हमारे भीतर भी कोई केंद्र है जिससे वह जाना जाता है, जिसे हम परमात्मा कहें। लेकिन उस तक हमारी जीवन— धारा नहीं दौड़ती तो वह केंद्र निष्क्रिय पड़ रह जाता है। आंखें हों ठीक बिलकुल, और आंखों तक जीवन की धारा न दौड़े, तो आंखें बेकार हो जाएं।
एक लड़की को मेरे पास लाए थे कुछ मित्र। उस युवती का किसी से प्रेम था और घर के लोगों को पता चला और प्रेम के बीच दीवाल उन्होंने खड़ी की। अब तक हम इतनी अच्छी दुनिया नहीं बना पाए जहां प्रेम के लिए दीवालें न बनानी पड़े। उन्होंने दीवाल खड़ी कर दी, उस युवती को और उस युवक को मिलने का द्वार बंद कर दिया। बड़े घर की युवती थी, बीच से छत से दीवाल उठा दी, आर—पार देखना न हो सके। जिस दिन वह दीवाल उठी, उसी दिन वह लड़की अचानक अंधी हो गई। उसे डाक्टरों के पास ले गए। उन्होंने कहा, आंख तो बिलकुल ठीक है, लेकिन लड़की को दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता है! पहले तो शक हुआ, मां—बाप ने डांटा—डपटा, मारने—पीटने की धमकी दी। लेकिन डांटने—डपटने से अंधेपन तो ठीक नहीं होते। डाक्टरों को दिखाया। डाक्टरों ने कहा, आंख बिलकुल ठीक है। लेकिन फिर भी डाक्टरों ने कहा कि लड़की झूठ नहीं बोलती है, उसे दिखाई नहीं पड़ रहा है। साइकोलाजिकल ब्लाइंडनेस, उन्होंने कहा कि मानसिक अंधापन आ गया। तो उन्होंने कहा, हम कुछ न कर सकेंगे। लड़की की जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है; वह जो ऊर्जा आंख तक जाती है, वह बंद हो गई है, वह धारा अवरुद्ध हो गई है। आंख ठीक है, लेकिन जीवन— धारा आंख तक नहीं पहुंचती है।
उस लड़की को मेरे पास लाए, मैंने सारी बात समझी। मैंने उस लड़की को पूछा कि क्या हुआ? तेरे मन में क्या हुआ है? उसने कहा कि मेरे मन में यह हुआ है कि जिसे देखने के लिए मेरे पास आंखें हैं, अगर उसे न देख सकूं तो आंखों की क्या जरूरत है? बेहतर है कि अंधी हो जाऊं। कल रात भर मेरे मन में एक ही खयाल चलता रहा। रात मैंने सपना भी देखा कि मैं अंधी हो गई हूं। और यह जानकर मेरा मन प्रसन्न हुआ कि अंधी हो गई हूं। क्योंकि जिसे देखने के लिए आंख आनंदित होती, अब उसे देख नहीं सकूंगी तो आंख की क्या जरूरत है, अंधा ही हो जाना अच्छा है।
उसका मन अंधा होने के लिए राजी हो गया, जीवन— धारा आंख तक जानी बंद हो गई है। आंख ठीक है, आंख देख सकती है, लेकिन जिस शक्ति से देख सकती थी वह आंख तक नहीं आती है।
हमारे व्यक्तित्व में छिपा हुआ कोई केंद्र है जहां से परमात्मा पहचाना, जाना जाता है; जहां से सत्य की झलक मिलती है; जहां से जीवन की मूल ऊर्जा से हम संबंधित होते हैं; जहां से पहली बार संगीत उठता है वह जो किसी वाद्य से नहीं उठ सकता जहां से पहली बार वे सुगंधें उपलब्ध होती हैं जो अनिर्वचनीय हैं; और जहां से उस सबका द्वार खुलता है जिसे हम मुक्ति कहें; जहां कोई बंधन नहीं, जहां परम स्वतंत्रता है; जहां कोई सीमा नहीं और असीम का विस्तार है, जहां कोई दुख नहीं और जहां आनंद, और आनंद, और आनंद, और आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लेकिन उस केंद्र तक हमारी जीवन— धारा नहीं जाती, एनर्जी नहीं जाती, ऊर्जा नहीं जाती, कहीं नीचे ही अटककर रह जाती है।
इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि तीन दिन जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं इस ऊर्जा को, इस शक्ति को उस केंद्र तक पहुंचाने का ही प्रयास करना है, जहां वह फूल खिल जाए, वह दीया जल जाए, वह आंख मिल जाए—वह तीसरी आंख, वह सुपर सेंस, वह अतींद्रिय इंद्रिय खुल जाए—जहां से कुछ लोगों ने देखा है, और जहां से सारे लोग देखने के अधिकारी हैं। लेकिन बीज होने से ही जरूरी नहीं कि कोई वृक्ष हो जाए। हर बीज अधिकारी है वृक्ष होने का, लेकिन सभी बीज वृक्ष नहीं हो पाते। क्योंकि बीज की संभावना तो है, पोटेशियलिटी तो है कि वृक्ष हो जाए, लेकिन खाद भी जुटानी पड़ती है, जमीन में बीज को दबना भी पड़ता, मरना भी पड़ता, टूटना पड़ता, बिखरना पड़ता। जो बीज टूटने, बिखरने को, मिटने को राजी हो जाता है वह वृक्ष हो जाता है। और अगर वृक्ष के पास हम बीज को रखकर देखें तो पहचानना बहुत मुश्किल होगा कि यह बीज इतना बड़ा वृक्ष बन सकता है! असंभव! असंभव मालूम पड़ेगा। इतना सा बीज इतना बड़ा वृक्ष कैसे बनेगा!
ऐसा ही लगा है सदा। जब कृष्ण के पास हम खड़े हुए हैं, तो ऐसा ही लगा है कि हम कहां बन सकेंगे! तो हमने कहा तुम भगवान हो, हम साधारणजन, हम कहां बन सकेंगे। तुम अवतार हो, हम साधारणजन, हम तो जमीन पर ही रेंगते रहेंगे; हमारी यह सामर्थ्य नहीं। जब कोई बुद्ध और कोई महावीर हमारे पास से गुजरा है, तो हमने उसके चरणों में नमस्कार कर लिए हैं— और कहा कि तीर्थंकर हो, अवतार हो, ईश्वर के पुत्र हो, हम साधारणजन!
अगर बीज कह सकता, तो वृक्ष के पास वह भी कहता कि भगवान हो, तीर्थंकर हो, अवतार हो; हम साधारण बीज, हम कहा ऐसे हो सकेंगे! बीज को कैसे भरोसा आएगा कि इतना बड़ा वृक्ष उसमें छिपा हो सकता है? लेकिन यह बड़ा वृक्ष कभी बीज था, और जो आज बीज है वह कभी बड़ा वृक्ष हो सकता है।
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