़े फिर, आंख बंद हो जाए। तर्क तो यही कहेगा कि पहाड़ को जिसने ढांक लिया, वह तिनका बहुत बड़ा होगा। तर्क तो ठीक ही कहता है। गणित तो यही कहेगा, इतने बड़े पहाड़ को जिसने ढांक लिया, वह तिनका पहाड़ से बड़ा होना चाहिए। लेकिन तिनका बहुत छोटा है, आंख बड़ी छोटी है। तिनका आंख को ढंक लेता है, पहाड़ ढंक जाता है।
हमारी भीतर की आंख पर भी कोई बहुत बड़े पहाड़ नहीं हैं, छोटे तिनके हैं। उनसे जीवन के सारे सत्य छिपे रह जाते हैं। और वह आंख……निश्चित ही, जिन आंखों से हम देखते हैं उस आंख की मैं बात नहीं कर रहा हूं। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। यह ठीक से खयाल में आ जाना चाहिए कि इस जगत में हमारे लिए वही सत्य सार्थक होता है, जिसे पकड़ने की, जिसे ग्रहण करने की, जिसे स्वीकार कर लेने की, भोग लेने की रिसेप्टिविटी, ग्राहकता हममें पैदा हो जाती है।
सागर का इतना जोर का गर्जन है, लेकिन मेरे पास कान नहीं हैं तो सागर अनंत—अनंत काल तक भी चिल्लाता रहे, पुकारता रहे, मुझे कुछ सुनाई नहीं पड़ेगा। जरा से मेरे कान न हों कि सागर का इतना बड़ा गर्जन व्यर्थ हो गया; आंखें न हों, सूर्य द्वार पर खड़ा रहे, बेकार हो गया, हाथ न हों और मैं किसी को स्पर्श करना चाहूं तो कैसे करूं?
परमात्मा की इतनी बात है, आनंद की इतनी चर्चा है, इतने शास्त्र हैं, इतने लोग प्रार्थनाएं कर रहे, मंदिरों में भजन—कीर्तन कर रहे, लेकिन लगता नहीं कि परमात्मा को हम स्पर्श कर पाते हैं; लगता नहीं कि वह हमें दिखाई पड़ता है; लगता नहीं कि हम उसे सुनते हैं, लगता नहीं कि हमारे प्राणों के पास उसकी कोई धड़कन हमें सुनाई पड़ती है। ऐसा लगता है, सब बातचीत है, सब बातचीत है। ईश्वर की हम बात किए चले जाते हैं। और शायद इतनी बात हम इसीलिए करते हैं कि शायद हम सोचते हैं बातचीत करके अनुभव को झुठला देंगे; बातचीत करके ही पा लेंगे। अब बहरे जन्मों—जन्मों तक बातें करें स्वरों की, संगीत की, और अंधे बातें करें प्रकाश की, तो जन्मों तक करें बातें तो भी कुछ होगा नहीं। ही, एक भ्रांति हो सकती है कि अंधे प्रकाश की बात करते— करते यह भूल जाएं कि हम अंधे हैं, क्योंकि प्रकाश की बहुत बात करने से उन्हें लगने लगे कि हम प्रकाश को जानते हैं।
जमीन पर बने हुए परमात्मा के मंदिर और मस्जिद इस तरह का ही धोखा देने में सफल हो पाए हैं। उनके आसपास उनके भीतर बैठे हुए लोगों को भ्रम के अतिरिक्त कुछ और पैदा नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा हम परमात्मा को मान पाते हैं, जान नहीं पाते। और मान लेना बातचीत से ज्यादा नहीं है; कनविनसिंग बातचीत है तो मान लेते हैं; कोई जोर से तर्क करता है और सिद्ध करता है तो मान लेते हैं, हार जाते हैं, नहीं सिद्ध कर पाते हैं कि नहीं है, तो मान लेते हैं। लेकिन मान लेना जान लेना नहीं है। अंधे को हम कितना ही मना दें कि प्रकाश है, तो भी प्रकाश को जानना नहीं होता है।
मैं तो यहां इसी खयाल से आया हूं कि जानना हो सकता है। निश्चित ही हमारे भीतर कुछ और भी केंद्र है जो निष्कि्रय पड़ा है—जिसे कभी कोई कृष्ण जान लेता है और नाचता है, और कभी कोई जीसस जान लेता है और सूली पर लटक कर भी कह पाता है लोगों से कि माफ कर देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। निश्चित ही कोई महावीर पहचान लेता है, और किसी बुद्ध के भीतर वह फूल खिल जाता है। कोई केंद्र है हमारे भीतर—कोई आंख, कोई कान—जो बंद पड़ा है। मैं तो इसीलिए आया हूं कि वह जो बंद पड़ा हुआ केंद्र है, कैसे सक्रिय हो जाए।
यह बल्व लटका हुआ है। तो उससे रोशनी निकल रही है। तार काट दें हम, तो बल्व कुछ भी नहीं बदला, लेकिन रोशनी बंद हो जाएगी। विद्युत की धारा न मिले, बल्व तक न आए, तो बल्व अंधेरा हो जाएगा और जहां प्रकाश गिर रहा है वहां सिर्फ अंधेरा गिरेगा। बल्व वही है, लेकिन निष्‍क्रिय हो गया; वह जो धारा शक्ति की दौड़ती थी, अब नहीं शडुश है। और शक्ति की धारा न दौडती हो तो बल्व क्या करे?

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