Thursday 25 June 2015

तो मैं साधक को निरंतर यह स्मरण रखवाना चाहता हूं कि जो साधना वह कर रहा है, वह एक गहरे झूठ में उतर जाने का ऐंटीडोट है। और झूठ का ऐंटीडोट झूठ ही होगा। जहर को जहर ही काटेगा। सिर्फ विपरीत रुख होगा। लेकिन यह याद दिलाना जरूरी है, नहीं तो संसार तो छूटेगा, संन्यास पकड़ जाएगा। संसार तो छूट जाएगा और संन्यास पकड़ जाएगा। और दुकान तो छूट जाएगी, मंदिर पकड़ जाएगा। धन तो छूट जायेगा, ध्यान पकड जाएगा। और पकड़ना कुछ भी खतरनाक है। क्योंकि जो भी पकड़ जाएगा, वह बंधन बन जाएगा। वह चाहे धन हो, और चाहे ध्यान हो। ठीक साधना उस दिन जानना जिस दिन ध्यान की जरूरत न रह जाए, जिस दिन ध्यान बेकार हो जाए।
स्वभावत:, जो आदमी छत पर पहुंच गया है उसके लिए सीढ़ी बेकार हो जानी चाहिए। और अगर वह अब भी कहता है कि मेरे लिए सीढ़ी बड़े काम की है, तो समझना कि अभी छत पर नहीं पहुंचा। अभी कहीं सीडी पर ही खड़ा होगा। और हो सकता है कि सीडी के आखिरी चरण पर पहुंच जाये, आखिरी सोपान पर पहुंच जाए, और फिर भी अगर सीढ़ी को पकड़े रहे, तो ध्यान रखना छत से वह अभी भी उतना ही दूर है जितना सीडी के पहले सोपान पर था। छत पर नहीं पहुंचा। दोनों हालत में छत से दूर है। तुम सीढ़ी पूरी भी चढ़ जाओ, लेकिन अगर आखिरी चरण पर रुक जाओ, तो भी तुम पहुंचे कहां! हो तो तुम वहीं। सीडी पर फर्क पड़ गया। पहले तुम पहले सोपान पर थे सीडी के, अब सौवें सोपान पर हो। लेकिन हो सीडी पर। और जो सीडी पर है, वह छत पर नहीं है। छत पर होने के लिए दो काम करने पड़े, सीढ़ी चढ़नी पड़े और सीडी छोड़नी भी पड़े।
इसलिए मैं कहता हूं ध्यान का उपयोग भी है और साथ में कहता हूं कि ध्यान ऐंटीडोट से ज्यादा नहीं। इसलिए मैं कहता हूं, साधना करना भी और कहता हूं छोड़ना भी। और जब दोनों बातें मुझे कहनी हैं तो कठिनाई तो इसमें शुरू होगी ही, क्योंकि तुम सोचोगे ही स्वभावत: कि साधना के लिए इतनी बातें करते हैं आप कि यह करो, वह करो, और फिर कह देते हैं कि यह सब झूठा है। तो हमारे मन में होता है कि जब झूठा है तो करें ही क्यों! हमारा तर्क यह है कि जब सीडी से उतरना ही पड़ेगा तो हम चढ़े ही क्यों? लेकिन ध्यान रहे, अगर सीडी पर नहीं चढ़े, तब भी सीडी के बाहर रहोगे, और जो सीढ़ी पर चढ़कर छत पर उतर गया है, वह भी सीडी के बाहर हो गया है; लेकिन तुम दोनों के प्लेन अलग होंगे। वह छत पर होगा और तुम जमीन पर होओगे। तुम भी सीढ़ी पर नहीं हो, वह भी सीढ़ी पर नहीं है, लेकिन तुम दोनों में बुनियादी फर्क है। तुम सीढ़ी पर चढ़े नहीं, इसलिए सीडी के बाहर हो; वह सीडी पर चढ़ा और उतरा, इसलिए सीढ़ी के बाहर है।
और जिंदगी बड़ा राज है। उसमें कुछ चीजें चढ़नी भी पड़ती हैं और उतरनी भी पड़ती हैं। उसमें कभी कुछ पकड़ना भी पड़ता है और कभी कुछ छोड़ना भी पड़ता है। लेकिन हमारा मन कहता है कि अगर पकड़ना है तो फिर बिलकुल पकड़ो, अगर छोड़ना है तो बिलकुल छोड़ो। यह तर्क खतरनाक है। इससे जिंदगी में कभी कोई गति नहीं हो सकती।
तो चूंकि दोनों ही बातें मेरे खयाल में हैं और मैं देख रहा हूं कि ऐसी कठिनाई हो गई है कि कुछ लोगों ने धन को पकड़ा है, कुछ लोगों ने धर्म को पकड़ा हुआ है, कुछ लोगों ने संसार को पकड़ा है, किन्हीं ने मोक्ष को पकड़ा है, लेकिन पकड़ नहीं छूटती। और मुक्त वही है जिसकी कोई पकड़ नहीं है। और सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई क्लिगिंग, कोई अटकाव, कोई रुकाव, जिसका कोई आग्रह नहीं है। सत्य को वही जानेगा जिसकी कोई शर्त नहीं है, जिसकी कोई कंडीशन नहीं है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं मंदिर में ही रहूंगा, मैं दुकान पर न जाऊंगा, तो तुम सत्य को न जान सकोगे। तुम उसी सत्य को जान सकोगे जो मंदिर के झूठ के साथ पैदा होता है। अगर तुम्हारी इतनी भी शर्त है कि मैं इस भांति से ही जीऊंगा, संन्यासी की तरह जीऊंगा, अगर यह भी तुम्हारी शर्त है, तो तुम सत्य को न जान पाओगे।
तुम सीडी तो चढ़े, लेकिन आखिरी सोपान पर खड़े होकर तुमने सीडी पकड़ ली। कई दफे मन में होता भी है कि जिस सीडी ने इतनी दूर तक चढ़ाया, उसे एकदम छोड़ कैसे दें! उसे पकड़ लेने का मन हो जाता है। आम तौर से तभी तरफ यह होता है।

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