Thursday 18 June 2015

हम सबके भीतर अनंत संभावना छिपी है। लेकिन उन अनंत संभावनाओं का बोध जब तक हमें भीतर से न होने लगे तब तक कोई शास्त्र प्रमाण नहीं बनेगा। और कोई भी चिल्लाकर कहे कि पा लिया, तो भी प्रमाण नहीं बनेगा। क्योंकि जिसे हम नहीं जान लेते हैं, उस पर हम कभी विश्वास नहीं कर पाते हैं। और ठीक भी है, क्योंकि जिसे हम नहीं जानते उस पर विश्वास करना प्रवंचना है, डिसेपान है। अच्छा है कि हम कहें कि हमें पता नहीं कि ईश्वर है। लेकिन किन्हीं को पता हुआ है, और किन्हीं को केवल पता ही नहीं हुआ है, बल्कि उनकी सारी जिंदगी बदल गई, उनके चारों तरफ हमने फूल खिलते देखे हैं अलौकिक। लेकिन उनकी पूजा करने से वह हमारे भीतर नहीं हो जाएगा।
सारा धर्म पूजा पर रुक गया है। फूल की पूजा करने से नये बीज कैसे फूल बन जाएंगे? और नदी कितनी ही सागर की पूजा करे तो सागर न हो जाएगी। और अंडा पक्षियों की कितनी ही पूजा करे तो भी आकाश में पंख नहीं फैला सकता। अंडे को टूटना पड़ेगा। और पहली बार जब कोई पक्षी अंडे के बाहर टूटकर निकलता है तो उसे भरोसा नहीं आता; उड़ते हुए पक्षियों को देखकर वह विश्वास भी नहीं कर सकता कि यह मैं भी कर सकूंगा। वृक्षों के किनारों पर बैठकर वह हिम्मत जुटाता है। उसकी मां उड़ती है, उसका बाप उड़ता है, वे उसे धक्के भी देते हैं, फिर भी उसके हाथ—पैर कंपते हैं। वह जो कभी नहीं उड़ा, कैसे विश्वास करे कि ये पंख उड़ेंगे? आकाश में खुल जाएंगे, अनंत की, दूर की यात्रा पर निकल जाएगा।
मैं जानता हूं कि इन तीन दिनों में आप भी वृक्ष के किनारे पर बैठेंगे, मैं कितना ही चिल्लाऊंगा कि छलांग लगाएं, कूद जाएं, उड़ जाएं—विश्वास नहीं पड़ेगा, भरोसा नहीं होगा। जो पंख उड़े नहीं, वे कैसे मानें कि उड़ना हो सकता है? लेकिन कोई उपाय भी तो नहीं है, एक बार तो बिना जाने छलांग लेनी ही पड़ती है।
कोई पानी में तैरना सीखने जाता है। अगर वह कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं तब तक उतरूंगा नहीं, तो गलत नहीं कहता है, ठीक कहता है, उचित कहता है, एकदम कानूनी बात कहता है। क्योंकि जब तक तैरना न सीखूं तो पानी में कैसे उतरूं! लेकिन सिखानेवाला कहेगा कि जब तक उतरोगे नहीं, सीख नहीं पाओगे। और तब तट पर खड़े होकर विवाद अंतहीन चल सकता है। हल क्या है? सिखानेवाला कहेगा, उतरो! कूदो! क्योंकि बिना उतरे सीख न पाओगे।
असल में, सीखना उतर जाने से ही शुरू होता है। सब लोग तैरना जानते हैं, सीखना नहीं पड़ता है तैरना। अगर आप तैरना सीखे हैं तो आपको पता होगा, तैरना सीखना नहीं पड़ता। सारे लोग तैरना जानते हैं, ढंग से नहीं जानते हैं—गिर जाते हैं पानी में तो ढंग आ जाता है; हाथ—पैर बेढंगे फेंकते हैं, फिर ढंग से फेंकने लगते हैं। हाथ—पैर फेंकना सभी को मालूम है। एक बार पानी में उतरे तो ढंग से फेंकना आ जाता है। इसलिए जो जानते हैं, वे कहेंगे कि तैरना सीखना नहीं है, रिमेंबरिग है—एक याद है, पुनर्स्मरण है।
इसलिए परमात्मा की जो अनुभूति है, जाननेवाले कहते हैं, वह स्मरण है। वह कोई ऐसी अनुभूति नहीं है जिसे हम आज सीख लेंगे। जिस दिन हम जानेंगे, हम कहेंगे, अरे! यही था तैरना! ये हाथ—पैर तो हम कभी भी फेंक सकते थे। लेकिन इन हाथ— पैर के फेंकने का इस नदी से, इस सागर से कभी मिलन नहीं हुआ। हिम्मत नहीं जुटाई, किनारे पर खड़े रहे। उतरना पड़े, कूदना पड़े। लेकिन कूदते ही काम शुरू हो जाता है।
वह जिस केंद्र की मैं बात कर रहा हूं वह हमारे मस्तिष्क में छिपा हुआ पड़ा है। अगर आप जाकर मस्तिष्कविदों से पूछें, तो वे कहेंगे, मस्तिष्क का बहुत थोड़ा सा हिस्सा काम कर रहा है; बड़ा हिस्सा निष्‍क्रिय है, इनएक्टिव है। उस बड़े हिस्से में क्या— क्या छिपा है, कहना कठिन है। बड़े से बड़ी प्रतिभा और जीनियस का भी बहुत थोड़ा सा मस्तिष्क काम करता है। इसी मस्तिष्क में वह केंद्र है जिसे हम सुपर—सेंस, अतींद्रिय—इंद्रिय कहें, जिसे हम छठवीं इंद्रिय कहें, या जिसे हम तीसरी आंख, थर्ड आई कहें। वह केंद्र छिपा है जो खुल जाए तो हम जीवन को बहुत नये अर्थों में देखेंगे—पदार्थ विलीन हो जाएगा और परमात्मा प्रकट होगा; आकार खो जाएगा और निराकार प्रकट होगा; रूप मिट जाएगा और अरूप आ जाएगा; मृत्यु नहीं हो जाएगी और अमृत के द्वार खुल जाएंगे। लेकिन वह देखने का केंद्र हमारा निष्‍क्रिय है। वह केंद्र कैसे सक्रिय हो?
मैंने कहा, जैसे बल्व तक अगर विद्युत की धारा न पहुंचे, तो बल्व निष्‍क्रिय पडा रहेगा; धारा पहुंचाएं और बल्व जाग उठेगा। बल्व सदा प्रतीक्षा कर रहा है कि कब धारा आए। लेकिन अकेली धारा भी प्रकट न हो सकेगी। बहती रहे, लेकिन प्रकट न हो सकेगी; प्रकट होने के लिए बल्व चाहिए। और प्रकट होने के लिए धारा भी चाहिए।
हमारे भीतर जीवन— धारा है, लेकिन वह प्रकट नहीं हो पाती; क्योंकि जब तक वह वहां न पहुंच जाए, उस केंद्र पर जहां से प्रकट होने की संभावना है, तब तक अप्रकट रह जाती है।
हम जीवित हैं नाम मात्र को। सांस लेने का नाम जीवन है? भोजन पचा लेने का नाम जीवन है? रात सो जाने का नाम, सुबह जग जाने का नाम जीवन है? बच्चे से जवान, जवान से के हो जाने का नाम जीवन है? जन्मने और मर जाने का नाम जीवन है? और अपने पीछे बच्चे छोड जाने का नाम जीवन है?
नहीं, यह तो यंत्र भी कर सकता है। और आज नहीं कल कर लेगा, बच्चे टेस्ट—टधूब में पैदा हो जाएंगे। और बचपन, जवानी और बुढ़ापा बड़ी मैकेनिकल, बड़ी यांत्रिक क्रियाएं हैं। जब कोई भी यंत्र थकता है, तो जवानी भी आती है यंत्र की, बुढ़ापा भी आता है। सभी यंत्र बचपन में होते हैं, जवान होते हैं, के होते हैं। घड़ी भी खरीदते हैं तो गारंटी होती है कि दस साल चलेगी। वह जवान भी होगी घड़ी, की भी होगी, मरेगी भी। सभी यंत्र जन्मते हैं, जीते हैं, मरते हैं। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह यांत्रिकता, मैकेनिकल होने से कुछ और ज्यादा नहीं है। जीवन कुछ और है।

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