Thursday 11 June 2015

चिंता हमारी यही है कि हम लहर होकर अपने को सागर समझ लेते हैं, लहर होकर सागर के विपरीत खड़े हो जाते हैं। तब अस्वीकार पैदा होता है। तब यह ठीक है और यह गलत, हम निर्णायक हो जाते हैं।
लाओत्से इतना ही कहता है कि निर्णय लहर क्या लेगी! लहर है ही कहां, जो निर्णय ले सके? उसका अलग होना ही नहीं है, सागर का एक हिस्सा है; सागर से ही जन्मी है, सागर में ही लीन हो जाएगी। जन्म को जिस सदभाव से स्वीकार किया है, उसी भाव से मृत्यु को भी स्वीकार कर लेना जरूरी है। दोनों ही सागर का दान हैं। सुख को जिस भांति माना, वैसे ही दुख को भी मान लेना जरूरी है। दोनों ही सागर के दान हैं। इस अर्थ में सर्व-स्वीकार परम क्रांति है, उससे बड़ी और कोई क्रांति नहीं है। क्योंकि तब व्यक्ति की बूंद खो जाती है, और सागर ही रह जाता है।
अब हम सूत्र को लें।
निष्क्रियता लाओत्से के लिए परम सत्य है, आत्यंतिक, अल्टीमेट। लेकिन निष्क्रियता का ऐसा अर्थ नहीं है कि वह परिणामकारी नहीं है। लाओत्से कहता है, निष्क्रियता परम परिणामकारी है। उसके होने से ही घटनाएं घट जाती हैं। एक शांत व्यक्ति आपके पास से गुजर जाए–शांत व्यक्ति, कि जिसके भीतर एक भी तरंग नहीं, एक मौन झील, जिसमें सब शांत हो गया है, जिसके भीतर कोई आंदोलन नहीं, वह आपके पास से गुजर जाए–तो जैसे हवा का एक शांत झोंका आपके पास से गुजर गया हो। वह कुछ करता नहीं है। सिर्फ आपके पास मौजूद था, अचानक आप पाएंगे, आपके भीतर कोई शांति की वर्षा हो गई। शायद आपको खयाल भी न हो कि जो पास से गुजर गया है, उसके कारण। और जो गुजर गया है, उसको तो बिलकुल ही खयाल नहीं होगा कि उसके कारण किसी पर शांति की वर्षा हो गई है। उसकी निष्क्रियता भी, उसकी शून्यता भी परिणामकारी है।
लाओत्से कहता है, श्रेष्ठतम परिणाम शून्यता से आते हैं। क्योंकि शून्यता में कोई हिंसा नहीं है। अगर मेरी शांति आपको छू ले और आप शांत हो जाएं, तो मैंने आपको बदला नहीं, आप बदल गए। लेकिन अगर मुझे चेष्टा करनी पड़े आपको बदलने की और आपको शांत करने के लिए उपाय करने पड़ें, तो मेरे उपाय कितने ही शुभ मालूम हों, उनमें हिंसा होगी ही। क्योंकि जब एक व्यक्ति तय करता है दूसरे को बदलने का, तभी हिंसा शुरू हो जाती है।
इसलिए साधु-महात्मा बड़े सूक्ष्म रूप में हिंसक होते हैं; क्योंकि वे आपको वैसा ही स्वीकार नहीं कर सकते, जैसे आप हैं। वे आपको बदलेंगे। वे आपको अच्छा बनाएंगे। वे आपको शुभ बनाएंगे। वे आपके जीवन से मिट्टी अलग करेंगे और सोना डालेंगे।
बड़े अच्छे उनके खयाल हैं। लेकिन दूसरे को बदलने का खयाल ही दूसरे को मिटाने का खयाल है। दूसरा जैसा है, उसमें रत्ती भर भी फर्क करने का अर्थ है कि हमें दूसरे की स्वतंत्रता स्वीकार नहीं। और हम में से कोई भी दूसरे की स्वतंत्रता बर्दाश्त नहीं करता। बाप बेटे को बदलने में लगा है, बनाने में लगा है; बिना इसकी फिक्र किए कि वह खुद भी बन पाया है या नहीं। हर बाप बेटे के साथ हिंसा करता है। इसलिए दुनिया इतनी बुरी है। फिर बेटे अपने बेटों के साथ निकाल लेते हैं। और सिलसिला जारी रहता है। ऐसी पत्नी खोजनी मुश्किल है, जो पति को बदलने में न लगी हो। अब तक ऐसा पति नहीं हो सका–हो ही नहीं सका, श्रेष्ठतम रहा हो, तो भी–जिसमें पत्नी के लिए बदलाहट का काम बाकी न हो। सुकरात जैसा पति मिल जाए, तो भी पत्नी बदलने की कोशिश करती है। बड़ी भली आशा से, बड़ी अच्छी आकांक्षा से–अच्छा बनाने की।
और एक मजे की बात है, जब आप किसी को अच्छा बनाने की कोशिश में लग जाते हैं, तो आप बड़ी कुशलता से दुष्ट हो सकते हैं। और दुष्टता चूंकि अच्छाई में छिपी होती है, इसलिए उसका विरोध भी नहीं किया जा सकता। इसलिए जो नासमझ दुष्ट हैं, वे सीधे-सीधे दुष्ट होते हैं। जो समझदार और चालाक दुष्ट हैं, वे अच्छाई के नाम पर दुष्ट होते हैं। अगर कोई आदमी आपको ही बदलने के लिए आपकी गर्दन पकड़ ले, तो विरोध भी तो नहीं किया जा सकता, बगावत भी तो नहीं की जा सकती। इसलिए तथाकथित अच्छे आदमियों के साथ में बेचैनी मालूम पड़ती है।
तो मैं आपको सूत्र देता हूं: वही है ठीक अच्छा आदमी, जिसके साथ बेचैनी मालूम न पड़े। अगर किसी अच्छे आदमी के पास बेचैनी मालूम पड़े, तो समझना कि उस अच्छे आदमी से कुछ न कुछ हिंसा आपकी तरफ बहती है। इसलिए महात्माओं के दर्शन किए जा सकते हैं, उनके साथ रहना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि चौबीस घंटे उनकी आंखें आप पर गड़ी हुई हैं–आपने यह तो नहीं खाया, यह तो नहीं पीया, ऐसे तो नहीं बैठे, वैसे तो नहीं सोए। वे चौबीस घंटे आपके पहरे पर हैं। आप जैसे हैं, वह उन्हें स्वीकार नहीं है।
बड़ा मजा है, आप जैसे हैं, परमात्मा को आप बिलकुल स्वीकार हैं। अब तक मैं नहीं समझता कि बुरे से बुरे आदमी से भी परमात्मा ने शिकायत की हो कि तू थोड़ा अच्छा हो जा! थोड़ा तो सुधर! परमात्मा ने अब तक शिकायत ही नहीं की। और महात्माओं के पास सिवाय शिकायत करने के दूसरा कोई काम नहीं है। ऐसा लगता है कि महात्माओं का धंधा और परमात्मा के धंधे में बुनियादी दुश्मनी है। परमात्मा को सर्व-स्वीकार है।
लाओत्से का यह सूत्र इसी ओर इशारा करने वाला सूत्र है।
लाओत्से कहता है, “सर्वश्रेष्ठ शासक कौन है? जिसके होने की भी खबर प्रजा को न हो।’
पता ही न चले कि वह है भी। क्योंकि होने की भी खबर हिंसा है। अगर बेटे को पता चलता है घर में कि बाप है, तो बाप की तरफ से कोई न कोई हिंसा जारी है। अगर पति को पता चलता है कि घर में पत्नी है और दरवाजे पर सम्हल कर और टाई वगैरह ठीक करके उसको भीतर प्रवेश करना पड़ता है, तो समझना कि हिंसा है। अगर पति के आने से पत्नी ठीक वैसी ही नहीं रह जाती जैसी अकेले में थी, तो समझना कि पति की तरफ से हिंसा है। होने का पता ही नहीं चलना चाहिए। प्रेम की जो परम अभिव्यक्ति है, वह यही है कि प्रेमी का पता ही न चले, उसकी मौजूदगी कहीं भी चोट न करे।
ध्यान रखें, पता ही चलता है चोट से। संस्कृत में बड़े कीमती शब्द हैं। एक कीमती शब्द है वेदना। वेदना के दोनों अर्थ होते हैं, दुख भी और ज्ञान भी। वेद का अर्थ होता है ज्ञान। उसी विद से बनता है विद्वान, जानने वाला; उसी से बनता है वेदना, दुख। एक ही शब्द के दो अर्थ और बड़े अजीब! अगर वेदना का अर्थ दुख हो और वेदना का अर्थ ज्ञान भी हो, तो समझ में नहीं पड़ता, दुख और ज्ञान में क्या संबंध है? अगर दुख की जगह सुख और ज्ञान होता, तो संबंध भी बन सकता था।
लेकिन संबंध है। आपको दुख का ही ज्ञान होता है, सुख का ज्ञान नहीं होता। इसलिए जिन क्षणों को आप कहते हैं कि बड़े सुख में बीते; वे वे क्षण हैं, जिनके बीतते वक्त आपको उनका बिलकुल भी पता नहीं चला। दुख का बोध होता है। पैर में कांटा गड़ जाए, तो पैर का पता चलता है; नहीं तो पैर का पता नहीं चलता। सिर में दर्द हो, तो पहली दफे सिर का पता चलता है; नहीं तो सिर का पता नहीं चलता।
तो जिस आदमी को सिर का पता चलता हो, उसे जानना चाहिए कि उसे सिर की कोई बीमारी है। जिस आदमी को शरीर का पता चलता हो, उसका अर्थ है कि वह बीमार है, रुग्ण है। स्वास्थ्य की एक ही परिभाषा है कि शरीर का पता न चले। स्वस्थ आदमी विदेह हो जाएगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि देह भी है। सिर्फ बीमार आदमी के पास शरीर होता है, स्वस्थ आदमी के पास शरीर नहीं होता। और बीमार आदमी के पास बड़ा शरीर होता है। जितनी बीमारियां, उतना बड़ा शरीर। क्योंकि उतना शरीर का बोध होता है।
दुख, बोध एक ही बात है। जिसकी मौजूदगी पता चले, उससे आपको कोई दुख मिल रहा है। जिसकी मौजूदगी पता न चले, उससे ही आनंद मिलता है। अगर दो प्रेमी एक कमरे में बैठे हैं, तो वहां दो व्यक्ति नहीं बैठे हैं। वहां एक-दूसरे से एक-दूसरे को कोई बोध नहीं है। वहां एक ही चेतना रह गई है।
लाओत्से कहता है, सर्वश्रेष्ठ शासक वह है, जिसके होने का पता ही शासितों को न चले।
शायद परमात्मा के अतिरिक्त ऐसा और कोई शासक नहीं है। उसका भर हमें पता नहीं चलता। खोजें, तो भी पता नहीं चलता। पता लगाने जाएं हिमालय में, तो भी पता नहीं चलता। काशी, मक्का, मदीना भटकें, तो भी पता नहीं चलता।
थोड़ा खयाल करें। आपके मन की एक इच्छा होती है कि आप जहां भी जाएं, वहां लोगों को पता चले कि आप आए हैं। कितना उपाय नहीं करते हैं हम इसका कि लोगों को पता चले कि आप आ गए। आप इस भवन में आएं और किसी को पता न चले, तो आप बड़े पीड़ित हो जाएंगे, बड़े पीड़ित हो जाएंगे।

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