Tuesday 23 June 2015

ह हमारे भीतर की एक प्यास है, जिसको हमने पूरा होने से, बढ़ने से, जगने से सब तरह से रोका है। वह प्यास जगह— जगह खड़ी हो जाती है, हमारे हर रास्ते पर प्रश्नचिह्न बन जाती है। और वह कहती है इतना धन पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं; इतना यश पा लिया, लेकिन कुछ मिला नहीं, सब पा लिया, लेकिन खाली हो तुम। वह प्यास जगह—जगह से हमें कोंचती है, कुरेदती है, जगह—जगह से छेदती है। लेकिन हम उसको झुठलाकर फिर अपने काम में और जोर से लग जाते हैं, ताकि यह आवाज सुनाई न पड़े। इसलिए धन कमानेवाला और जोर से कमाने लगता है, और जोर से कमाने लगता है। यश की दौडवाला और तेजी से दौड़ने लगता है। वह अपने कान बंद कर लेता है कि सुनाई न पड़े कि कुछ भी नहीं मिला।
हमारा सारा का सारा इंतजाम प्यास को जगने से रोकता है। अन्यथा….. .एक दिन जरूर पृथ्वी पर ऐसा होगा कि जैसे बच्चे भूख और प्यास लेकर, और सेक्स और यौन लेकर पैदा होते हैं, ऐसे ही वे डिवाइन थर्स्ट, परमात्मा की प्यास लेकर भी पैदा होते हुए मालूम पड़ेंगे। वह दुनिया कभी बन सकती है, बनाने जैसी है। कौन बनाए उसे?
बहुत प्यासे लोग जो परमात्मा को खोजते हैं, उस दुनिया को बना सकते हैं। लेकिन जैसा अब तक है, उस सारे षड्यंत्र को तोड़ देने की जरूरत है, तब ऐसा हो सकता है।
प्यास तो है। लेकिन आदमी कृत्रिम उपाय कर ले सकता है। अब चीन में हजारों साल तक स्त्रियों के पैर में लोहे का जूता पहनाया जाता था, कि पैर छोटा रहे। छोटा पैर सौंदर्य का चिह्न था। जितना छोटा पैर हो, उतने बड़े घर की लड़की थी। तो स्त्रियां चल ही नहीं सकती थीं, पैर इतने छोटे रह जाते थे। शरीर तो बड़े हो जाते, पैर छोटे रह जाते। वे चल ही न पातीं। जो स्त्री बिलकुल न चल पाती, वह उतने शाही खानदान की स्त्री! क्योंकि गरीब की स्त्री तो अफोर्ड नहीं कर सकती थी, उसको तो पैर बड़े ही रखना पड़ता था, उसको तो चलना पड़ता था, काम करना पड़ता था। सिर्फ शाही स्त्रियां चलने से बच सकती थीं। तो कंधों पर हाथ का सहारा लेकर चलती थीं। अपंग हो जाती थीं, लेकिन समझा जाता था कि सौंदर्य है। अपंग होना था वह।
आज चीन की कोई लड़की तैयार न होगी, कहेगी पागल थे वे लोग। लेकिन हजारों साल तक यह चला। जब कोई चीज चलती है तो पता नहीं चलता। जब हजारों लोग, इकट्ठी भीड़ करती है तो पता नहीं चलता। जब सारी भीड़ पैरों में जूते पहना रही हो लोहे के, तो सारी लड़कियां पहनती थीं। जो नहीं पहनती, उसको लोग कहते कि तू पागल है। उसे अच्छा, सुंदर पति न मिलता, संपन्न परिवार न मिलता, वह दीन और दरिद्र समझी जाती। और जहां भी उसका पैर दिख जाता वहीं गंवार समझी जाती— अशिक्षित, असंस्कृत। क्योंकि तेरा पैर इतना बड़ा! पैर सिर्फ बड़े गंवार के ही चीन में होते थे, सुसंस्कृत का पैर तो छोटा होता था।
तो हजारों साल तक इस खयाल ने वहां की स्त्रियों को पंगु बनाए रखा। खयाल भी नहीं आया कि हम यह क्या पागलपन कर रहे हैं! लेकिन वह चला। जब टूटा तब पता चला कि यह तो पागलपन था।
ऐसे ही सारी मनुष्यता का मस्तिष्क पंगु बनाया गया है, ईश्वर की दृष्टि से। ईश्वर की तरफ जाने की जो प्यास है, उसे सब तरफ से काट दिया जाता है; उसको पनपने के मौके नहीं दिए जाते। और अगर कभी उठती भी हो, तो झूठे सब्स्‍टियूट खड़े कर दिए जाते हैं और बता दिया जाता है— परमात्मा चाहिए? चले जाओ मंदिर में! परमात्मा चाहिए? पढ़ लो गीता, पढ़ो कुरान, पढ़ो वेद— मिल जाएगा।
वहां कुछ भी नहीं मिलता, शब्द मिलते हैं। मंदिर में पत्थर मिलते हैं। तब आदमी सोचता है कि कुछ भी नहीं है, तो शायद अपनी प्यास ही झूठी रही होगी। और फिर प्यास ऐसी चीज है कि आई और गई। जब तक आप मंदिर गए तब तक प्यास चली गई। जब तक आपने गीता पढ़ी तब तक प्यास चली गई। फिर धीरे— धीरे प्यास कुंठित हो जाती है। और जब किसी प्यास को तृप्त होने का मौका न मिले तो वह मर जाती है। वह धीरे— धीरे मर जाती है।
अगर आप तीन दिन भूखे रहें, तो बहुत जोर से भूख लगेगी पहले दिन; दूसरे दिन और जोर से लगेगी, तीसरे दिन और जोर से लगेगी, चौथे दिन कम हो जाएगी, पांचवें दिन और कम हो जाएगी, छठवें दिन और कम हो जाएगी; पंद्रह दिन के बाद भूख लगनी बंद हो जाएगी। महीने भर भूखे रह जाएं, फिर पता ही नहीं चलेगा कि भूख क्या है। कमजोर होते चले जाएंगे, क्षीण होते चले जाएंगे, रोज वजन कम होता चला जाएगा, अपना मांस पचा जाएंगे, लेकिन भूख लगनी बंद हो जाएगी; क्योंकि अगर महीने भर तक भूख को मौका न दिया बढ़ने का, तो मर जाएगी।

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