Thursday 11 June 2015

लाओत्से जब कहता है कि सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है कि निर्णय हम ले नहीं सकते। यह निर्णय नहीं है। जब लाओत्से कह रहा है, सब ठीक है, तो यह “सब गलत है,’ उसके विपरीत निर्णय नहीं है। जब लाओत्से कह रहा है, सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है कि मैं विराट की इच्छा के साथ अपने को एक करता हूं; मेरी अपनी कोई अलग इच्छा नहीं।
जीसस को सूली लग रही है। आखिरी क्षण में एक संदेह जीसस को पकड़ जाता है। जब हाथ पर कीले ठोंक दिए गए हैं, तब जीसस के मुंह से आह निकलती है और वे कहते हैं, हे परमात्मा, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है?
कहीं छिपी कोई आकांक्षा रही होगी, कहीं दूर गहरे में, जिसका जीसस को भी पता न हो। ठोंके गए कीलों ने उसे जगा दिया होगा। कहीं किसी गहरे में प्रसुप्त कोई बीज रहा होगा, यह भरोसा रहा होगा कि ईश्वर मुझे सूली नहीं लगने देगा। कहीं गहरे में ईश्वर के प्रति यह धारणा रही होगी कि सूली तो बुरी है, तो मुझे ईश्वर सूली कैसे लगने देगा! सूली अच्छी है, ऐसा जीसस को खयाल नहीं रहा होगा। नहीं तो जीसस के मुंह से यह वचन न निकलता कि हे परमात्मा, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? इसमें ईश्वर पर संदेह तो हो गया। और इसमें सर्व-स्वीकार नहीं रहा। सूली बुरी हो गई। और जो हो रहा है, वह गलत हो रहा है।
लेकिन तत्क्षण जीसस जैसे व्यक्ति को बोध आ गया होगा। तत्क्षण जीसस को लगा होगा, यह भूल हो गई। यह तो भूल हो गई साफ, मैंने ईश्वर से अपने को ज्यादा बुद्धिमान मान लिया। मैंने निर्णय दे दिया कि जो हो रहा है, वह गलत हो रहा है; और जो होना चाहिए था सही, वह नहीं हो रहा है। इस जरा सी आह में मैं नास्तिक हो गया; मेरी श्रद्धा खंडित हो गई। तो तत्क्षण जीसस ने क्षमा मांगी है। उनकी आंखों से आंसू बह गए और उन्होंने कहा, हे परमात्मा, मुझे क्षमा कर! तेरी मर्जी ही मेरी मर्जी है। तेरी मर्जी पूरी हो; क्योंकि तेरी मर्जी ही शुभ है।
लाओत्से जब कहता है, सब ठीक है, तो वह यह कह रहा है, उस शाश्वत नियम के विपरीत हमारे वक्तव्य नासमझी से भरे हुए हैं। वह शाश्वत नियम इतना बड़ा है–होगा ही। हम उससे ही पैदा होते हैं। मेरी मृत्यु होगी कल, तो मैं कहूंगा बुरा हो रहा है। लेकिन जिससे मेरा जन्म हुआ था, उससे ही मेरी मृत्यु हो रही है। और जिस शाश्वत नियम से मैं प्रकट हुआ था, वही शाश्वत नियम मुझे वापस बुला रहा है। अगर उसके भेजने से मैं राजी था, तो उसके बुलाने से क्यों राजी नहीं हूं? और अगर उसका दिया हुआ जीवन अच्छा था, तो उसकी दी हुई मौत बुरी कैसे हो सकती है? एक ही स्रोत से सब कुछ जन्म रहा है। उसी स्रोत से खिलते हैं फूल और उसी स्रोत से लगते हैं कांटे। अगर उसके फूल भले हैं, तो उसके कांटे बुरे क्यों होंगे?
और लाओत्से यह कह रहा है कि कांटे भी उसी के हैं, फूल भी उसी के हैं, इसलिए सब ठीक है। यह “सब ठीक’ वस्तुओं के प्रति वक्तव्य नहीं, स्वयं और शाश्वत के साथ जो संगीत सध गया है, उसकी खबर है। यह कोई सांत्वना नहीं है। क्योंकि सांत्वना का तो अर्थ ही यही होता है कि सब गलत है, और हम अपने को समझा रहे हैं कि सब ठीक है। जो ठीक नहीं है, उसको हम समझा रहे हैं कि सब ठीक है, तब सांत्वना है। लेकिन अगर ऐसी ही प्रतीति है कि सब ठीक है, तो फिर सांत्वना नहीं है।
धर्म का निकृष्ट रूप सांत्वना है, कंसोलेशन है। और धर्म का श्रेष्ठतम रूप संगीत है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संगीत है, वह धर्म का श्रेष्ठतम रूप है। व्यक्ति और विराट के बीच जो संघर्ष है, उसमें व्यक्ति की जो पराजय है, उस पराजय में जो सांत्वना खोजी जा रही है, वह धर्म का निकृष्टतम रूप है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह इस शाश्वत नियम को सांत्वना बनाता है या सत्य। इसे केवल एक मलहम-पट्टी समझता है कि घाव को भीतर छिपा लिया, या एक अनंत संगीत की संभावना–यह व्यक्ति पर निर्भर है। यह आप पर निर्भर है।
अधिक लोग सांत्वना में ही जीते हैं। इसीलिए आदमी दुख में धर्म की तलाश करता है; क्योंकि दुख में सांत्वना की जरूरत है। दुखी आदमी के पैर मंदिर की तरफ बढ़ने लगते हैं। माक्र्स ने तब तो ठीक ही कहा है कि धर्म दुखी आदमी की आह है और धर्म जनता के लिए अफीम है। ठीक ही कहा है। धर्म का जो निकृष्टतम रूप है, वह यही है। और यही बड़ा रूप है। सौ में निन्यानबे लोग इसी भांति धार्मिक हैं। और आश्चर्य नहीं है कि माक्र्स को सौवां आदमी न मिला हो। वह आसान भी नहीं है सौवां आदमी मिलना। निन्यानबे आदमी जगह-जगह मौजूद हैं। अगर माक्र्स को ऐसा लगा हो कि धर्म अफीम का एक नशा है, तो कुछ गलत नहीं लगा।
लेकिन इसमें निंदा भी क्या है? चिकित्सक भी, अगर आप बहुत दर्द में हों, तो नशा देकर आपके दर्द को भुलाता है। मार्फिया देता है। दर्द के साथ एक मजा है कि उसका पता चले, तो ही होता है। पता ही न चले, तो कहां है? दर्द के साथ हम दो काम कर सकते हैं: दर्द को मिटाने का–वह धर्म की श्रेष्ठतम संभावना है; दर्द को भुलाने का–वह धर्म की निकृष्टतम संभावना है। जब दुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तो वह सांत्वना के लिए जा रहा है। जब सुखी आदमी धर्म की तरफ बढ़ता है, तब वह संगीत के लिए जा रहा है।
इसलिए मैं कहता हूं, जब आप सुख से भरे हों, तब धर्म की तरफ बढ़ना। बहुत कठिन है, बहुत कठिन है। दुख से जब भरे होते हैं, तब बहुत सरल है। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि दुखी, दीन, दरिद्र, गरीब समाज धार्मिक नहीं हो पाते। उनके लिए धर्म अफीम ही है। समृद्ध, सुखी, संपन्न समाज ही धार्मिक हो पाते हैं। क्योंकि सुख जब व्यर्थ मालूम होता है, तब ठीक और गैर-ठीक की सब धारणाएं गिर जाती हैं। जब सुख ही व्यर्थ मालूम होने लगता है, तो फिर क्या ठीक है और क्या गलत है?
जब तक दुख गलत मालूम होता है, तब तक हम ज्यादा से ज्यादा सांत्वना खोज सकते हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं। अगर आप धर्म को सांत्वना बनाते हैं, तो धर्म आपके लिए एक ड्रग, अल्कोहल, इससे ज्यादा नहीं है।

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