Friday 26 June 2015

तो मैं न केवल बीमारी के खिलाफ कह रहा हूं, मैं औषधि के भी खिलाफ कह रहा हूं। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि इधर हजारों साल में बीमारी के खिलाफ तो बहुत बातें कही गईं और तब बीमारी तो छूट गई पर औषधि पकड़ गई। और जिन लोगों ने औषधि को पकड़ा, वे बीमारों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हुए।
इसलिए दोनों ही बातें खयाल में रखनी जरूरी हैं। बीमारी छोड़नी है और औषधि भी छोड़नी है। मन छोड़ना है, ध्यान भी छोड़ना है। संसार छोड़ना है, धर्म भी छोड़ना है। और एक ऐसी जगह आ जाना है, जहां न कुछ छोड़ने को बचता है, न कुछ पकड़ने को बचता है। तब वही रह जाता है, जो है। और इसलिए यह सारी की सारी जिन प्रक्रियाओं की मैं बात करता हूं —चाहे कुंडलिनी की, चाहे चक्रों की, सप्त शरीरों की, यह सारा का सारा स्वप्न का ही हिस्सा है। लेकिन स्वप्न में तुम हो और जब तक तुम स्वप्न को ठीक से न समझ लो, तुम स्वप्न के बाहर नहीं आ सकते हो।
स्वप्न के बाहर आने के लिए भी स्वप्न को ठीक से समझ लेना जरूरी है। और स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है, और झूठ का भी अपना अस्तित्व है। वह है जगत में। और उससे छूटने के लिए भी उपाय हैं। मगर दोनों ही अंततः छोड़ने योग्य हैं, इसलिए मैं कहता हूं कि दोनों ही असत्य हैं। अगर मैं इनमें से एक को सत्य कहूंगा, तो फिर तुम उसे छोड़ोगे कैसे? फिर तुम उसे छोड़ोगे नहीं। सत्य कहीं छोड़ा जाता है? सत्य तो सदा पकड़ा जाता है। इसलिए तुम कुछ भी न पकड़ पाओ, तुम्हारी कुछ भी क्लिगिंग न हो पाए, तुम कहीं भी किसी ग्रंथि में, किसी बंधन में न पड़ पाओ, इसलिए मैं कहता हूं कि न तो संसार सत्य है और न साधना सत्य है। संसार के असत्य को काटने के लिए साधना का असत्य है। जब दोनों असत्य समतल होकर कट जाते हैं तब जो शेष रह जाता है वह सत्य है। वह न संसार का है, न साधना का। वह दोनों के बाहर, या दोनों के पीछे, या दोनों के पार, या दोनों को अतिक्रमण करता हुआ है। जब दोनों नहीं रह जाएंगे।
इसलिए मैं एक तीसरे तरह के आदमी की तुमसे बात कर रहा हूं जो न संसारी है, न संन्यासी है। जब मुझे कोई पूछता है कि क्या आप संन्यासी हैं, तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संन्यासी कहूं, तो मैं उसी द्वंद्व के भीतर अपने को बांधता हूं जो संसारी और संन्यासी के बीच है। जब कोई पूछता है कि क्या आप संसारी हैं, तब भी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। क्योंकि अगर मैं अपने को संसारी कहूं तो मैं फिर उसी द्वंद्व में खड़ा हो जाता हूं, जो संन्यासी और संसारी के बीच है। तो या तो मैं कहूं कि मैं दोनों हूं एक साथ, जो कि बिलकुल बेमानी हो जाता है, मीनिगलेस हो जाता है। क्योंकि अगर संसारी और संन्यासी दोनों हूं एक साथ, तो मतलब ही खो गया, क्योंकि मतलब द्वंद्व में था, मतलब विरोध में था। संसार छोड़ने का अर्थ संन्यास था, संन्यास न ग्रहण करने का अर्थ संसार था। अब अगर मैं कहूं कि दोनों ही हूं, तो शब्द अर्थ खो देते हैं। या कहूं? दोनों ही नहीं हूं, तब भी बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है, क्योंकि दो के बाहर तीसरे का हमें कोई खयाल ही नहीं है कि कोई तीसरा भी हो सकता है। कहते हैं आप, यहां या वहां। या तो कहिए जिंदा हैं, या कहिए मर गए हैं। दोनों नहीं हैं, ऐसा कैसे चलेगा! ऐसा नहीं चल सकता। हम द्वंद्व में बांटकर, काटकर जीते हैं सारी चीजों को कि या यह कहिए या यह कहिए।
कहिए अंधेरा है, कहिए प्रकाश है। संध्या के रंग का हमारे पास कोई स्थान नहीं है, जो दोनों नहीं होता। ‘से ‘ की हमारी जिंदगी में कोई जगह नहीं है। या तो हम सफेद में तोड़ देते हैं या काले में तोड़ देते हैं। बल्कि सचाई ग्रे की ही ज्यादा है। ग्रे ही जरा सघन हो जाता है तो काला हो जाता है और जरा विरल हो जाता है तो सफेद हो जाता है। मगर उसकी कोई जगह नहीं है। या तो कहिए मित्र हैं, या कहिए शत्रु हैं, दोनों के बीच तीसरी कोई जगह नहीं है। असल में तीसरी ही असली जगह है। लेकिन उसका कोई स्थान नहीं है हमारी भाषा में, हमारे सोचने में, हमारे ढंग में।
आप मुझसे पूछते हैं कि मेरे मित्र हैं या शत्रु हैं। अगर मैं कहूं दोनों हूं, तो मुश्किल हो जाती है। क्योंकि फिर समझ मुश्किल हो जाती है कि दोनों कैसे हो सकते हैं। या मैं कहूं दोनों नहीं हूं, तो भी बेमानी हो जाती है। क्योंकि फिर कोई मतलब नहीं रहा। और सचाई यह है कि जब आदमी पूरी तरह स्वस्थ होगा, तो या तो दोनों होगा या दोनों नहीं होगा। यह दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तब न तो वह शत्रु होगा, न मित्र होगा। और मेरा खयाल यह है कि तभी वह ठीक अर्थों में मनुष्य होगा। उसकी कोई शत्रुता नहीं, उसकी कोई मित्रता नहीं। उसका कोई संन्यास नहीं, उसका कोई संसार नहीं। तीसरे आदमी के लिए ही मेरी तलाश है। और जो सारी बातें मैं कह रहा हूं वे सिर्फ स्वप्न को तोड्ने के लिए हैं। और अगर स्वप्न टूट ही गया है, तो उन बातों का कोई भी अर्थ नहीं है।
एक कहानी तुमसे कहूं। एक झेन फकीर हुआ। सुबह उठा…….और उस फकीर का स्वप्नों के विश्लेषण पर बड़ा भरोसा था। हैं भी स्वप्न बड़े काम के। वे आदमी के संबंध में बड़ी खबरें लाते हैं। और चूंकि आदमी झूठा है, इसलिए स्वप्न से खबर मिल सकती है, झूठी चीजों से खबर मिल सकती है।
आदमी के चेहरे को दोपहर में जब तुम भरे बाजार में देखते हो, तब वह उतना सच्चा नहीं होता है, जितना रात के सपने में वह सच्चा होता है—सपना जो कि बिलकुल झूठा है। अगर दोपहर में तुमने उसे अपनी पत्नी को हाथ जोड़ते हुए और यह कहते देखा है कि तुझसे सुंदर कोई भी नहीं है, तो उसके सपने में पता लगाओ। उसकी पत्नी शायद ही उसके सपने में आती हो। और दूसरी स्त्रियां जरूर आती हैं। उसका सपना ज्यादा ठीक खबर देगा उसके बाबत—सपना जो कि झूठ है।
लेकिन आदमी झूठ है, इसलिए झूठ से ही पता लगाना पड़ेगा। अगर आदमी सच्चा होता, तो उसको जिंदगी सामने ही बता देती। सपने में जाने की कोई जरूरत नहीं थी, उसका चेहरा बता देता। वह अपनी पत्नी से कह देता कि तू बहुत ज्यादा सुंदर नहीं, पड़ोस की स्त्री बहुत सुंदर मालूम पड़ती है। वह दूसरी बात है, वैसा आदमी नहीं है। वैसा आदमी अगर हो, तो उसके सपने बंद हो जाएंगे। जो पति अपनी पत्नी से कह सकता है कि आज तो तेरे प्रति मेरे मन में कोई प्रेम नहीं उठता है, उस सड़क से जो औरत जा रही है, वह मेरे प्रेम को खींचे लेती है। इतनी सरलता से जो कह सकता है, उसके सपने बंद हो जाएंगे, क्योंकि उसके सपने में उस औरत को आने की कोई जरूरत नहीं है, उसने दिन में ही बात समाप्त कर ली है। बात रफा—दफा हो गई, सपना बचा नहीं।
सपना जो है, वह लिंगरिंग है। जो चीज नहीं हो पाई दिन में, जो नहीं कह पाया, नहीं जी पाया, वह भीतर बैठा है, वह रात में जीने की कोशिश करेगा। दिन भर झूठा रहा, इसलिए रात सपने में झूठ सचाइयां बनकर प्रकट होने लगेगा। इसलिए पूरा मनोविज्ञान आज का, चाहे फ्रायड हो, चाहे का हो, चाहे एडलर हो, सारा का सारा मनोविज्ञान सपने का विश्लेषण है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि आदमी को जानने के लिए सपने का विश्लेषण करना पड़ रहा है। ड्रीम एनालिसिस आदमी को जानने का रास्ता है। सोचो, इसका क्या मतलब होता है? आज अगर तुम एक मनोविश्लेषक के पास जाते हो, मनोवैज्ञानिक के पास जाते हो, मनोचिकित्सक के पास जाते हो, तो वह तुम्हारी फिक्र ही नहीं करता, वह कहता है, अपने सपने बताओ। क्योंकि तुम तो आदमी झूठे हो, तुम्हारे बाबत कुछ पूछना बेकार है, जरा तुम्हारे सपनों से पूछ लें। क्योंकि तुम झूठे आदमी हो, उन झूठे सपनों में बिलकुल साफ—साफ प्रकट हो जाते हो। वहां तुम्हारा रिफ्लेक्शन है, वहां तुम्हारी असली तस्वीर बनती है। हम तुम्हारे सपनों में झांकना चाहते हैं। सारा मनोविज्ञान सपने के विश्लेषण पर खड़ा हुआ है।

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