Wednesday 24 June 2015

हली बात तो यह कि जिसे मैं असत्य कहता हूं, झूठ कहता हूं? उसका मतलब यह नहीं होता है कि वह नहीं है। असत्य भी होता तो है ही। अगर न हो तो असत्य भी नहीं हो सकता। झूठ का भी अपना अस्तित्व है, स्वप्न का भी अपना अस्तित्व है। जब हम कहते हैं, स्वप्न झूठ है, तो उसका यह मतलब नहीं होता है कि स्वप्न का अस्तित्व नहीं है। उसका केवल इतना ही मतलब होता है कि स्वप्न का अस्तित्व मानसिक है, वास्तविक नहीं है। मन की तरंग है, तथ्य नहीं है। जब हम कहते हैं, जगत माया है, तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि जगत नहीं है। क्योंकि अगर नहीं है, तो किससे कह रहे हैं? कौन कह रहा है? किसलिए कह रहा है? जब कोई जगत को माया कहता है, तब इतना तो मान ही लेता है कि कहने वाला है, सुनने वाला है। इतना भी मान लेता है कि किसी को समझाना है, किसी को समझना है। इतना तो सत्य हो ही जाता है। नहीं, लेकिन जब हम जगत को माया कहते हैं तो यह मतलब नहीं होता है कि जगत नहीं है। केवल इतना ही अर्थ होता है जगत को माया कहने का कि जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। एपीयरेंस है, जैसा है, वैसा दिखाई नहीं पड़ता। और जैसा नहीं, वैसा दिखाई पड़ता।
जैसे एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। सांझ है, अंधेरा हो गया है। और एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई पड़ गई है और वह सांप समझकर डर कर भाग खड़ा हुआ है। कोई उससे कहता है कि सांप असत्य था, झूठ था। तुम व्यर्थ ही भागे। तब इसका क्या मतलब हुआ? सांप झूठ था, इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि उसे सांप दिखाई नहीं पड़ा। अगर उसे नहीं दिखाई पड़ता तो वह भागता नहीं। उसे तो दिखाई पड़ा। जहां तक दिखाई पड़ने का संबंध है, उसके लिए सांप था। और जब उसे दिखाई पड़ा तो रस्सी अगर न होती तो खाली जगह में दिखाई भी नू पड़ता। रस्सी ने सांप के भ्रम को सहारा भी दिया। उसे भीतर कुछ दिखाई पड़ा, बाहर कुछ और था। रस्सी का टुकड़ा पड़ा था और उसे लगा कि सांप है। रस्सी रस्सी की तरह न दिखाई पड़ी जो वह थी, रस्सी सांप की तरह दिखाई पड़ी जो वह नहीं थी। जो था, वह नहीं दिखाई पड़ा; और जो नहीं था, वह दिखाई पड़ा। लेकिन जो था उसके ऊपर ही जो नहीं था वह आरोपित हुआ है।
तो जब असत्य, झूठ, भ्रम, माया, इल्‍यूजन, एपीयरेंस, इन शब्दों का प्रयोग होता है तो एक बात खयाल रख लेना। इसका यह मतलब नहीं कि नहीं है। अब समझ लो कि जो आदमी भाग खड़ा हुआ है सांप देखकर, हम उसे बहुत समझाते हैं कि वहां सांप नहीं है, लेकिन वह कहता है कि मैं कैसे मानूं! मैंने सांप देखा है। हम उससे कहते हैं, तू वापस जाकर देख। वह कहता है कि एक लकड़ी मेरे हाथ में दे दो, तो मैं जा भी सकता हूं। अब मुझे पता है कि सांप वहा नहीं है, लकड़ी ले जाना बेकार है। लेकिन उसे पता है कि सांप वहां है और लकड़ी ले जाना सार्थक है। मैं उसे एक लकड़ी देता हूं। तुम मुझसे कहोगे कि जब सांप नहीं है तो आप लकड़ी क्यों दे रहे हैं। तब तो आप भी मान रहे हैं कि सांप है। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि सांप नहीं है, सांप झूठा है। लेकिन तुम्हें दिखाई पड़ा है और तुम्हारे जाने की हिम्मत नहीं है। तुम्हारे लिए तो सच ही है। मैं तुम्हें एक लकड़ी देता हूं कि यह ले जाओ। अगर सांप हो तो मार डालना, अगर न हो तब तो कोई सवाल ही नहीं है।
मनुष्य को जो दिखाई पड़ रहा है जीवन में, वह जीवन का सत्य नहीं है। वह पूरी तरह जागकर देखा जाए तभी सत्य दिखाई पड़ेगा। जिस मात्रा में हम मूर्च्छित हैं, उसी मात्रा में सत्य के भीतर झूठ का मिश्रण है। जिस मात्रा में हम सोए हुए हैं, उसी मात्रा में जो हम देख रहे हैं वह विकृत है, परवटेंड है। वह वही नहीं है, जो है—एक।
लेकिन जो सोया हुआ है, उससे हम कहते हैं कि नहीं, सब असत्य है, सब माया है। लेकिन वह कहता है कि कैसे मानूं कि माया है। मेरा लडका बीमार पड़ा है। मैं कैसे मानूं कि माया है! मैं भूखा हूं। मैं कैसे मानूं कि माया है! क्योंकि मुझे मकान चाहिए। मैं कैसे मानूं कि ये सब बातें माया हैं! क्योंकि शरीर है। पत्थर मारता हूं शरीर पर, तो खून निकलता है और दर्द भी होता है।
तब इसके लिए क्या किया जाए।
इसे जगाने के लिए कोई उपाय खोजना पड़ेगा। और जो उपाय होंगे वे लकड़ी की भांति होंगे। और जिस दिन यह जाग जाएगा उस दिन उन उपायों के साथ वही व्यवहार करेगा जो कि हमने जिस आदमी को लकड़ी दे दी है वह जब सांप के पास जाएगा, पाएगा रस्सी है, तो हंसेगा और लकड़ी फेंक देगा। और कहेगा सांप तो झूठ था ही, लकड़ी को ढोना भी नाहक व्यर्थ हुआ। और शायद वह लौट कर मुझ पर नाराज भी होगा कि आपने इतनी देर लकड़ी दी रखने के लिए, नाहक ढोना पड़ा वहां तक, वहा सांप नहीं था।
जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं या जिसको कुंडलिनी कह रहा हूं या जिसे साधना की प्रक्रिया कह रहा हूं वह असल में उसकी तलाश है, जो नहीं है। और जिस दिन तुम उसे देख लोगे ठीक से जाकर कि नहीं है, उस दिन सब प्रक्रिया बेकार हो जाएगी। सब बेमानी हो जाएगी। उस दिन तुम कहोगे, बीमारी भी झूठ थी, इलाज भी झूठ था।
असल में झूठी बीमारी का सही इलाज नहीं हो सकता। या कि हो सकता है? अगर बीमारी झूठ है तो सही इलाज कभी भी नहीं हो सकता। लेकिन झूठी बीमारी के लिए झूठा इलाज चाहिए। झूठी बीमारी झूठे इलाज से ठीक हो सकती है। दो झूठ भी एक दूसरे को काट देते हैं। इसलिए जब मैं कहता हूं कि समस्त साधना की प्रक्रियाएं इस अर्थ में असत्य हैं —असत्य इस अर्थ में हैं कि जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने कभी खोया नहीं।
रस्सी पूरे वक्त रस्सी है। वह एक क्षण को भी सांप नहीं बनी है। रस्सी हमने खो दी है लेकिन। सामने रस्सी पड़ी है, लेकिन हमने खो दी है। वह एक क्षण को सांप नहीं बनी है, लेकिन हमारे लिए सांप है। ऐसा सांप जो एक क्षण को भी नहीं है। अब एक बड़ी जिच, एक बड़ी उलझाव की स्थिति है। है रस्सी, दिखता सांप है। सांप को मारना है, रस्सी को खोजना है। बिना सांप को मारे रस्सी को खोजना मुश्किल है, बिना रस्सी को खोजे सांप का मरना मुश्किल है। अब कुछ करना पड़े। और जो कुछ भी हम करेंगे, होगा क्या उससे? इतना ही होगा न कि जो नहीं था, दिखाई पड़ जाएगा नहीं है। जो है, दिखाई पड़ जाएगा जो है। और जिस दिन हम जानेंगे उस दिन क्या हम कहेंगे कि हमने कुछ उपलब्ध किया? क्या उस दिन हम कह सकेंगे कि सांप हमने खोया और रस्सी हमने पाई? क्योंकि सांप तो था ही नहीं जिसे खोया जाए और रस्सी सदा थी। पाने की कोई जरूरत ही न थी। वह थी ही वहां, वह मौजूद ही थी।
इसलिए बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और पहली सुबह जब लोग उनके पास आए और उनसे पूछने लगे कि आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो, मिला मुझे कुछ भी नहीं। तो उन लोगों ने कहा, इतने दिन की मेहनत बेकार गई? आप बरसों से तपस्या करते हैं, खोज करते हैं! बुद्ध ने कहा, अगर मिलने की भाषा में पूछते हो तो बेकार गई, क्योंकि मिला कुछ भी नहीं। लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि तुम भी गुजरो उसी रास्ते से, तुम भी करो वही। उन लोगों ने कहा, आप पागल तो नहीं हैं! क्योंकि जो बेकार ही गया, उसको हम क्यों करें! बुद्ध ने कहा, मिला तो कुछ नहीं, लेकिन खोया जरूर। वह जो नहीं था उसे खोया। जो था ही नहीं और जिसे मैं समझता था है, उसे खोया। और जो सदा से मिला ही हुआ था, पाया ही हुआ था, जिसे पाना ही नहीं था, लेकिन जिसे झूठ के पर्दे के बीच मैंने समझा था कि नहीं है, उसे पाया।
अब इसका क्या मतलब हुआ? जो मिला ही हुआ था वह फिर मिला। कैसे कहें इसको! जो पाया ही हुआ था, उसको पाया! जिसे कभी पाया ही नहीं था, उसको खोया!
तो जब मैं कह रहा हूं कि सारी साधना की प्रक्रिया असत्य है, तो इसका यह मतलब नहीं है कि मत करना। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि तुम इतने गहरे असत्य में घिरे हो कि सिवाय उसके विपरीत असत्य के और कोई काटने का उपाय नहीं है। तुम इतने झूठ की तरफ चले गए हो कि तुम लौटोगे तो इतना रास्ता तुम्हें झूठ का ही पार करना पड़ेगा, जितना तुम झूठ में चले गए हो।

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